Wednesday 9 November 2016

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जागो फिर एक बार | हिंदी कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Jaago Fir Ek Baar | Hindi Poem | Sooryakant Tripaathi Nirala

जागो फिर एक बार !

जागो फिर एक बार!
                 प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
                 अरुण-पंख तरुण-किरण
                  खड़ी खोलती है द्वार-
जागो फिर एक बार!
                  आँखे अलियों-सी
                  किस मधु की गलियों में फँसी,
                  बन्द कर पाँखें
                  पी रही हैं मधु मौन
                  अथवा सोई कमल-कोरकों में?-
                  बन्द हो रहा गुंजार-
जागो फिर एक बार!
                  अस्ताचल चले रवि,
                  शशि-छवि विभावरी में
                  चित्रित हुई है देख
                  यामिनीगन्धा जगी,
                  एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,
                  आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी
                  घेर रहा चन्द्र को चाव से
                  शिशिर-भार-व्याकुल कुल
                  खुले फूल झुके हुए,
                  आया कलियों में मधुर
                   मद-उर-यौवन उभार-
जागो फिर एक बार!
                   पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,
                   सेज पर विरह-विदग्धा वधू
                   याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की
                   मूँद रही पलकें चारु
                   नयन जल ढल गये,
                   लघुतर कर व्यथा-भार
                   जागो फिर एक बार!
                   सहृदय समीर जैसे
                   पोंछों प्रिय, नयन-नीर
                   शयन-शिथिल बाहें
                   भर स्वप्निल आवेश में,
                   आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,
                   सब सुप्ति सुखोन्माद हो,
                    छूट-छूट अलस
                    फैल जाने दो पीठ पर
                    कल्पना से कोमल
                    ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।
                    तन-मन थक जायें,
                    मृदु सरभि-सी समीर में
                    बुद्धि बुद्धि में हो लीन
                    मन में मन, जी जी में,
                    एक अनुभव बहता रहे
                    उभय आत्माओं मे,
                    कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार!
                    उगे अरुणाचल में रवि
                    आई भारती-रति कवि-कंठ में,
                    क्षण-क्षण में परिवर्तित
                    होते रहे प्रकृति-पट,
                    गया दिन, आई रात,
                    गयी रात, खुला दिन
                    ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास,
                    वर्ष कितने ही हजार-
जागो फिर एक बार!
                                                          -सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' 
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Tuesday 1 November 2016

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हमारे बारे में

जीवन उद्यम- एक हिंदी साहित्य आधारित ब्लॉग है जो जीवन को साहित्य से जोड़ता है | |

यहाँ पढ़िए उत्कृष्ट, शिक्षाप्रद तथा प्रेरणादायक हिंदी साहित्य | जीवन उद्यम का विश्वास है कि इस आयाम (ब्लॉग) पर लिखित साहित्य सामग्री पाठकगण के जीवन में नई चेतना का विकाश करेगी | कहानियां उसकी गुरु बनेंगी, कवितायेँ उसकी मित्र तथा लेख उसके पथ-प्रदर्शक |

क्योंकि महात्मा गाँधी कहतें हैं "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है" इसलिए यह हमारा छोटा सा प्रयास हिंदी भाषा की सेवा में निहित है | आयें हम सब मिलकर इस प्रयास को सफल बनायें |
हमारे संपर्क सूत्र है :  bahaduranjeet366@gmail.com
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Wednesday 26 October 2016

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इन्सान के दुशमन वैज्ञानिक | हिंदी लेख | राजेन्द्र त्यागी | Insaan Ke Dushman | Hindi Essay| Ranjendra Tyagi

   'इन्सान के दुश्मन वैज्ञानिक' राजेंद्र त्यागी जी द्वारा रचित एक व्यंगात्मक लेख है जिसमे लेखक ने वैज्ञानिकों के जीवों के लुप्त होने की चिंता को अधिक महत्व न देकर मनुष्य में लुप्त हो रही मनुष्यता का ज़िक्र किया | लेखक ने अपनी चिंता इस बात पर भी व्यक्त की है की यदि दो इन्सान और जानवर के जींस मिलाकर ने जीव की उत्पत्ति की गई तो इसके क्या संभवित परिणाम क्या होंगे |



       जीव वैज्ञानिक अब मानव व जानवरों के जींस मिलाकर नया जीव उत्पन्न करने की  तैयारी में हैं | इससे पूर्व चूहे को सुपर चूहा बनाया जा चूका है | सुना हैं, गिद्धों की पैदावार बढ़ाने में भी जीव विज्ञानी काफ़ी सफलता प्राप्त कर चुके हैं | लगता है कि जीव विज्ञानी इंसान विरोधी हो गए हैं | कारण स्पष्ट  है, बन्दर-कुत्ते, चूहे-बिल्ली, भेड़-बकरी पता नहीं किस-किस जानवर के भविष्य को लेकर जीव विज्ञानी चिंतित हैं, किन्तु इंसान से गायब इंसानियत उनकी चिंता का विषय नहीं है | इंसान को सुपर इंसान बनाने की बात उनके भेजे में नहीं आ रही है | इंसानों की संख्या निरंतर घट रही है, यह उनके लिए चिंता का विषय नहीं है | इसके विपरीत जनसंख्या-नियंत्रण पर अवश्य जोर दे रहे हैं | वे नहीं जानते हैं की जिनकी बढती पैदावार तुम्हारी चिंता का विषय है, उनमें इंसान हैं, कितने | उन्हें तो इंसान की शक्ल-ओ-सूरत के सभी जीव इंसान नजर आते हैं | चूहे-बिल्ली अथवा गिद्ध हमारे लिए ज्यादा चिंता का विषय नहीं है | हमारी चिंता का विषय तो व नया जीव है, जिसे मानव व जानवर के संयुक्त जीन्स  से बनाने की तयारी चल रही है | इस विषय को लेकर हमारी चिंता द्विआयामी है | वैज्ञानिकों का इरादा यदि जानवर के जींस में मानव जींस आरोपित कर उत्तम किस्म का जानवर बनाना है, तो कल्पना करो कि नये किस्म के उस जीव का चरित्र कैसा होगा ? अभी इस विषय में कल्पना ही की जा सकती है, क्योंकि अभी इस बारे में विज्ञानी भी कसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे हैं |
     हमारा मानना है कि वह नया जानवर इस सृष्टि का सर्वाधिक खतरनाक जानवर होगा | कारण स्पष्ट है, जानवर भले ही किसी भी रूप में हो, इंसान उन्हें खतरनाक ही मानकर चलता है |एक-दो दुधारुवों को छोड़कर, मगर डरता उनसे भी है | पुन: कल्पना कीजिए, जब जानवर के चरित्र में मानवीय सद्गुण व्याप्त हो जाएँगे, तो स्थिति क्या होगी ? जानवर भी बलात्कारी हो जाएँगे | भ्रष्टाचारी हो जाएँगे, असत्य भाषी हो जाएँगे, लैग-पुलर हो जायेंगे | अभी तक कहा जाता है, 'आदमी जानवर से ज्यादा खतरनाक है!' तब क्या स्थिति इसके विपरीत नहीं हो जाएगी | जानवर आदमी से ज़्यादा खतरनाक नहीं हो जाएगा?
     अब जरा दूसरी संभावना पर गौर कीजिये | इस नए शोध से यदि आदमी में जानवर के गुण आ गए, तो वह सुपर मैन होगा या नरपिशाच? नरपिशाच की कल्पना मात्र से ही क्या पसीने नहीं आने लगते हैं? स्पष्ट है कि वैज्ञानिक यदि नरपिशाच निर्मित करने पर विचार कर रहे हैं, तो जो थोड़े बहुत इंसान शेष हैं भी, तब भी वे स्वर्ग की ओर पलायन कर जाएँगे | और इंसान ढूंढे नहीं मिलेगा | जानवर तो जानवर है ही, इंसान के भेष में भी जानवरों  की तादाद बढ़ जाएगी | अब आप ही बताइए, क्या हमारी चिंता जायज़ नहीं है |
     जीव विज्ञानी गिद्धों की घटती पैदावार को लेकर चिंतित हैं | ऊर्जा गिद्धों की पैदावार बढाने में लगा रहे हैं | सुना है, सरकार भी इस विषय को लाकर काफी चिंतित है | सरकार की चिंता को लेकर हमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि सजातीय के प्रति चिंतित होना जीवों का स्वभाव है | सरकार नामक गठबंधन में सामिल तत्वों कुछ हों या न हों, किन्तु उनके जीव होने से इंकार नहीं किया जा सकता |
     वैसे, भी सरकारों का सरोकार मुख्य रूप में चिंता और चिंतन से ही है, अत: गिद्धों के प्रति उनका मोह आश्चर्य का विषय नहीं है | आश्चर्य हमें वैज्ञानिकों की सोच को लेकर है, क्योंकि हम उन्हें बुद्धूजीवी नहीं बुद्धिजीवी मानते हैं और गिद्धों का विजातीय मानते हैं | हमारा मानना है कि कम से कम वैज्ञानिकों का मुख्य उद्देश्य तो मानव सेवा ही है | फिर न जाने क्यों, उन्हें अचानक गिद्ध मोह हो गया? क्यों उनकी पैदावार बढ़ाने में अभियान चला रहे हैं? पता नहीं क्यों अपनी ऊर्जा उनका उत्पादन बढ़ाने में ज़ाया करने पर वे उतारू हैं? इसे सोहबत का असर भी कहा जा सकता है और परिस्थतिजन्य अन्य कारण भी |
     अभियान केवल गिद्धों की पैदावार को लेकर ही चलाया जाता तो भी हमारी चिंता का वजन ज्यादा न होता , हमारे लिए चिंता सरकारी स्तर की होती | चिंता का वज़न वजनी होने का कारण इंसानों की अपेक्षा गिद्दों को कहीं अधिक महत्व देना है |
     गिद्धों की पैदावार घट रही है, यह सुनकर भी आश्चर्य होता है और इंसानियत विरोधी ऐसे लोगों  की बुद्धि पर तरस भी आता है | वास्तविकता तो यह है कि पैदावार गिद्धों की नहीं, इंसानों की घट रही है | गिद्ध एक ढूंढो, हज़ार मिलते हैं और इंसानों हज़ार के बीच एक भी मुश्किल से!
     हम इतना अवश्य स्वीकारते हैं कि मरे जानवरों को आहार बनाने वाले गिद्धनुमा विशाल परिंदे आसमान में परिक्रमा करते अब नहीं दिखाई पड़ते, लेकिन उनकी न तो उनकी संख्या में ही कमी आई और न ही उनका पैदवार घटी है, केवल स्वरुप बदला है |
     परिवर्तित स्वरुप को पहचानो और अपनी दृष्टि बदलो, चारों ओर गिद्ध ही गिद्ध नज़र आएँगे | उनके स्वरुप में ही नहीं, स्वभाव में भी परिवर्तन आया है | परिंदे गिद्ध मृत देह का भक्षण करते थे, परिवर्तित गिद्ध जीवित को ही अपना आहार बना रहे हैं |
     परिंदे पर्यावरण के लिए लाभदायक होते होंगे, हम इनकार नहीं करते, मगर विचारणीय प्रश्न यह भी है कि परिवर्तित गिद्ध समाज के पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं |
     खैर जो भी है, खोज गिद्धों की नहीं, जटायु की होंनी चाहिए और उन्हीं  की घटती पैदावार चिंता का विषय होना चाहिए | लुप्त होते गिद्धों के लिए, सरकार व वैज्ञानिकों को लुप्त होती इंसानियत की चिंता होनी चाहिए | इंसानियत वाले सुपर इन्सान बनाने के प्रयास करने चाहिए |

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Monday 3 October 2016

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राष्ट्रीयता | हिंदी लेख |गणेशशंकर विद्यार्थी | Rashtreeyta | Hindi Essay | Ganesh Shankar Vidyarthi |

राष्ट्रीयता 

भारत में हम राष्ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं | हमें भारत के उच्च और उज्वल भविष्य का विश्वास है | हमें विश्वास है कि हमारी बाढ़ किसी के रोके नहीं रुक सकती |

देश में कहीं-कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी और भद्दी भूल की जा रही है | आये दिन हम इस भूल के अनेकों प्रमाण पाते हैं | यदि इस भाव के अर्थ भली-भाँती समझ लिए गए होते तो इस विषय में बहुत-सी अनर्गल और अस्पष्ट बातें सुनने में न आतीं | राष्ट्रीयता जातीयता नहीं है | राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं है | राष्ट्रीयता सामजिक बन्धनों का घेरा नहीं है | राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से होता है | इसकी सीमाएँ देश की सीमाएँ हैं | प्राकृतिक विशेषता और भिन्नता देश को संसार से अलग और स्पष्ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्य के बंधन-से बंधती है | राष्ट्र पराधीनता के पालने में नहीं पलता | स्वाधीन देश ही राष्ट्रों की भूमि है, क्योंकि पुच्छ-विहीन पशु हों तो हों, परन्तु अपना शासन अपने हाथों में न रखने वाले राष्ट्र नहीं होते | राष्ट्रीयता का भाव मानव-उन्नति की एक सीढ़ी है | उसका उदय नितांत स्वाभाविक रीति से हुआ | यूरोप के देशों में यह सबसे पहले जन्मा |
     मनुष्य उसी समय तक मनुष्य है, जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऐसा ऊँचा आदर्श है, जिसके लिए वह अपने प्राण तक दे सके | समय की गति के साथ आदर्शों में परिवर्तन हुए | धर्म के आदर्श के लिए लोगों ने जान दी और तन कटाया | परन्तु संसार के भिन्न-भिन्न धर्मों के संघर्षण, एक-एक देश में अनेक धर्मों के होने तथा धार्मिक भावों की प्रधानता से देश के व्यापार, कला-कौशल और सभ्यता की उन्नति में रूकावट पड़ने से, अंत में धीरे-धीरे धर्म का पक्षपात कम हो चला और लोगों के सामने  देश-प्रेम का स्वाभाविक आदर्श सामने आ गया | जो प्राचीन काल में धर्म के नाम पर कटते-मरते थे, आज उनकी संतति देश के नाम पर मरती है | पुराने अच्छे थे या ये नये, इस पर बहस करना फिजूल ही है, पर उनमें भी जीवन था और इनमें भी जीवन है | वे भी त्याग करना जानते थे और ये भी और उन अभागों से लाख दर्जे अच्छे और सौभाग्यवान हैं जिनके सामने कोई आदर्श नहीं और जो हर बात में मौत से डरते हैं | ये पिछले आदमी अपने देश के बोझ और अपनी माता की कोख के कलंक हैं | देश-प्रेम का भाव इंग्लैंड में उस समय उदय हो चूका था, जब स्पेन के कैथोलिक राजा फिलिप ने इंग्लैंड पर अजेय जहाजी बेड़े आरमेड़ा द्वारा चढ़ाई की थी, क्योंकि इंग्लैंड के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट, दोनों प्रकार के ईसाइयों ने देश के शत्रु का एक-सा स्वागत किया | फ़्रांस की राज्यक्रांति ने राष्ट्रीयता को पूरे वैभव से खिला दिया | इस प्रकाशमान रूप को देखकर गिरे हुए देशों को आशा का मधुर सन्देश मिला | १९वीं  शताब्दी थी | वर्तमान जर्मनी का उदय इसी शताब्दी में हुआ | पराधीन इटली ने स्वेच्छाचारी आस्ट्रिया के बन्धनों से मुक्ति पाई | यूनान को स्वाधीनता मिली और बालकन के यूनान को स्वाधीनता मिली और बालकन के अन्य राष्ट्र भी कब्रों से सर निकाल कर उठ पड़े | गिरे हुए पूर्व ने भी अपने विभूति दिखाई | बाहर वाले उसे दोनों हाथों से लूट रहे थे | उसे चैतन्यता प्राप्त हुई | उसने अँगड़ाई ली और चोरों के कान खड़े हो गये | उसने संसार की गति की ओर दृष्टि फेरी | देखा, संसार को एक नया प्रकाश मिल गया है और जाना कि स्वार्थपरायणता के इस अंधकर को बिना उस प्रकाश के पार करना असम्भव है |
     उसके मन में हिलोरें उठीं और अब हम उन हिलोरों के रत्न देख रहे हैं | जापान एक रत्न है-ऐसा चमकता हुआ कि  राष्ट्रीयता उसे कहीं भी पेश कर सकती है | लहर रुकी नहीं | बढ़ी और खूब बढ़ी | अफीमची चीन को उसने जगाया और पराधीन भारत को उसने चेताया | फारस में उसने जागृति फैलाई और एशिया के जंगलों और खोहों तक में राष्ट्रीयता की प्रतिध्वनि इस समय किसी न किसी रूप में उसने पहुँचाई | यह संसार की लहर है | इसे रोका नहीं जा सकता | वे स्वेच्छाचारी अपनी हाथ तोड़ लेंगे-जो उसे रोकेंगे और उन मुर्दों की खाक का भी पता नहीं लगेगा - जो इसके सन्देश को नहीं सुनेगे | भारत में हम राष्ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं | हमें भारत के उच्च और उज्वल भविष्य का विश्वास है | हमें विश्वास है कि हमारी बाढ़ किसी के रोके नहीं रुक सकती | रास्ते में रोकने वाली चट्टानें आ सकती हैं | बिना चट्टानें पानी की किसी बाढ़ को  नहीं टोक सकतीं, परन्तु एक बात है, हमें जान-बूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए | ऊटपटांग रास्ते नहीं नापने चाहिए |
     कुछ लोग 'हिन्दू राष्ट्र' -'हिन्दू राष्ट्र' चिल्लाते हैं | हमें क्षमा किया जाय, यदि हम कहें-नहीं, हम इस बात पर जोर दें- कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक 'राष्ट्र शब्द के अर्थ ही नहीं समझे | हम भविष्यवक्ता नहीं, पर अवस्था हमसे कहती है कि अब संसार में 'हिन्दू राष्ट्र' नहीं हो सकता, क्योंकि राष्ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन देशवालों के हाथ में हो और यदि मान लिया जाय कि आज भारत स्वाधीन हो जाये, या इंग्लैंड उसे औपनिवेशिक स्वराज्य दे दे, तो भी हिन्दू ही भारतीय राष्ट्र के सब कुछ न होंगे और जो ऐसा समझते हैं- हृदय से या केवल लोगों को प्रसन्न करने के लिए-वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुँचा रहे हैं | वे लोग भी इसी प्रकार की भूलकर रहे हैं जो टर्की या काबुल, मक्का या जेद्दा का स्वप्न देखते हैं, क्योंकि वे उनकी जन्मभूमि नहीं और इसमें कुछ भी कटुता न समझे जानी चाहिए, यदि हम यह कहें कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मरिसेये- यदि वे इस योग्य होंगे तो - इसी देश में गाये जायेंगे, परन्तु हमारा प्रतिपक्षी, नहीं, राष्ट्रीयता का विपक्षी मुँह बिचका कर कह सकता है कि राष्ट्रीयता स्वार्थों की खान है | देख लो इस महायुद्ध को और इंकार करने का साहस करो की संसार के राष्ट्र पक्के स्वार्थी नहीं है ? लोहे से डॉक्टर का घाव चीरने वाला चाकू और रेल की पटरियाँ बनती हैं और इसी लोहे से हत्यारे का छूरा और लड़ाई की तोपें भी बनती हैं | सूर्य की प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है पर वह बेचारा मुर्दा लाश का क्या करें, जो उसके लगते ही सड़कर बदबू देने लगती है | हम राष्ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सब कुछ नहीं, वक केवल हमारे देश की उन्नति का उपाय-भर है |
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Sunday 18 September 2016

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ग्राम | हिंदी कहानी | जय शंकर प्रासाद | Gram | Hindi story | Jayashankar Prasad

'ग्राम' कहानी जय शंकर प्रसाद जी द्वारा लिखी गई है | जमींदार मोहनदास नए इलाके के इंस्पेक्शन के लिए जाते हैं परन्तु अपना रास्ता भटकने के कारण उन्हें एक अन्य ग्राम में ठहरना पड़ता जहाँ उस इलाके से सम्बंधित एक दुखियारी स्त्री की कथा सुनकर उन्हें बहुत ही लज्जा अनुभव होती है | 
     टन ! टन ! टन ! स्टेशन पर घंटी बोली |
     श्रावण-मास की संध्या भी कैसी मनोहारिणी होती है ! मेघ-माला-विभूषित गगन की छाया सघन रसाल-कानन में पड़ रही है ! अंधियारी धीरे-धीरे अपना अधिकार पूर्व-गगन में जमाती हुई, सुशासन-कारिणी महाराणी से समान, विहंगप्रजागण को सुखनिकेतन में शयन करने की आज्ञा दे रही है | आकाशरूपी शासन-पत्र पर प्रकृति के हस्ताक्षर के समान बिजली की रेखा दिखाई पड़ती है.....ग्राम्य स्टेशन पर कहीं एक-दो दीपलोक दिखाई पड़ता है | पवन हरे-हरे निकुजों में से भ्रमण करता हुआ झिल्ली के झनकार के साथ भरी हुई झीलों में लहरों के साथ खेल रहा है | बूंदियाँ  धीरे-धीरे गिर रही है, जो कि जूही के कलियों को आर्द्र करके पवन को भी शीतल कर रही है |
      थोड़े समय में वर्षा बंद हो गई | अंधकार-रुपी अंजन के अग्रभागस्थित आलोक के समान चतुर्दशी की लालिमा को लिए हुए चंद्रदेव प्राची में हरे-हरे तरुवरों की आड़ में से अपनी किरण-प्रभा दिखाने लगे | पवन की सनसनाहट के साथ रेलगाड़ी का शब्द सुनाई पड़ने लगे | सिग्नेलर ने अपना कार्य किया | घंटा का शब्द उस हरे-भरे मैदान में गूंजने लगा | यात्री लोग अपनी गठरी बांधते हुए  स्टेशन पर पहुँचे | महादैत्य के लाल-लाल नेत्रों के समान अन्जन-गिरिनिभ इन्जिन का अग्रस्थित रक्त-आलोक दिखाई देने लगा | पागलों के सामान बड़बड़ाती हुई अपने धुन की पक्की रेलगाड़ी स्टेशन पर पहुंच गई | धड़ाधड़ यात्री लोग उतरने-चढ़ने लगे | एक स्त्री की ओर देखकर फाटक के बहर खड़ी हुई दो औरतें---जो उसकी सहेली मालूम देती है---रो रही है,और वह स्त्री एक मनुष्य के साथ रेल में बैठने को उद्यत है | उनकी क्रंदन-ध्वनि से वह स्त्री दीन भाव से उनकी ओर देखती हुई, बिना समझे हुए, सेकण्ड क्लास की गाड़ी में चढ़ने लगी; पर उसमें बैठें हुए बाबू साहब---'यह दूसरा दर्जा है, इसमें मत चढ़ो' कहते हुए उतर पड़े, और अपना हंटर घुमाते हुए स्टेशन से बाहर होने का उद्योग करने लगे |
     विलायती पिक का वृचिस पहने, बूट चढ़ाये, हंटिंग कोट धानी रंग का साफा, अंग्रजी हिन्दुस्तानी का महासम्मेलन बाबू साहब के अंग पर दिखाई पड़ रहा है | गौर वर्ण, उन्नत ललाट उसकी आभा को बढ़ा रहे हैं | स्टेशन मास्टर से सामना होते ही शेकहैण्ड करने के उपरांत बाबू साहब से बातचीत होने लगी |
     स्टे० मा०---आप इस वक्त कहाँ के आ रहे हैं ?
     मोहन०--कारिन्दों ने इलाके में बड़ा गड़बड़ मचा रक्खा है, इसलिए मैं कुसुमपुर---जो कि हमारा इलाका है---इंस्पेक्शन के लिए जा रहा हूँ |
     स्टे० मा०---फिर कब पलटियेगा ?
     मोहन०---दो रोज में | अच्छा, गुड इवनिंग !
     स्टेशन मास्टर, जो लाइन-क्लियर दे चुके थे, गुड इवनिंग करते हुए अपने आफिस में घुस गए |
     बाबू मोहनदास अंग्रेजी काठी से सजे हुए घोड़े पर, जो कि पूर्व ही से स्टेशन पर खड़ा था, सवार होकर चलते हुए |
    सरलस्वभावा ग्रामवासिनी कुलकामिनीगण  का सुमधुर संगीत धीरे-धीरे आम्र-कानन में से निकलकर चारों ओर गूँज रहा है | अन्धकार-गगन में जुगनू-तारे चमक-चमककर चित्त को चंचल कर रहे हैं | ग्रामीण लोग अपना हल कंधे पर रक्खे, बिरहा गाते हुए, बैलों की जोड़ी के साथ, घर की ओर प्रत्यावर्तन कर रहे हैं | 
     एक विशाल तरुवर की शाखा में झूला पड़ा हुआ है, उसपर चार महिलाएं बैठी है, और पचासों उसको घेरकर गाती हुई घूम रही हैं | झूले के पेंग के साथ 'अबकी सावन सइयां घर रहुरे' की सुरीली पचासों कोकिल-कंठ से निकली हुई तान पशुगणों  को भी मोहित कर रही है | बालिकाएं स्वछन्द भाव से क्रीड़ा कर रही हैं | अकस्मात् अश्व के पद-शब्द ने उन सरला कामिनियों को चौंका दिया | वे सब देखती हैं तो हमारे पूर्व-परिचित बाबू मोहनलाल घोड़े को रोककर उसपर से उतर रहे हैं | वे सब उनका भेष देखकर घबड़ा गयीं और आपस में कुछ इंगित करके चुप रह गयीं | 
    बाबू मोहनलाल ने निस्तब्धता को भंग किया, और बोले ! भद्रे---यहाँ से कुसुमपुर कितनी दूर है ? और किधर से जाना होगा ? 
     एक प्रौढ़ा ने सोचा कि 'भद्रे' कोई परिहास-शब्द तो नहीं है, पर वह कुछ कह न सकी, केवल एक ओर दिखाकर बोली---इहाँ से डेढ़ऐ  कोस तो बाय, इहै पैड़वा जाई |
     बाबू मोहनलाल उसी पगडण्डी से चले | चलते-चलते उन्हें भ्रम हो गया और वह अपनी छावनी का पथ छोड़कर दुसरे मार्ग से जाने लगे | मेघ घिर आये, जल वेग से बरसने लगा, अन्धकार और घना हो गया | भटकते-भटकते वह एक खेत के समीप पहुंचे; वहां उस हरे-भरे खेत में एक ऊंचा और बड़ा मचान था जो कि फूस से छाया हुआ था, और समीप ही में एक छोटा-सा कच्चा मकान था |
     उस मचान पर बालक और बालिकाएं बैठी हुई कोलाहल मचा रही थीं | जल में भीगते हुए भी मोहनलाल खेत के समीप खड़े होकर उनके आनन्द-कलरव को श्रवण करने लगे |
          भ्रांत होने से उनका बहुत समय व्यतीत हो गया | रात्रि अधिक बीत गयी | कहाँ ठहरें ? इसी विचार में वह खड़े रहे, बूँदें कम हो गयीं | इतने में एक बालिका अपने मलिन वसन के अंचल की आड़ में दीप लिए हुए उसी मचान की ओर जाती हुई दिखाई पड़ी |
३ 
     बालिका की अवस्था १५ वर्ष की है | आलोक से उसका अंग अंधकार-घन में विद्युलेखा की तरह की तरह चमक रहा था | यद्यपि दरिद्रता ने उसे मलिन कर रक्खा है, पर ईस्वरीय सुषमा उसके कोमल अंग पर अपना निवास किये हुए है | मोहनलाल ने थोड़ा बढ़कर उससे पूछना चाहा, पर संकुचित होकर ठिठक गए | परन्तु पूछने के अतिरिक्त दूसरा उपाय ही नहीं था | अस्तु, रूखेपन के साथ पुछा---कुसुमपुर का रास्ता किधर है ?
     बालिका इस भव्य मूर्ति को देखकर डरी, पर साहस के साथ बोली---मैं नहीं जानती | ऐसे सरल नेत्र-संचालन से इंगित करके उसने यह शब्द कहा कि युवक को क्रोध के स्थान में हंसी आ गई और कहने लगा---तो जो जानता हो,मुझे बतलाओ, मैं उससे पूछ लूँगा |
     बालिका---हमारी माता जानती होंगी |
     मोहन०---इस समय तुम कहां जाती हो ?
     बालिका---(मचान की ओर दिखाकर) वहां जो कई लड़के है, उनमें से एक हमारा भाई है, उसी को खिलाने जाती हूँ |
     मोहन०---बालक इतनी रात को खेत में क्यों बैठा है |
     बालिका---वह रात-भात और लड़कों के साथ खेत ही में रहता है |

     मोहन०---तुम्हारी माँ कहाँ हैं ?
     बालिका---चलिए, मैं लिवा चलती हूँ |
     इतना कहकर बालिका अपने भाई के पास गई, और उसको खिलाकर तथा उसके पास बैठे हुए लड़कों को भी कुछ देकर उसी क्षुद्र-कुटीराभिमुख गमन करने लगी | मोहनलाल उस सरला बालिका के पीछे चले |
४ 
     उस क्षुद्र कुटीर में पहुँचने पर एक स्त्री मोहनलाल को दिखाई पड़ी जिसकी अंगप्रभा स्वर्ण-तुल्य थी, तेजोमय मुख-मंडल, तथा ईषत उन्नत अधर अभिमान से भरे हुए थे, अवस्था उसकी ५० वर्ष से अधिक थी | मोहनलाल की आंतरिक अवस्था, जो ग्राम्यजीवन देखेने से कुछ बदल चुकी थी, उस सरल गंभीर तेजोमय मूर्ति को देख और भी सरल विनययुक्त हो गई | उसने झुककर प्रणाम किया | स्त्री ने आशीर्वाद दिया और पुछा---बेटा! कहाँ के आते हो ?
     मोहन०---मैं कुसुमपुर जाता था, किन्तु, रास्ता भूल गया.....
     'कुसुमपुर' का नाम सुनते ही स्त्री का मुख-मंडल आरक्तिम हो गया और उसके नेत्र से दो बूँद आंसू निकल आये | वे अश्रु करुणा के नहीं, किन्तु अभिमान के थे |
     मोहनलाल आश्चर्यान्वित होकर देख रहे थे | उन्होंने पुछा----आपको कुसुमपुर के नाम से क्षोभ क्यों हुआ?
     स्त्री---बेटा ! उसकी बड़ी कथा है, तुम सुनकर क्या करोगे ! 
     मोहन०---नहीं मई सुनना चाहता हूँ, यदि आप कृपा करके सुनावें |
     स्त्री---अच्छा, कुछ जलपान कर लो, तब सुनाउंगी |
     पुन: बालिका की और देखकर स्त्री ने कहा---कुछ जल पीने को ले आओ |
     आज्ञा पाते ही बालिका उस क्षुद्र गृह के एक मिट्टी के बर्तन में  से कुछ वस्तु निकाल, उसे एक पात्र में घोलकर ले आयी, और मोहनलाल के सामने रख दिया | मोहनलाल उस शर्बत को पान करके फूस की चटाई पर बैठकर स्त्री की कथा सुनने लगे |
     स्त्री कहने लगी---हमारे पति उस प्रांत के गण्य भूस्वामी थे, और वंश भी हमलोगों का बहुत उच्च था | जिस गाँव का अभी आपने नाम लिया है, वही हमारे पति की प्रधान ज़मीदारी थी | कार्य-वश एक कुंदनलाल नामक महाजन से कुछ ऋण लिया गया | कुछ भी विचार न करने से उनका बहुत रुपया बढ़ गया, और जब ऐसी अवस्था पहुंची तो अनेक उपाय करके हमारे पति धन जुटाकर उनके पास ले गए, तब उसे धूर्त ने कहा,"क्या हर्ज़ है बाबू साहब !आप आठ रोज़ में आना, हम रूपया ले लेंगे, और जो घाटा होगा, उसे छोड़ देंगे, आपका इलाका भी जायगा, इस  समय रेहननाम भी नहीं मिल रहा है |" उसका विश्वास करके हमारे पति फिर बैठे रहे, और उसने कुछ भी न पुछा | उनकी उदारता के कारण वह संचित धन भी थोड़ा हो गया, और उधर दावा करके इलाका---जो की वह ले लेना चाहता था---बहुत थोड़े रूपये में नीलाम करा लिया | फिर हमारे पति के हृदय में, उस इलाका के इस भांति निकल जाने के कारण, बहुत चोट पहुंची और इसी से उनकी मृत्यु हो गयी | इस दशा के होने के उपरांत हम लोग इस दुसरे गाँव में आकर रहने लगे | यहाँ के ज़मीदार बहुत धर्मात्मा हैं, उन्होंने कुछ सामान्य 'कर' पर यह भूमि दी है, इसी से अब हमारी जीविका है |.....
     इतना कहते-कहते स्त्री का गला अभिमान से भर आया, और कुछ कह न सकी |
     स्त्री की कथा को सुनकर मोहनलाल को बड़ा दू:ख  हुआ | रात विशेष बीत चुकी थी, अत: रात्रि-यापन करके, प्रभात में मलिन तथा पश्चिमगामी चन्द्र का अनुसरण करके, बताये हुए पथ से वह चले गए |
     पर उनके मुख पर विवाद तथा लज्जा ने अधिकार कर लिया था | कारण यह था कि स्त्री की ज़मींदारी हरण करनेवाले, तथा उसके प्राणप्रिय पति से उसे विच्छेद कराकर इस भांति दुःख देनेवाले कुंदनलाल, मोहनलाल के ही पिता थे |























  
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Sunday 7 August 2016

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वाणी | सुमित्रानंद पन्त | कविता | Vani | Sumitranand Pant | Hindi Poem

"Poet wants to dress his speech with the ornaments of words in such a way that it can transform the world."
"कवि अपनी वाणी को शब्दों के आभूषण से अलंकृत कर संसार का रूपांतरण करना चाहता है| मनुष्य के उर के नि:शब्द द्वार को खोलना चाहता है |"            
||वाणी||

            तुम वहन कर सको जन-मन में मेरे विचार,
            वाणी मेरी, चाहिए   तुम्हें   क्या   अलंकार !

भव-कर्म आज युग की स्थितियों से है पीड़ित,
जग का रूपान्तर भी जनैक्य    पर अवलंबित,

         तुम रूप कर्म से मुक्त, शब्द के पंख मार,
         कर सको सुदूर मनोनभ में जन के विहार,
            वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या   अलंकार !

चित शून्य---आज जग, नव निनाद से हो गुंजित 
मत जड़---उसमें नव स्थितियों के गुण हो जागृत

            तुम जड़ चेतन की    सीमओं   के   आर  पार 
            झंकृत भविष्य का सत्य कर सको स्वराकार,
            वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार !

युग कर्म शब्द, युग रूप शब्द, युग सत्य शब्द,
शब्दित कर  भावी  के सहस्त्र  शत  मूक शब्द,

            ज्योतित कर जन मन के जीवन का अंधकार,
            तुम खोल सको मानव   उर के निःशब्द द्वार,
            वाणी मेरी,   चाहिए   तुम्हें    क्या   अलंकार !


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Sunday 29 May 2016

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इक्केवाला-२ | विश्वम्भर नाथ शर्मा 'कौशिक' | कहानी | Ikkewala-2 | Vishwambhar Nath Sharma 'Kaushik | Hindi Story

     कहानी के इस भाग में श्यामलाल अपनी आत्म-कथा सुनाता है जिसमें लेखक ने उसके शीलवान  चरित्र का चित्रण किया है | 

 'मैं अगरवाला बनिया हूँ । मेरा नाम श्यामलाल है । मेरा जन्म-स्थान मैनपूरी है । मेरे पिता व्यापार करते थे । जिस समय मेरे पिता की मृत्यु हुई, उस समय मेरी उम्र पंद्रह साल की थी । पिता के मरने पर घर-गृहस्थी का सारा भार मेरे ऊपर पड़ा । मैंने एक वर्ष तक काम-काज चलाया, पर मुझे व्यापार का अनुभव न था, उस कारण घाटा हुआ और मेरा सब काम  बिगड़ गया | अंत को और कोई उपाय न देखे मैंने वहीं एक धनी आदमी के यहाँ नौकरी कर ली | उस समय मेरे परिवार में मेरी माता और एक छोटी बहन थी | जिसके यहाँ मैंने नौकरी की थी, वह तो थे मालदार, परन्तु बड़े कंजूस थे | ऊपर से देखने में वह एक मामूली हैसियत के आदमी दिखाई पड़ते थे; परन्तु लोग कहते थे कि उनके पास एक लाख के लगभग नकद रुपया है | उस समय मैंने लोगों की बात पर विश्वास नही किया था; क्योंकि घर की हालत देखने से किसी को यह विश्वास नहीं हो सकता कि उनके पास इतना रुपया होगा | उनकी उम्र चालीस से ऊपर थी | उन्होंने दूसरी शादी की थी और उनकी पत्नी की उम्र बीस वर्ष के लगभग थी | पहली स्त्री से उनके एक लड़का था | वह जवान था और उसका विवाह इत्यादि सब हो चूका था | उसका नाम शिवचरणलाल था | पहले तो वह अपने पिता के पास ही रहता था; परन्तु जब पिता  ने दूसरा विवाह किया, तो वह नाराज़ होकर अपनी स्त्री सहित फरुर्खाबाद चला गया | वहां उसने एक दूकान कर ली और वहीं रहने लगा |'
     'उन दिनों मुझे कसरत करने का बड़ा शौक था, इसलिए मेरा बदन बहुत अच्छा बना हुआ था | कुछ दिनों पश्चात् मेरी मालकिन मेरी बहुत खातिर करने लगी | खूब मेवा-मिठाई खिलाती थीं और महीने में दस-बीस रूपये नकद दे देती थी | इस कारण दिन बड़ी अच्छी तरह कटने लगे | मैं मालकिन के खातिर करने का असली मतलब उस समय नहीं समझा | मैंने जो समझा, वह यह था कि मेरी सेवा से प्रसन्न होकर तथा मुझे गरीब समझकर वह ऐसा करती हैं | आखिर जब एक दिन उन्होंने मुझे एकांत में बुलाकर छेड़-छाड़ की, तब मेरी आंखे खुली | मुझे आरम्भ से ही इन कामों से नफ़रत थी | मैं इन बातों को जानता भी नहीं था | न कभी ऐसी संगति ही में रहा था जिसमे इन बातो का ज्ञान प्राप्त होता | मैं उस समय जो जानता था वह यह था कि आदमी को खूब कसरत करना चाहिए और स्त्रियों से बचना चाहिए | जब मालकिन ने छेड़-छाड़ की , तो मेरा कलेजा धड़कने लगा | मुझे ऐसा मालूम हुआ, कि वह एक चुड़ैल है और मुझे भक्षण करना चाहती है |'
     इक्केवाले की इस बात पर मेरे साथी मनोहरलाल बहुत हँसे | बोले---तुम तो बिलकुल बुद्धू थे जी !
     श्यामलाल बोला---'अब जो समझिये, परुन्तु बात ऐसी ही थी | खैर, मैं अपना हाथ छुड़ाकर उनके सामने से भाग आया | अब मुझे उनके सामने जाते डर मालूम होने लगा | यही खटका लगा रहता था, कि कही किसी दिन फिर न -पकड़ ले | तीन-चार दिन के बाद वही हुआ | उन्होंने अवसर पाकर फिर मुझे घेरा | उस दिन मैंने उनसे साफ़-साफ़ कह दिया, कि यदि वह ऐसी हरकत करेंगी, तो मैं मालिक से कह दूंगा | बस, उसी दिन से मेरी खातिर बंद हो गई | केवल खातिर बंद रह जाती, वहां तक गनीमत थी; परन्तु अब उन्होंने मुझे तंग करना आरम्भ कर दिया | बात-बात पर डांटती थी | कभी मालिक से शिकायत कर देती थी | आखिर जब एक दिन मालिक ने मुझे मालकिन के कहने से बहुत डांटा, तो मैंने उन्हें अलग ले जाकर कहा---लालाजी, मेरा हिसाब कर दीजिये, मैं अब आपके यहाँ नौकरी नहीं करूँगा | लालाजी लाल-पीली आँखे करके बोले---एक तो कसूर करता है और उसपर हिसाब मांगता है ? मुझे भी तैश आ गया | मैंने कहा---कसूर किस ससुरे ने किया है ? लालाजी बोले---तो क्या मालकिन झूठ कहती है ? मैंने कहा---बिल्कुल झूट ! लालाजी ने कहा---तेरे से उनकी शत्रुता है क्या ? मैंने कहा---हाँ शत्रुता है | उन्होंने पुछा---क्यों ? मैंने कहा---अब आपसे क्या बताऊं | आप उसे भी झूठ मानेंगे | इसलिए सबसे अच्छी बात यही है कि मेरा हिसाब कर दीजिये | मेरी बात सुनकर लाला के पेट में खलबली मची | उन्होंने कहा---पहले यह बता कि बात क्या है ? मैंने कहा---उसके कहने से  कोई फायदा नहीं, आप मेरा हिसाब दे दीजिए | परन्तु लाला मेरे पीछे पड़ गए | मैंने विवश होकर सब हाल बता दिया | मुझे भय था, कि लाला को मेरी बात पर विश्वाश न होगा, पर ऐसा नहीं हुआ |  लाला ने मेरी पीठ पर हाथ फेरकर कहा---शाबास श्यामलाल, मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ | अब तुम आनंद से रहो, तुम्हारी तरफ कोई आँख नहीं देख सकेगा | बस उस दिन से मैं निर्द्वन्द्व हो गया | अब अधिकतर मैं मालिक के पास बाहर ही रहने लगा, भीतर कम जाता था | उसके पश्चात् भी मालकिन ने मेरे निकलवाने के लिए चेष्टा की, पर लाला ने उनकी एक न सुनी | आखिर वह भी हारकर बैठ गयी |'
     इस प्रकार एक वर्ष और बीता | इस बीच में लाला के एक रिश्तेदार- जो उनके चचेरे भाई होते थे---बहुत आने-जाने लगे | उनकी उम्र पच्चीस-छब्बीस वर्ष के लगभग होगी | शरीर के मोटे-ताजे और तंदरुस्त आदमी थे | पहले तो मुझे उनका आना-जाना कुछ नही खटका, पर जब उनका आना-जाना हद से अधिक बढ़ गया और मैंने देखा कि वह मालकिन के पास घंटों बठे रहते हैं तो मुझे संदेह हुआ, कि हो न हो दाल में कुछ कला अवश्य है | लालाजी अधिकत दुकान में रहने के कारण यह बात न जानते थे | घर का कहार भी मालकिन से मिला हुआ मालूम होता था, इसलिए वह भी चुप्पी साधे था | एक मै ही ऐसा था, जिसके द्वारा लाला को यह खबर मिल सकती थी | अंत में मैंने इस रहस्य का पता लगाने पर कमर बाँधी और एक दिन अपनी आँखों उनकी पापमयी लीला देखी | बस उसी दिन मैंने लाला को खबर कर दी | लाला उस बात को चुपचाप पी गए | आठ-दस रोज बाद लाला ने मुझे बुलाकर कहा---श्यामलाल, तेरीबात ठीक निकली, आज मैंने भी देखा | जिस दिन तूने कहा था, उसी दिन से मैं इसकी टोह में था---आज तेरी बात की सत्यता प्रमाणित हो गई | अब बता क्या करना चाहिए ? मैंने कहा---मै क्या बताऊँ, आप जो उचित समझे, करें |'
     'लाला ने पूछा---तेरी क्या राय है ? मैंने इस उम्र में विवाह करके बड़ी भूल की; पर अब इसका उपाय क्या है ? मैंने कहा---अपने भाई साहब का आना-जाना बंद कर दीजिये, यही उपाय है और हो ही क्या सकता हा ? लाला ने सोचकर कहा---हाँ, यही ठीक है | जी में तो आता है कि इस औरत को निकाल बाहर करूँ, पर इसमें बड़ी बदनामी होगी | लोग हँसेंगे कि पहले तो विवाह किया, फिर निकाल दिया |'
     'मैंने कहा---हाँ, यह तो आपका कहना ठीक है | बस, उनका आना जाना बंद कर दीजिये, अतएव उसी दिन से यह हुकुम लग गया, कि लाला की अनुपस्थिति में बाहर का कोई आदमी---चाहे रिश्तेदार हो, चाहे कोई हो---अंदर न जाने पाए | और यह काम मेरे सुपुर्द किया गया | उस दिन से मैंने उन्हें नहीं धंसने दिया | इसपर उन्होंने मुझे प्रलोभन भी दिए, धमकी भी दी, पर मैंने एक न सुनी | मालकिन ने भी बहुत कुछ कहा-सुनाया, खुशामद की, पर मै जरा भी न पसीजा | कहरवा भी बोला---तुमसे क्या मतलब है, जो होता है, होने दो | मैंने उससे कहा---सुनता है बे, तू तो पक्का नमकहराम है, जिसका नामक खाता हिया, उसी के साथ दगा करता है | खैरियत इसी में है कि चुप रह, नही तो तुझे भी निकाल बाहर करूँगा |'
     ' यह सुनकर कहारराम चुप हो गए |'
      'थोड़े दिन बाद लाला के उन रिश्तेदार ने आना-जाना बिल्कुल बंद कर दिया | अब वह लाला के पास भी नहीं आते थे | मैंने भी सोचा, चलो अच्छा हुआ, आँख फूटी पीर गई |'
     'इसके छ: महीने बाद एक दिन लाला को हैजा हो गया मैंने बहुत दौड़-धूप की, इलाज इत्यादि कराया; पर कोई फायदा न हुआ | लाला जी समझे गए कि अंत समय निकट है; अतएव उन्होंने मुझे बुलाकर कहा---श्यामलाल, मै तुझे अपना नौकर नहीं, पुत्र समझता हूँ; इसलिए मैं अपनी कोठरी की ताली तुझे देता हूँ | मेरे मरने पर ताली मेरे लड़के को दे देना और जब तक वह न आ जाय, तब तक किसी को कोठरी न खोलने देना | बस, तुझेसे मै इतनी अंतिम सेवा चाहता हूँ |'
     'मैंने कहा---ऐसा ही होगा, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जायँ, पर मै इसमें अंतर न पड़ने दूंगा | इसके पश्चात् उन्होंने मुझे पाच हजार रूपये नकद दिए और बोले---यह लो, मैं तुम्हे देता हूँ | मैं लेता न था | पर उन्होंने कहा---तू यदि न लेगा, तो मुझे दुःख होगा, अतएव मैंने ले लिए | इसके चार घंटे बाद उनका देहांत हो गया | उनके लड़के को उनके मरने के तीन घंटे पहले तार दे दिया गया था | उनके मरने के पांच घंटे बाद वह मैनपुरी पंहुचा था | उनका देहांत रात को आठ बजे हुआ और वह रात के दो बजे के निकट पहुंचा था | लाला के मरने के बाद उनकी स्त्री ने मुझेसे कहा---कोठरी की ताली लाओ | मैंने कहा---ताली तो लाला शिवचरणपाल के हाथ में देने को कह गए हैं, मै उन्ही को दूंगा | उन्होंने कहा---अरे मूर्ख, इससे तुझे क्या मिलेगा | कोठरी खोलकर रूपया निकल ले---मुझे मत दे, तू ले ले, मैं भी तेरे साथ रहूंगी, जहाँ तू चलेगा, तेरे साथ चलूंगी | मैंने कहा---मुझसे न होगा | मैं तुम्हे ले जाकर रखूँगा कहाँ ? दुसरे तुम मेरे उस मालिक की स्त्री हो, जो मुझे अपने पुत्र के समान मानता था | मुझसे यह न होगा, कि तुम्हे अपनी स्त्री बनाकर रखूं |'
     'बाबूजी, एक घंटे तक उसने मुझे समझाया, रोई भी, हाथ भी जोड़े; परन्तु मैंने एक न मानी | आखिर उसने अन्य उपाय न देख अपने देवर अर्थात् उन्ही को बुलाया, जिनका आना-जाना मैंने बंद कराया था | उन्होंने आते ही बड़ा रुआब झाड़ा | मुझे पुलिस में देने की धमकी दी, पर मैं इससे भयभीत न हुआ | तब वह ताला तोड़ने पर आमादा हुए | मैं कोठरी के द्वार पर एक मोटा डंडा लेकर बैठ गया और मैंने उनसे कह दिया कि जो कोई ताला तोड़ने आएगा, पहले मैं उसका सिर तोडूंगा, इसके बाद जो होगा देखा जायगा | बस फिर उनका साहस न हुआ | इस रगड़े-झगड़े में रात के दो बज गए और शिवचरणलाल आ गए | मैंने उनको ताली दे दी और सब हाल बता दिया |
     'बाबूजी, जब कोठरी खोली गई, तो उसमे साठ हजार रूपये नकद निकले | इन रुपयों का हाल लाला के अतिरिक्त और किसी को भी मालूम न था | यदि मैं मालकिन की बात मानकर बीस-पच्चीस हजार रूपये भी निकाल लेता, तो किसी को भी संदेह न होता, पर मेरे मन में इसी बात का विचार एक क्षण के लिए भी पैदा न हुआ | मेरी माँ रोज रामायण पढ़कर मुझे सुनाया करती थीं, और मुझे यही समझाया करती थी कि---बेटा, पाप और बेईमानी से सदा बचना, इससे तुझे कभी दुःख न होगा | उनकी यह बातें मेरे जी में बसी हुई थीं और इसीलिए मैं बच गया | उसके बाद शिवचरणपाल ने भी मुझे एक हजार रुपया दिया | साथ ही उन्होंने यह कहा कि तुम मेरे पास रहो; पर लाला के मरने से और जो अनुभव मुझे हुए थे, उनके कारण मैंने उनके यहाँ रहना उचित न समझा | लाला की तेरही होने के बाद मैंने उनकी नौकरी छोड़ दी | छ: हजार अपने ब्याह में खर्च किये | एक हज़ार लगाकर एक दुकान की और हजार बचाकर रखा; पर दूकान में फिर घाटा हुआ | तब मैंने मैनपुरी छोड़ दी और इधर चला आया | नौकरी करने की इच्छा नही थी, इसलिए मैंने इक्का-घोड़ा खरीद लिया और किराये पर चलाने लगा---तबसे बराबर यही काम कर रहा हूँ | इसमें मुझे खाने-भर को मिल जाता है | अपने आनन्द से रहता हूँ, न किसी के लेने में हूँ, न देने में | अब बताइए, वह बाबू कहते थे कि चार आने पैसे के लिए मै बेईमानी करता हूँ | अब मैं उनसे क्या कहता | यह तो दुनिया है, जो जिसकी समझ में आता है, कहता है | मैं भी सब सुन लेता हूँ | इक्केवाले बदनाम हैं, इसलिए मुझे भी ये बाते सुननी पड़ती हैं |'
     शायमलाल की आत्मकहानी सुनकर मैं कुछ देर तक स्तब्ध रह बैठा रहा | इसके पश्चात् मैंने कहा---'भाई, तुम तो दर्शनीय आदमी हो, तुम्हारे तो चरण छूने को जी चाहता है |'
     शायमलाल हंसकर बोला---'अजी बाबूजी, क्यों काँटों में घसीटते हो ? मेरे चरण और आप छुए---राम ! राम ! मैं कोई साधू थोड़ा ही हूँ |'
     मैंने कहा---'और साधु कैसे होते हैं; उनके कोई सुर्खाव का पर तो लगा होता नही | सच्चे साधू तो तुम्ही हो |' यह सुनकर श्यामलाल हँसने लगा | इसी समय गंगापुर आ गया और हमलोग इक्के से उतरकर अपने निर्दिष्ट स्थान की ओर चल दिए |
     रास्ते में मैंने मनोहरलाल से कहा---'इस संसार में अनेकों लाल गुदड़ी में छिपे पड़े हैं | उन्हें कोई जानता तक नही |'
     मनोहरलाल----'जी हाँ ! और नामधारी ढोंगी महात्मा ईश्वर  की तरह पूजे जाते हैं |'
     बात बहुत पुरानी हो गई है, पता नही, महात्मा शायमलाल अब भी जीवित हों या नहीं, परन्तु अब भी जब कभी मुझे उनका स्मरण हो आता है तो ये उनकी काल्पनिक मूर्ति के चरणों में अपना मस्तक नत कर देता हूँ |

     
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Friday 6 May 2016

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इक्केवाला-१| विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' | कहानी | Ikkewala-1 | Vishwambharnath Sharma 'Kaushik' | Hindi Story

     स्टेशन के बाहर मैंने अपने साथी मनोहरलाल से कहा---कोई इक्का मिल जाय तो अच्छा है---'दस मील का रास्ता है |'
     मनोहरलाल बोले---'आइये, इक्के बहुत हैं | उस तरफ खड़े होते हैं |'
     हम दोनों चले | लगभग दो सौ गज चलने के पश्चात देखा, तो सामने एक बड़े वृक्ष के नीचे तीन-चार इक्के खड़े दिखाई दिये | एक इक्का अभी आया था और उस पर से दो आदमी अपना असबाब उतर रहे थे | मनोहरलाल ने पुकारा---'कोई इक्का गंगापुर चलेगा ?'
     एक इक्केवाला बोला---'आइये सरकार, मैं ले चलूँ | कै सवारी है ?'
     'दो सवारी---गंगापुर का क्या लोगे ?'
     जो सब देते हैं, वही आप भी दे दीजियेगा |'
     आखिर कुछ मालूम तो हो ?'
     'दो रुपये का निरख (निर्ख) है |'
     'दो रुपये ?---इतना अधेर |'
     इसी समय जो लोग अभी आये थे, उनमे और उनके इक्केवाले में झगड़ा होने लगा | इक्केवाला बोला---'यह अच्छी रही, वहाँ से डेढ़ रुपया तय हुआ, अब यहाँ बीस ही आने दिखाते हैं !'
     यात्रियों में से एक बोला---'हमने पहले ही ख दिया था कि हम बीस आने से एक पैसा अधिक न देंगे |'
     'मैंने भी तो कहा था, कि डेढ़ रुपये ससे एक पैसा कम न लूँगा |'
     'कहा होगा, हमने सुना ही नहीं |'
     'हाँ, सुना नहीं---ऐसी बात आप काहे को सुनेंगे |'
     'अच्छा तुम्हे बीस आने मिलेंगे---लेना हो तो लो, नहीं अपना रास्ता देखो |'
     इक्केवाला, जो हृष्ट-पुष्ट तथा गौरवर्ण था, अकड़ गया | बोला---'रास्ता देखे, कोई अधेर है ! ऐसे रास्ता देखले लगे, तो बस कमाई कर चुके | बाये हाथ से इधर डेढ़ रुपया रख दीजिये, तब आगे बढ़िएगा | वहाँ तो बोले, अच्छा जो तुम्हारा रेट होगा, वह देंगे, अब यहाँ कहते हैं, रास्ता देखो---अच्छे मिलें !'
     हम लोग यह कथोपकथन सुनकर इक्का करना भूल गए और उनकी बाते सुनने लगे | एक यात्री बड़ी गंभीरतापूर्वक बोला---'देखो जे, यदि तुम भलमनसी से बाते करो, तो दो-चार पैसे हम अधिक दे सकते हैं, तुम गरीब आदमी हो; लेकिन जो झगड़ा करोगे तो एक पैसा न मिलेगा |'
     इक्केवाला किंचित मुस्कराकर बोला---'दो-चार पैसे ! ओफ! ओफ ! आप तो बड़े दाता मालूम होते हैं | जब चार पैसे देते हो, तो चार आने ही क्यों नहीं दे देते ?'
     'चार आने हमारे पासे नहीं हैं |'
     'नहीं है---अच्छी बात है, तो हो आपके पास हो वही दे दीजिये---न हो न दीजिये और ज़रूरत हो तो एकाध रुपया मैं आपको दे सकता हूँ |'
     'तुम बेचारे क्या डोज, चार-चार पैसे के लिए तो तुम झूट बोलते हो और  बेईमानी करते हो |'
     अरे बाबूजी, लाखों रुपये के लिए तो मैंने बेईमानी की नहीं---चार पैसे के लिए बेईमानी करूँगा ? बेईमानी करता तो इस समय इक्का न हाकता होता | खैर, आपको जो देना हो दे दीजिये---नहीं जाइए---मैंने किराया भर पाया |'
     उन्होंने बेश आने निकालकर दिए, इक्केवाले ने चुपचाप ले लिए |
     उस इक्केवाले कका आकर-प्रकार, उसकी बातचीत से मुखे कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि अंध इक्केवालों की तरह यह साधारण आदमी नही है | इसमें कुछ विशेषता अवश्य है; अतेव मैंने सोचा कि यदि हो सके, तो गंगापुर इसी इक्के पर चलना चाहिए | यह सोचकर मैंने उससे पुछा---'क्यों भाई गंगापुर चलोगे ?'
     वह बोला---'हाँ ! हाँ ! आइए !'
     'क्या लोगे ?'
     'वही डेढ़ रुपया !'
     मैंने सोचा, अन्य इक्केवाले टी ओ दो रुपये मांगते थे, वह डेढ़ रुपया कहता है, आदमी सच्चा मालूम होता है | वह सोचकर मैंने कहा---'अच्छी बात है, चलो डेढ़ रुपया देंगे |'
     हम दोनों सवार होकर चले | थोड़ी दूर चलने पर मैं पुछा---'वे दोनों कौन थे ?' इक्केवाले ने कहा---'नारायण जाने कौन थे ? परदेशी मालूम होते हैं, लेकिन परले-सिरे के झूठे और बेईमान ! चार आने के लिए प्राण तज दे रहे थे |'
     मैंने पुछा---तो'तो सचमुच तुमसे डेढ़ रुपया ही तय हुआ था ?'
     'और नही क्या आप झूठ समझते हैं ? बाबूजी, यह पेशा ही बदनाम है, आपका कोई कसूर नही | इक्के, तांगेवाले सदा झूठे और बेईमान समझे जाते हैं | और होते भी हैं---अधिकतर तो ऐसे ही होते हैं | इन्हें चाहें आप रूपये की जगह सवा रुपया दीजिये, तब भी संतुष्ट नहीं होते |'
     मैंने पुछा---'तुम कौन जाति हो ?'
     'मैं ? वैश्य सरकार वैश्य हूँ |'
     'अच्छा ! वैश्य होकर इक्का हांकते हो ?'
     'क्यों सरकार, इक्का हाँकना कोई बुरा काम तो है नहीं ?'
     'नही, मेरा मतलब यह नहीं है कि इक्का हाँकना कोई बुरा काम है | मैंने इसलिए कहा कि वैश्य तो बहुधा व्यापार करते हैं |'
     'यह भी तो व्यापार ही है |'
     'हाँ, है तो व्यापार ही |'
     मैंने मन-ही-मन अपनी इस बेतुकी बात पर लज्जित हुआ; अतएव मैंने प्रसग बदलने के लिए पुछा---कितने दिनों से यह काम करते हो ?
     'दो बरस हो गये |'
     'इसके पहले क्या करते थे ?'
     यह सुनकर इक्केवाला गंभीर होकर बोला---'क्या बताऊँ, क्या करता था ?
     उसकी इस बात से तथा यात्रियों से उसने जो बातें कहीं थीं, उनका तारतम्य मिलाकर मैंने सोचा---इस व्यक्ति का जीवन रहस्यमय मालूम होता है | यह सोचकर मैंने उससे पुछा---'कोई हर्ज न समझो तो बताओ |'
     'हर्ज तो कोई नही हिं बाबूजी | पर मेरी बात पर लोगों को विश्वास नहीं होता | इक्केवाले बहुधा परले-सिरे के गप्पी समझे जाते हैं; इसलिए मैं किसी को अपना हाल सुनाता नही |'
     'खैर, मैं उन आदमियों में नही हूँ, यह तुम विश्वास रखो |'
     'अच्छी बात है सुनिए----'
   
   शेष अगले भाग में ....
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Thursday 28 April 2016

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फूल और कांटे | कविता | कवि: अयोध्या सिंह 'उपाध्याय' | Phool Aur Kante | Hindi Poem | Poet:- Ayodhyaya Singh 'Upadhyaya' |

फूल और कांटे
     'फूल और कांटे' अयोध्या सिंह 'उपाध्याय' जी द्वारा रचित कविता है | इस कविता में कवि ने यह सन्देश देना चाहा है कि किसी का कर्म ही होता है जो उसे महानता के शिखर पर ले जाते हैं | इसमें उसका जन्म या कुल का कोई हाथ नहीं होता | इस बात को स्पष्ट करने के लिए कवि ने फूल और कांटे का चयन किया |
                                               (१) 
हैं जनम लेते जगह में एक ही,
                                        एक ही पौधा उन्हें है पालता |
रात में उनपर चमकता चाँद भी,
                                        एक ही सी चाँदनी है डालता ||
                                             

                                            (२) 
मेघ उनपर है बरसता एक-सा,
                                        एक-सी उनपर हवाएँ हैं बहीं |
पर सदा ही यह दिखाता है समय,
                                        ढंग उनके एक से होते नहीं ||
                                              (३)
छेदकर काँटा किसीकी उँगलियाँ,
                                        फाड़ देता है किसीका वर वसन |
और प्यारी तितलियों का पर कतर,
                                        भौंर का है बेध देता श्याम तन ||
                                               (४)
फूल लेकर तितलियों को गोद में,
                                        भौंर को अपना अनूठा रस पिला |
निज सुगन्धि औ' निराले रंग में,
                                        है सदा देती कली दिल की खिला ||
                                               (५) 
खटकता है एक सबकी आंख में,
                                         दूसरा है सोहता सुर-सीस पर
किस तरह कुल के बड़ाई काम दे,
                                         जो किसीमें हो बड़प्पन की कसर ||
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Tuesday 26 April 2016

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शत्रु | अज्ञेय | कहानी | Shatru | Agyey | Hindi Story

      'शत्रु' कहानी अज्ञेय जी द्वारा रचित कहानी है जिसमें ज्ञान को भगवान् स्वप्न में दर्शन देते हैं और उसे अपना प्रतिनिधि घोषित करके संसार का पुनर्निर्माण करने के लिए कहते हैं | ज्ञान संसार में जा के विभिन्न समस्याएं देखता है| पर जब भी वह इनका समाधान करने जाता तो नई समस्याएं आ जाती | अंत में हार मानकर वह 
आत्म-हत्या करने जाता है और तभी...
 १  
     ज्ञान को एक रात सोते समय भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिए, और कहा---ज्ञान, मैंने तुम्हे अपना प्रतिनिधि बनाकर संसार में भेजा है | उठो, संसार का पुनर्निर्माण करो |
     ज्ञान जाग पड़ा | उसने देखा, संसार अंधकार से पड़ा है और मानव जाति उस अंधकार में पथभ्रष्ट होकर विनाश की ओर बढ़ती चली जा रही है | वह ईश्वर का प्रतिनिधि है, तो उसे मानव-जाति को पथ पर लाना होगा, उसका नेता बनकर उसके शत्रु से युद्ध करना होगा |
     और वह जाकर चौराहे पर खड़ा हो गया और सबको सुनाकर कहने लगा---मै मसीह हूँ, पैगम्बर हूँ | भगवान का प्रतिनिधि हूँ | मेरे पास तुम्हारे उद्धार के लिए एक संदेश है |
     लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी | कुछ उसकी ओर देख कर हँस पड़ते, कुछ कहते, पागल है, अधिकांश कहते, यह हमारे धर्म के विरुद्ध शिक्षा देता है, नास्तिक है, इसे मारो ! और बच्चे उसे पत्थर मारा करते |
     आखिर तंग आकर वह एक अँधेरी गली में छिपकर बैठ गया, और सोचेने लगा | उसने निश्चय किया कि मानव-जाति का सबसे बड़ा शत्रु है धर्म, उसी से लड़ना होगा |
     तभी पास कहीं से उसने स्त्री के करुण क्रन्दन की आवाज़ सुनी | उसने देखा, एक स्त्री भूमि पर लेटी है, उसके पास एक बहुत छोटा-सा बच्चा पड़ा है, जो या तो बेहोश है या मर चुका है, क्योंकि उसके शरीर में किसी प्रकार की गति नहीं है |
     ज्ञान ने पूछा---बहन, क्यों रोती हो ?
     उस स्त्री ने कहा---मैंने एक विधर्मी से विवाह किया था | जब लोगों को इसका पता चला, तब उन्होंने उसे मार डाला और मुझे निकाल दिया | मेरा बच्चा भूख से मर रहा है |
     ज्ञान का निश्चय और दृढ हो गया | उसने कहा---तुम मेरे साथ आओ, मै तुम्हारी रक्षा करूँगा |---और उसे अपने साथ ले गया |
     ज्ञान ने धर्म के विरुद्ध प्रचार शुरू किया | उसने कहा---धर्म झूठा बंधन है | परमात्मा एक है, अबाध है और धर्म से परे है | धर्म हमे सीमा में रखता है, रोकता है, परमात्मा से अलग रखता है, अतः शत्रु है ?
     लेकिन किसी ने कहा---जो व्यक्ति पराई और बहिष्कृता औरत को अपने साथ रखता है, उसकी बात हम क्यों सुने ? वह समाज से पतित है, नीच है |
     तब लोगों ने उसे समाजच्युत करके बाहर निकाल दिया |
ज्ञान ने देखा कि धर्म से लड़ने के पहले समाज से लड़ना है | जब तक समाज पर विजय नहीं मिलती, तब तक धर्म का खंडन नहीं हो सकता |
     तब वह इसी प्रकार करने लगा---वह कहने लगा---धर्मध्वजी ये पुगी-पुरोहित, मुल्ला, ये कौन हैं ? इन्हें क्या अधिकार है हमारे जीवन को बाँध रखने कर ? आओ, हम इन्हें दूर कर दे, एक स्वतंत्र समाज की रचना करे, ताकि हम उन्नति के पथ पर बढ़ सके |
     तब एक दिन विदेशी सरकार के दो सिपाही आकर उसे पकड़ ले गए | क्योंकि वह वर्गों में परस्पर विरोध जगा रहा था |
     ज्ञान जब जेल काटकर बाहर निकला, तब उसकी छाती में इन विदेशियों के प्रति विद्रोह धधक रहा था | यही तो हमारी क्षुद्रताओं को स्थायी बनाये रखते हैं, और लाभ उठाते हैं | पहले अपने को विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करना होगा, तब..और वह गुप्त रूप से विदेश्यों के विरुद्ध लड़ाई का आयोजन करने लगा |
     एक दिन उसके पास एक विदेशी आदमी आया | वह मैले-कुचले फटे -पुराने खाकी पहने हुए था | मुख पर झुर्रियाँ पड़ी थीं, आँखों में एक तीखा दर्द था | उसने ज्ञान से कहा---आप मुझे कुछ काम दे, ताकि मै अपनी रोजी कमा सकूँ | मैं विदेशी हूँ | आपके देश में भूखा मर रहा हूँ | कोई भी काम मुझे दे, मै करूँगा, आप परीक्षा लें | मेरे पास रोटी का टुकड़ा भी नही है |
     ज्ञान ने खिन्न होकर कहा---मेरी दशा तुमसे कुछ अच्छी नही है, मैं भी भूखा हूँ |
वह विदेशी एकाएक पिघल-सा गया | बोला---अच्छा, मैं आपके दुःख से बहुत दुखी हूँ | मुझे अपना भाई समझे | यदि आपस में सहानुभूति हो, तो भूखे मरना मामूली बात है | परमात्मा आपकी रक्षा करे | मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ ?
     ज्ञान ने देखा कि देशी-विदेशी का प्रश्न तब उठता है, जब पेट भरा हो | सबसे पहला शत्रु तो यह भूख ही है, पहले भूख को जीतना होगा, तभी आगे कुछ सोचा जा सकेगा...
     और उसने 'भूख के लड़ाकों' का एक दल बनाना शुरू किया, जिसका उद्देश्य था अमीरों से धन छीनकर सबमे समान रूप से वितरण करना, भूखों को रोटी देना इत्यादि, लेकिन जब धनिकों को इस बात का पता चला तब उन्होंने एक दिन चुपचाप अपने चरों द्वारा उसे पकड़वा मंगाया और एक पहाड़ी किले में कैद कर दिया | वहाँ एकांत में वे उसे सताने के लिए नित्य एक मुट्ठी चबेना और एक लोटा पानी दे देते, बस |
     धीरे-धीरे ज्ञान का हृदय ग्लानि से भरने लगा | जीवन उसे बोझ-सा जान पड़ने लगा | निरंतर यह भाव उसके भीतर जगा करता कि मैं, ज्ञान, परमात्मा का प्रतिनिधि, इतना विवश हूँ कि पेट-भर रोटी का प्रबंध मेरे लिए असंभव है ? यदि ऐसा है, तो कितना व्यर्थ है यह जीवन, कितना छूंछा, कितना बेमानी |
     एक दिन वह किले की दीवार पर चढ़ गया | बाहर खाई में भरा हुआ पानी देखते-देखते उसे एकदम से विचार आया, और उसने यह निश्चय कर लिया कि वह उसमें कूदकर प्राण खो देगा | परमात्मा के पास लौटकर प्रार्थना करेगा कि मुझे इस भार से मुक्त करो, मैं तुम्हारा प्रतिनिधि तो हूँ, लेकिन ऐसे संसार में मेरा स्थान नही है |
     वह स्थिर मुग्ध दृष्टी से खाई के पानी में देखने लगा | वह कूदने को ही था की एकाएक उसने देखा, पानी में उसका प्रतिबिम्ब झलक रहा है और मानो कह रहा है---बस, अपने आपसे लड़ चुके ?
     ज्ञान सहमकर रुक गया, फिर धीरे-धीरे दीवार पर से नीचे उतर औया और किले में चक्कर काटने लगा |
     और उसने जान लिया कि जीवन की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि हम निरंतर आसानी की ओर आकृष्ट होते हैं |



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Sunday 17 April 2016

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कलियों से | हरिवंश राय बच्चन | कविता | Kaliyon Se | Hindi poem | Harivansh Rai Bachchan |

          
कलियों से 
'कलियों से' कविता हिन्दी के महान कवि  हरिवंश राय बच्चन जी की रचना है| कवि कलियों से क्षमा मांगता है  क्योंकि उसने बचपन से उन्हें तोड़ कर उनपर अत्याचार किये हैं जिसपर कलियां उसे धन्यवाद देती हैं कि उसने उन्हें तोड़ कर उनकी उपयोगिता बढ़ाई है क्योंकि वे तो तोड़े न जाने के बाद भी कुम्हला के गिर ही जातीं... 
                 'अहे, मैंने कलियों के साथ,
    जब मेरा चंचल बचपन था,
    महा निर्दयी मेरा    मन था,
    अत्याचार अनेक   किये थे,
    कलियों को दुःख दीर्घ दिए थे,
    तोड़ इन्हें बागों से लाता,
    छेद-छेद कर हार बनाता !
    क्रूर कार्य, यह कैसे करता,
    सोच इसे हूँ आहें भरता |
कलियों, तुमसे क्षमा माँगते ये अपराधी हाथ |'
            'अहे, वह मेरे प्रति उपकार !
    कुछ दिन में कुम्हला ही जाती,
    गिरकर भूमि-समाधि बनाती |
    कौन जानता मेरा खिलना ?
    कौन, नाज़ से डुलना-हिलना ?
    कौन गोद में मुझको लेता ?
    कौन प्रेम का परिचय देता ?
    मुझे तोड़, की बड़ी भलाई,
    काम किसी के तो कुछ आई ,
बनी रही दो-चार घड़ी तो किसी गले का हार |'
            'अहे, वह क्षणिक प्रेम का जोश !
    सरस-सुगंधित थी तू जब तक,
    बनी स्नेह-भाजन थी तब तक |
    जहाँ तनिक-सी तू मुरझाई,
    फेंक दी गई, दूर हटाई |
इसी प्रेम से क्या तेरा हो जाता है परितोष ?'
            'बदलता पल-पल पर संसार 
    हृदय विश्व के साथ बदलता,
    प्रेम कहाँ फिर लहे अटलता ?
    इससे केवल यही सोचकर,
    लेती हूँ संतोष हृदय भर----
मुझको भी था किया किसी ने कभी हृदय से प्यार !'

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Tuesday 5 April 2016

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चन्दा-II | जयशंकर प्रसाद | कहानी | Chanda-II | Jayshankar Prasad | Hindi story|

'चन्दा' कहानी के इस भाग में;
     जब हीरा लौट के नहीं आता तो रजा उसकी मदद के लिए एक कोल को  भेजेते हैं | वह कोल रामू होता है जो हीरा के मदद करने की जगह उसे मौत के मुंह में धकेल देता है और वह कोल-पति बन जाता | चन्दा हीरा के क़त्ल... 
     यह बात राजा साहब को विदित हुई | उन्होंने उसकी मदद के लिए कोलों को जाने की आज्ञा दी | रामू उस अवसर पर था | उसने सबके पहले जाने के लिए पैर बढ़ाया, और चला | वहां जब पहुंचा, तो उस दृश्य को देखकर घबड़ा गया, और हीरा से कहा---हाथ ढीला कर; जब यह छोड़ने लगे, तब गोली मारूँ, नहीं तो सम्भव है कि तुम्ही को लग जाय |
     हीरा---नहीं, तुम गोली मारो |
     रामू---तुम छोड़ो तो मैं वार करूं |
     हीरा---नहीं, यह अच्छा नहीं होगा |
     रामू---तुम उसे छोड़ो, मैं अभी मारता हूँ |
     हीरा---नहीं, तुम वार करो |
     रामू---वार करने से संभव है कि उछले और तुम्हारे हाथ छूट जाएँ,तो यह तोड़ डालेगा |
     हीरा---नहीं, तुम मार लो, मेरा हाथ ढीला हुआ जाता है |
     रामू---तुम हद करते हो, मानते नहीं |
     इतने में हीरा का हाथ कुछ बात-चीत करते-करते ढीला पड़ा; वह चीता उछलकर हीरा के कमर के को पकड़कर तोड़ने लगा |
     रामू खड़ा होकर देख रहा है, और पैशाचिक आकृति उस घृणित पशु के मुख पर लक्षित हो रही, और वह हँस रहा है |
     हीरा टूटी हुई साँस से कहने लगा---अब भी मार ले |
     रामू ने कहा---अब तू मर ले, तब वह भी मारा जायेगा | तूने हमारा हृदय निकाल लिया है, तूने हमारा घोर अपमान किया है, उसी का प्रतिफल है | इसे भोग |
     हीरा को चीता खाये डालता है; पर उसने कहा---नीच ! तू जानता है कि 'चंदा' अब मेरी होगी | कभी नहीं ! तू नीच है---इस चीते से भी भयंकर जानवर हो |
     हीरा ने टूटी हुई आवाज से कहा-तुझे इस विश्वासघात का फल शीघ्र मिलेगा और चन्दा फिर हमसे मिलेगी | चन्दा...प्यारी..च...
     इतना उसके मुख से निकला ही था की चीते ने उसका सिर दांतों के तले दाब लिया | रामू देखकर पैशाचिक हँसी हँस रहा था | हीरा के  समाप्त हो जाने पर रामू लौट आया, और झूठी बातें बनाकर राजा से कहा कि उसको हमारे जाने के पहले ही चीता ने मार दिया | राजा बहुत दुःखी हुए, और जंगल की सर्दारी रामू को मिली |
     वसंत की राका चारों ओर अनूठा दृश्य दिखा रही है | चन्द्रमा न मालूम किस लक्ष्य की ओर दौड़ा चला जा रहा है; कुछ पूछने से भी नहीं बताता | कुटज की कली का परिमल लिए पवन भी न मालूम कहाँ दौड़ रहा है, उसका भी कुछ समझ नहीं पड़ता | उसी तरह, चंद्रप्रभा के तीर पर बैठी हुई कोल-कुमारी का कोमल कंठ-स्वर भी किस धुन में है---नही ज्ञात होता |
     अकस्मात गोली की आवाज ने उसे चौंका दिया | गाने के समय जो उसका मुख उद्वेग और करुणा से पूर्ण दिखाई पड़ता था, वह घृणा और क्रोध से रंजित हो गया, और वह उठकर पुच्छमर्दिता  सिंहनी के समान तनकर खड़ी हो गई, और धीरे से कहा---यही समय है | ज्ञात होता है, राजा इस समय शिकार खेलने पुनः आ गये हैं---बस वह अपने वस्त्र को ठीक करके कोल-बालक बन गई, और कमर में से एक चमचमाता हुआ छूरा निकालकर चूमा | वह चांदनी में चमकने लगा | फिर वह कहने लगी---यद्यपि तुमने हीरा का रक्तपान कर लिया है, लेकिन पिता ने रामू से तुम्हे ले लिया था | अब तुम हमारे हाथ में हो, तुम्हें आज रामू का भी खून पीना होगा |
     इतना कहकर वह गोली के शब्द की ओर लक्ष्य करके चली | देखा कि तहखाने में राजासाहब बैठे हैं | शेर को गोली लग चुकी है, और वह भाग गया है, उसका पता नही लग रहा है, रामू सर्दार है, अतएव उसको खोजने के लिए आज्ञा हुई, वह शीघ्र ही सन्नद्ध हुआ | राजा ने कहा---कोई साथी लेते जाओ |  
     पहले तो उसने अस्वीकार किया, पर जब एक कोल-युवक स्वयं साथ चलने को तैयार हुआ, तो वह नही भी न कर सका, और सीधे---जिधर शेर गया था, उसी ओर चला | कोल-बालक भी उसके पीछे है | वहां घाव से व्याकुल शेर चिंघाड़ रहा है, इसने जाते ही ललकारा | उसने तत्काल ही निकलकर वार किया | रामू कम साहसी नहीं था, उसने उसके खुले हुए मुंह में निर्भीक होकर बन्दूक की नाल डाल दी; पर उसके जरा-सा मुहं घुमा लेने से गोली चमड़ा छेदकर पार निकल गई, और शेर ने क्रुद्ध होकर दांत से बन्दूक की नाल दबा ली | अब दोनों एक दुसरे को ढकेलेने लगे; पर कोल-बालक चुपचाप खड़ा है | रामू ने कहा---मार, अब देखता क्या है !
     युवक---तुम इससे बहुत अच्छी तरह लड़ रहे हो |
     रामू---मारता क्यों नहीं ?
     युवक---इसी तरह शायद हीरा से भी लड़ाई हुई थी, क्या तुम नहीं लड़ सकते ?
     रामू---कौन, चन्दा ! तुम हो ? आह, शीघ्र मारो, नहीं तो अब यह सबल हो रहा है |
     चन्दा ने कहा---हाँ, लो, मैं मारती हूँ, इसे छूरे से हमारे सामने तुमने हीरा को मारा था, यह वही छूरा है, यह तुझे दुःख से निश्चय ही छुड़ावेगा---इतना कहकर चन्दा ने रामू की बगल में छूरा उतार दिया | वह छटपटाया | इतने ही में शेर को मौका मिला, वह भी रामू पर टूट पड़ा और उसका इति कर आप भी वहीं गिर पड़ा |
     चन्दा ने अपना छूरा निकाल लिया, और उसको चांदनी में रंगा हुआ देखेने लगी, फिर खिलखिलाकर हंसी और कहा---'दरद दिल काहि सुनाऊं प्यार' ! फिर हंसकर कहा---हीरा ! तुम देखते होगे, अपर अब तो यह छूरा ही दिल की दाह सुनेगा | इतना कहकर अपनी छाती में उसे झोंक लिया और उसी जगह गिर गई, और कहने लगी-हीरा...हम...तुमसे...मिले ही.... ....
     चन्द्रमा अपने चन्द्र प्रकाश में यह सब देख रहा था |


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Thursday 31 March 2016

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चन्दा -I | जयशंकर 'प्रसाद' | कहानी | Chanda-I | Jayshankar 'Prasad' | Hindi Story|


'चन्दा' दो कोल युवक-युवती की प्रेम कथा है | इस कहानी के लेखक श्री जयशंकर 'प्रसाद' हैं | इस कहानी में चन्दा और हीरा एक दुसरे से प्रेम करते हैं पर चन्दा का सम्बन्ध एक अन्य रामू नामक कोल से तय हो चूका था | रामू हीरा को मारने का प्रयास करता है पर हीरा को जंगल का एक वृद्ध जो कोल-पति है, बचा लेता है | वृद्ध कोल हीरा और चन्दा का ब्याह करा देता है तथा हीरा को अपना पद भी सौंप देता है | जंगल में एक दिन राजा शिकार करने आता है | इस दौरान ...

चैत्र-कृष्णाष्टमी का चन्द्रमा अपना उज्जवल प्रकाश 'चंद्रप्रभा' को निर्मल जल पर डाल रहा है | गिरी-श्रेणी के तरुवर अपने रंग को छोड़कर ध्वलित हो रहे हैं; कल-नादिनी समीर के संग धीरे-धीरे बह रही है | एक शिला-ताल पर बैठी हुई कोल-कुमारी सुरीले स्वर से---'दरद-दिल काहि  सुनाऊँ प्यारे! दरद'... गा रही है |
     गीत अधुरा ही है कि अकस्मात एक कोल-युवक धीर-पद-संचालन करता हुआ उस रमणी के सम्मुख आकर खड़ा हो गया | उसे देखते ही रमणी की हृदय-तंत्री बज उठी | रमणी बाह्य-स्वर भूलकर आन्तरिक स्वर से सुमुधर संगीत गाने लगी और उठकर खड़ी हो गई | प्रणय के वेग को सहन न करके वर्षावारिपूरिता स्रोतस्विनी के समान कोल-कुमार के कंध-कूल से रमणी ने आलिंगन किया |
     दोनों उसी शिला पर बैठ गए, और निनिर्मेष सजल नेत्रों से परस्पर अवलोकन करने लगे | युवती ने कहा----तुम कैसे आये ?
     युवक---जैसे तुमने बुलाया |
     युवती---( हंसकर ) हमने तुम्हे कब बुलाया ! और क्यों बुलाया !
     युवक---गाकर बुलाया और दरद सुनाने के लिए |
     युवती---( दीर्घ निश्वास लेकर ) कैसे क्या करूँ ? पिता ने तो उसी से विवाह करना निश्चय किया है |
     युवक---( उत्तेजना से खड़ा होकर ) तो जो कहो, मै करने के लिए प्रस्तुत हूँ |
     युवती---( चंद्रप्रभा  की ओर दिखाकर ) बस, यही शरण है |
     युवक---तो हमारे लिए कौन दूसरा स्थान है ?
     युवती---मै तो प्रस्तुत हूँ |
     युवक---हम तुम्हारे पहले |
     युवती ने कहा---तो चलो |
     युवक ने मेघ-गर्जन-स्वर से कहा---चलो |
उतरकर चंद्रप्रभा के तट पर आए, और एक शिला पर खड़े हो गए | तब युवती ने कहा---अब विदा !
     युवक ने कहा---किससे ? मै तो तुम्हारे साथ---जब तक सृष्टि रहेगी तब तक ---रहूँगा |
     इतने ही में शाल-वृक्ष के नीचे एक छाया दिखाई पड़ी और वह इन्हीं दोनों की ओर आती हुई दिखाई देने लगी | दोनों ने चकित होकर देखा की एक कोल खड़ा है | उसने गंभीर स्वर से युवती से पुछा---चन्दा  ! तू यहाँ क्यों आई ?
     युवती---तुम पूछनेवाले कौन हो !
     आगंतुक युवक---मै तुम्हारा भावी पति 'रामू' हूँ |
     युवती---मै तुमसे ब्याह न करुँगी |
     आ० यु०---फिर किससे तुम्हारा ब्याह होगा ?
     युवती ने पहले के आये युवक की ओर इंगित करके कहा---इन्हीं से |
     आगन्तक युवक से अब न सहा गया | घूमकर पूछा---क्यों हीरा ! तुम ब्याह करोगे ?
     हीरा---तो इसमें तुम्हारा क्या तात्पर्य है ?
     रामू---तुम्हे इससे अलग हो जाना चाहिए |
     हीरा--- क्यों, तुम कौन होते हो ?
     रामू---हमारा इससे सम्बन्ध पक्का हो चूका है |
     हीरा---पर जिससे सम्बन्ध होनेवाला है, वह सहमत हो तब न !
     रामू---क्यों चन्दा ! क्या कहती हो ?
     चन्दा---मै तुमसे ब्याह न करुँगी |
     रामू---तो हीरा से भी तुम ब्याह नहीं कर सकती !
     चन्दा---क्यों ?
     रामू---( हीरा से  ) अब हमारा-तुम्हारा फैसला हो जाना चाहिए, क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं |
     इतना कहकर हीरे के ऊपर झपटकर उसने अचानक छूरे का वार किया |
     हीरा यद्यपि सचेत हो रहा था; पर उसको सम्हलने में विलम्ब हुआ, इससे घाव लग गया और वह वृक्ष थामकर बैठ गया |इतने में चन्दा जोर से क्रंदन कर उठी---साथ ही के वृद्ध भील आता हुआ दिखाई पड़ा |
     युवती मुंह ढांपकर रो रही है, और युवक रक्ताक्त छूरा लिए, घृणा की दृष्टि से खड़े हुए, हीरा की ओर देख रहा है | विमल चन्द्रिका में चित्र की तरह वे दिखाई दे रहे हैं | वृद्ध को जब चन्दा ने देखा, तो और वेग से रोने लगी | उस दृश्य को देखते ही वृद्ध कोल-पति सब बात समझ गया, और रामू के समीप जाकर छूरा उसके हाथ से ले लिया, और आज्ञा के स्वर में कहा---तुम दोनों हीरा को उठाकर नदी के समीप ले चलो  |
     इतना कहकर वृद्ध उन सबों के साथ आकर नदी-तट  पर जल के समीप खड़ा हो गया | रामू और चन्दा दोनों ने मिलकर उसके घाव को धोया और हीरा के मुंह पर छींटा दिया, जिससे उसकी मूर्छा दूर हुई | तब वृद्ध ने सब बातें हीरा से पूछीं; पूछ लेने पर रामू ने कहा---क्यों, यह सब ठीक है ?
     रामू ने कहा---सब सत्य है |
    वृद्ध---तो तुम अब चन्दा के योग्य नहीं हो, और यह छूरा भी---जिसे हमने तुम्हे दिया था---तुम्हारे योग्य नहीं है | तुम शीघ्र ही हमारे जंगल से चले जाओ, नहीं तो हम तुम्हारा हाल महाराज से कह देंगे, और उसका क्या परिणाम होगा सो तुम स्वयं समझ सकते हो | (हीरा की ओर देखकर) बेटा ! तुम्हारा घाव शीघ्र अच्छा हो जायेगा, घबड़ाना नही, चन्दा तुम्हारी ही होगी |
     यह सुनकर चन्दा और हीरा का मुख प्रसन्नता से चमकने लगा, पर हीरा ने लेटे-ही-लेटे हाथ जोड़कर कहा---पिता ! एक बात कहनी है, यदि आपकी आज्ञा हो |
     वृद्ध---हम समझ गए, बेटा ! रामू विश्वासघाती है |
     हीरा---नहीं पिता ! अब वह ऐसा कार्य नहीं करेगा | आप क्षमा करेंगे, मै ऐसी आशा करता हूँ |
     वृद्ध---जैसी तुम्हारी इच्छा |
     कुछ दिन के बाद जब हीरा अच्छी प्रकार से आरोग्य हो गया, तब उसका ब्याह चन्दा से हो गया | रामू भी उस उत्सव में सम्मिलित हुआ, पर उसका बदन मलीन और चिंतापूर्ण था | वृद्ध कुछ ही काल में अपना पद हीरा को सौंप स्वर्ग को सिधारा | हीरा और चन्दा सुख से विमल चांदनी में बैठकर पहाड़ी झरनों का कल-नाद-मय आनंद-संगीत सुनते थे |
३ 
     अंशुमाली अपनी तीक्ष्ण किरणों से वन्य-देश को परितापित कर रहे हैं | मृग-सिंह एक स्थान पर बैठकर, छाया-सुख में अपने बैर-भाव को भूलकर, ऊंघ रहे हैं | चंद्रप्रभा के तट पर पहाड़ी की एक गुहा में जहाँ कि छतनार पेड़ों की छाया उष्ण वायु को भी शीतल कर देती है, हीरा और चन्दा बैठे हैं | हृदय के अनन्त विकास से उनका मुख प्रफुल्लित दिखाई पड़ता है | उन्हें वस्त्र के लिए वृक्षगण वल्कल देते हैं; भोजन के लिये  प्याज-मेवा इत्यादि जंगली सुस्वादु फल, शीतल-स्वच्छंद पवन; निवास के लिये गिरी-गुहा; प्राकृतिक झरनों का शीतल जल उनके सब  अभावों को दूर करता है, और सबल तथा स्वच्छंद बनाने में ये सब सहायता देते हैं | उन्हें किसी की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती | अस्तु, उन्हें सब सुखों से आनंदित व्यक्तिद्वय 'चंद्रप्रभा' के जल का कल-नाद सुनकर अपनी हृदय-वीणा को बजाते हैं |
     चन्दा---प्रिय ! आज उदासीन क्यों हो !
     हीरा---नहीं तो, मैं यह सोच रहा हूँ कि इस वन में राजा आनेवाले हैं | हमलोग यद्यपि अधीन नहीं हैं, तो भी उन्हें शिकार खेलाया जाता है, और इसमें हमलोगों की कुछ हानि भी नही है | उसके प्रतिकार में हमलोगों को कुछ मिलता है, पर आजकल इस वन में जानवर दिखाई नहीं पड़ते | इसलिये सोचता हूँ कि कोई शेर या छोटा चीता ही मिल जाता, तो कार्य हो जाता |
     चन्दा---खोज किया था ?
     हीरा---हाँ, आदमी तो गया है |
     इतने में एक कोल दौड़ता हुआ आया, और कहा---राजा आ गये हैं और तहखाने में बैठे हैं | एक तेंदुआ भी दिखाई दिया है |
     हीरा का मुख प्रसन्नता से चमकने लगा, और वह अपना कुल्हाड़ा सम्हालकर उस आगंतुक के साथ वहां पहुंचा, जहाँ शिकार का आयोजन हो चूका था |
     राजा साहब झंझरी में बन्दूक की नाल रखे हुए ताक रहे हैं | एक ओर से बाजा बज उठा | एक चीता भागता हुआ सामने से निकला | राजा साहब ने उस पर वार किया | गोली लगी, पर चमड़े को छेदती हुई पार हो गई; इससे वह जानवर भागकर निकल गया | अब तो राजा साहब बहुत ही दुःखित  हुए | हीरा को बुलाकर कहा---क्यों जी, यह जानवर नही मिलेगा ?
     उस वीर कोल ने कहा---क्यों नही ?
     इतना कहकर वह उसी ओर चला | झाड़ी में जहाँ वह चीता घाव से व्याकुल बैठा हुआ था, वहां पहुंचकर उसने देखना आरम्भ किया |क्रोध से भरा हुआ चीता उस कोल-युवक को देखते ही झपटा | युवक असावधानी के कारण वार न कर सका, पर दोनों हाथों से उस भयानक जंतु की गर्दन को पकड़ लिया, और उसने भी इसके कंधे पर अपने दोनों पंजों को जमा दिया |
     दोनों में बल-प्रयोग होने लगा | थोड़ी देर में दोनों जमीन पर लेट गये |

शेष अगले भाग में...



     
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Saturday 26 March 2016

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महानाश की भट्ठी-बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन'|Mahanash ki bhatthi|Hindi poem|Poet-Bal Krishna Sharma 'Naveen'|

महानाश की भट्ठी 

अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी |
बढ़ आने दे अपनी लपटें लप-लप  करती हत्यारी |
धुआँधार अम्बर हो जाये, क्षितिज लालिमा में रंजित हो,
वसुधा की विभूतियाँ आज चिता की गोदी में संचित हों,
एक-एक क्षण में सहस्त्र युग के जलने की हो तयारी|
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी |

रँगे खून से हाथ, लोचनों में प्रपंच का कज्जल छाया,
मस्तिष्क में मोह-मदिरा ने अपना चिर नवरंग जमाया|
हिय में घृणा आन घुश बैठी, स्नेह-भावनाएं रोती हैं,
अंतर में कायरता की कुत्सित लीलाएँ होती हैं |
अरे अग्नि के पुंज, कहाँ हैं तेरी दहन-शक्तियाँ सारी ?
बढ़ आने दे अपनी लपटें लप-लप  करती हत्यारी |

जड़ता बनी धर्म-भूषण, शठता आचार्य बन बैठी,
भूत-दया का रूप धरे इस ओर नपुंसकता ऐंठी,
सामाजिक औदास्य-भाव बन गया भाग्य का फेर निराला,
निरुत्साह, दौर्बल्य, भीति-भय का पड़ गया हृदय पर पाला;
कर दे नष्ट आज सदियों का संचित यह कुभाव अविचारी |
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी !
Photo by pakorn
















शत-शत सुख की अभिलाषाएँ छिन में छार हो जाएँ,
कई सहस्त्र हृदय की दुर्बलताएँ पल-भर में खो जाये,
लक्ष-लक्ष लोचनों में चमके प्राण-दान की निर्मल ज्वाला,
कोटि-कोटि कंठों से सर्वनाश का हो उदघोष निराला,
झमक झूम झकझोर भस्म कर दे निसर्ग की तुंग अटारी!
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी!

मान और मर्यादा छूटी, बिखर गयी गरिमा छन-भर में.
रण-हुँकारकारिणी शक्ति लुप्त हो गयी आह! अम्बर में;
गिरि-गह्वर में, वन-उपवन में अथवा किसी शून्य प्रान्तर में,
डोल रहे हैं कुछ दीवाने ले आशा-प्रदीप निज कर में,
कब से खोज रहे हैं तुमको सर्वनाश की ओ चिनगारी!
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू सर्वनाश की भट्ठी प्यारी!

आज सव्यसाची को खाण्डव विपिन-दहन फिर से दिखला दे,
अग्नि-कुमारों को आग से खेलना तू फिर से सिखला दे,
दिखला दे कि मरण ही जीवन है, रण-प्रांगण ही गीता है,
सिखला दे, ओ आग ! कि महाशांति तुझसे ही परिणीता है,
तेरी अनुगामिनी बनी नव प्रातः की ऊषा सुकुमारी,
क्यों झिझके री, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी !

चट-चट करती धू-धू करती हा-हा-हू हूकार मचा दे,
अपने शोलों के फूलों से मेरा आँगन आज रचा दे,
अरी, नचा दे अपनी लपटें इधर-उधर सब ओर निराली,
काली की जिह्वा-सी रक्तशोषिका लौ लपके मतवाली,
धुआँ उठे, पाखण्ड जले, हिमखण्ड सुने, देखें त्रिपुरारी,
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्टी प्यारी!

अम्बर में अंगारें बरसें, जलद धुआँ बनकर मंडराएँ 
वज्र्घोश से सुप्त रोष की भौहें विकराली चढ़ जाएँ,
अंगड़ाई लेकर विद्रोह फट पड़े अब ज्वलंत मुधर-सा,
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी!





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Saturday 6 February 2016

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हिम्मत और ज़िन्दगी

प्रिय पाठकों आज मै आपके साथ एक ऐसा लेख साँझा करने जा रहा हूँ जो रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा रचित है | इस लेख का नाम है 'हिम्मत और ज़िन्दगी' | यह लेख जीवन के उस सत्य को साथ लेकर चलता है, जिसके अनुसार हिम्मत, परिश्रम, साहस और कर्मठता आदि तत्व हमारी सफलता के आधार बिंदु हैं |
तो आईये पढ़ते है इस ओजस्वी लेख को |

 

हिम्मत और जिंदगी


             ज़िन्दगी के असली मज़े उनके लिए नहीं हैं जो फूलों की छाँह के नीचे खेलते और सोते है | बल्कि फूलों की छाँह के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है तो वह भी उन्ही के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं, जिनका कंठ सूखा है, ओंठ फटे हुए और सारा बदन पसीने से तर है | पानी में जो अमृत वाला तत्त्व है, उसे वह जानता है जो धूप में खूब सूख चूका है, वह नहीं जो रेगिस्तान में कभी पड़ा ही नहीं है |
             सुख देनेवाली चीज़ें पहले भी थीं और अब भी हैं | फ़र्क यह है कि जो सुखों का मूल्य पहले चुकाते हैं  और उनके मज़े बाद में लेते हैं उन्हें स्वाद अधिक मिलता है | जिन्हें आराम आसानी से मिल जाता है, उनके लिए आराम ही मौत है |
             जो लोग पाँव भीगने के खौफ़ से पानी से बचते रहते हैं, समुद्र में डूब जाने का खतरा उन्ही के लिए है | लहरों में तैरने का जिन्हें अभ्यास है वे मोती लेकर बहर आएँगे |
             चांदनी की ताजगी और शीतलता का आनन्द वह मनुष्य लेता है जो दिनभर धूप में थककर लौटा है, जिसके शरीर को अब तरलाई की ज़रुरत महसूस होती है औरे जिसका मन यह जानकर संतुष्ट है की दिन भर का समय उसने किसी अच्छे काम में लगाया है |
             इसके विपरीत वह आदमी भी है जो दिन भर खिड़कियाँ बंद करके पंखों के नीचे छिपा हुआ था और अब रात में जिसकी सेज बाहर चांदनी में लगाई गई है | भ्रम तो शायद उसे भी होता होगा कि वह चांदनी के मज़े ले रहा है, लेकिन सच पूछिए तो वह खुशबूदार फूलों के रस में दिन-रत सड़ रहा है |
             उपवास और संयम ये आत्महत्या के साधन नहीं है | भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है | 'त्यक्तेन भुंजीथा:', जीवन का  भोग त्याग के साथ करो, यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन से जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल पता |
             बड़ी चीज़ें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्ज़ा करती हैं | अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर  दिया था जिसका एक मात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था, और वह भी उस समय, जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी |
             महाभारत में देश के प्राय: अधिकांस वीर कौरवों के पक्ष में थे | मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई; क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था |
             श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है की जिंदगी की सबसे बड़ी सिफ़त हिम्मत है | आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं |
             ज़िन्दगी की दो सूरते हैं | एक तो यह की आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए, और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अंधियाली का जाल बुन रही हों, तब भी वह पीछे को पाँव न हटाये |
             दूसरी सूरत यह है की उन ग़रीब आत्माओं का हमजोली बन जाये जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुःख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधुलि में बस्ती हैं जहाँ न तो जीत हंसती है और न कभी हार के रोने की आवाज़ सुनाई पड़ती है | इस गोधुलि वाली दुनिया के लोग बंधे हुए घाट का पानी पीते हैं, वे ज़िन्दगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते | और कौन कहता है की पूरी ज़िन्दगी को दाव पर लगा देने में कोई आनन्द नहीं है?
             अगर रास्ता आगे ही आगे निकल रहा हो तो फिर असली मज़ा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है |
             साहस की ज़िन्दगी सबसे बड़ी ज़िन्दगी होती है | ऐसी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पहचान यह है की वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है | साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखनेवाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं | जनमत की उपेक्षा करके  जीनेवाला आदमी दुनिया की असली ताकत होते है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है | क्रांति करनेवाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं |
             साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है |
             साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता है, वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है |
             झुण्ड में चलना और झुण्ड में चरना, यह भैंस और भेड़ का काम है | सिंह तो बिल्कुल अकेला होने पर भी मगन रहता है |
             अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, जिंदगी की चुनौती को कुबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता | बड़े मौक़े पर साहस नहीं दिखानेवाला आदमी बार-बार अपनी आत्मा के भीतर एक आवाज सुनता रहता है, एक ऐसी आवाज़ जिसे वही सुन सकता है और जिसे वह रोक भी नहीं सकता | यह आवाज़ उसे बराबर कहती है, "तुम साहस नहीं दिखा सके, तुम कायर की तरह भाग खड़े हुए |" संसारिक अर्थ में जिसे हम सुख कहते हैं उसका न मिलना, फिर भी, इससे कहीं श्रेष्ठ है कि मरने के समय हम अपनी आत्मा से यह धिक्कार सुनें कि तुममें हिम्मत की कमी थी, तुममें साहस का आभाव था, कि तुम ठीक वक्त पर जिंदगी से भाग खड़े हुए |
             जिंदगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह पर एक घेरा डालता है, वह अन्तत: अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और ज़िन्दगी का कोई मज़ा उसे नहीं मिल पाता, क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में , असल में, उसने जिंदगी को ही आने में रोक रखा है |
             जिंदगी से, अंत में, हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं | यह पूँजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलट कर पढ़ना है जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं | ज़िन्दगी का भेद कुछ उसे ही मालूम है जो यह जानकर चलता है कि जिंदगी कभी भी खत्म न होने वाली चीज़ है |
              अरे! ओ जीवन के साधको! अगर किनारे की मरी हुई सीपियों से ही तुम्हें संतोष हो जाये तो समुद्र के अन्तराल में छिपे हुए  मौक्तित-कोष की कौन बहर लायेगा?
              दुनिया में जितने भी मज़े बिखरे गए हैं उनमें तुम्हारा भी हिस्सा है | वह चीज़ भी तुम्हारी हो सकती है जिसे तुम अपनी पहुँच के परे मानकर लौट जा रहे हो |
             कामना का अंचल छोटा मत करो, जिंदगी के फल को दोनों हाथों से दबाकर निचोड़ो, रस के निर्झरी तुम्हारे बहाए भी बह सकती है |
          यह अरण्य , झुरमुट जो काटे अपनी राह बना ले,
          क्रीतदास यह नहीं किसी का जो चाहे अपना ले |
          जीवन उनका नहीं युधिष्ठिर! जो उससे डरते हैं |
          वह उनका जो चरण रोप निर्भय होकर लड़ते हैं |
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