Sunday 18 September 2016

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ग्राम | हिंदी कहानी | जय शंकर प्रासाद | Gram | Hindi story | Jayashankar Prasad

'ग्राम' कहानी जय शंकर प्रसाद जी द्वारा लिखी गई है | जमींदार मोहनदास नए इलाके के इंस्पेक्शन के लिए जाते हैं परन्तु अपना रास्ता भटकने के कारण उन्हें एक अन्य ग्राम में ठहरना पड़ता जहाँ उस इलाके से सम्बंधित एक दुखियारी स्त्री की कथा सुनकर उन्हें बहुत ही लज्जा अनुभव होती है | 
     टन ! टन ! टन ! स्टेशन पर घंटी बोली |
     श्रावण-मास की संध्या भी कैसी मनोहारिणी होती है ! मेघ-माला-विभूषित गगन की छाया सघन रसाल-कानन में पड़ रही है ! अंधियारी धीरे-धीरे अपना अधिकार पूर्व-गगन में जमाती हुई, सुशासन-कारिणी महाराणी से समान, विहंगप्रजागण को सुखनिकेतन में शयन करने की आज्ञा दे रही है | आकाशरूपी शासन-पत्र पर प्रकृति के हस्ताक्षर के समान बिजली की रेखा दिखाई पड़ती है.....ग्राम्य स्टेशन पर कहीं एक-दो दीपलोक दिखाई पड़ता है | पवन हरे-हरे निकुजों में से भ्रमण करता हुआ झिल्ली के झनकार के साथ भरी हुई झीलों में लहरों के साथ खेल रहा है | बूंदियाँ  धीरे-धीरे गिर रही है, जो कि जूही के कलियों को आर्द्र करके पवन को भी शीतल कर रही है |
      थोड़े समय में वर्षा बंद हो गई | अंधकार-रुपी अंजन के अग्रभागस्थित आलोक के समान चतुर्दशी की लालिमा को लिए हुए चंद्रदेव प्राची में हरे-हरे तरुवरों की आड़ में से अपनी किरण-प्रभा दिखाने लगे | पवन की सनसनाहट के साथ रेलगाड़ी का शब्द सुनाई पड़ने लगे | सिग्नेलर ने अपना कार्य किया | घंटा का शब्द उस हरे-भरे मैदान में गूंजने लगा | यात्री लोग अपनी गठरी बांधते हुए  स्टेशन पर पहुँचे | महादैत्य के लाल-लाल नेत्रों के समान अन्जन-गिरिनिभ इन्जिन का अग्रस्थित रक्त-आलोक दिखाई देने लगा | पागलों के सामान बड़बड़ाती हुई अपने धुन की पक्की रेलगाड़ी स्टेशन पर पहुंच गई | धड़ाधड़ यात्री लोग उतरने-चढ़ने लगे | एक स्त्री की ओर देखकर फाटक के बहर खड़ी हुई दो औरतें---जो उसकी सहेली मालूम देती है---रो रही है,और वह स्त्री एक मनुष्य के साथ रेल में बैठने को उद्यत है | उनकी क्रंदन-ध्वनि से वह स्त्री दीन भाव से उनकी ओर देखती हुई, बिना समझे हुए, सेकण्ड क्लास की गाड़ी में चढ़ने लगी; पर उसमें बैठें हुए बाबू साहब---'यह दूसरा दर्जा है, इसमें मत चढ़ो' कहते हुए उतर पड़े, और अपना हंटर घुमाते हुए स्टेशन से बाहर होने का उद्योग करने लगे |
     विलायती पिक का वृचिस पहने, बूट चढ़ाये, हंटिंग कोट धानी रंग का साफा, अंग्रजी हिन्दुस्तानी का महासम्मेलन बाबू साहब के अंग पर दिखाई पड़ रहा है | गौर वर्ण, उन्नत ललाट उसकी आभा को बढ़ा रहे हैं | स्टेशन मास्टर से सामना होते ही शेकहैण्ड करने के उपरांत बाबू साहब से बातचीत होने लगी |
     स्टे० मा०---आप इस वक्त कहाँ के आ रहे हैं ?
     मोहन०--कारिन्दों ने इलाके में बड़ा गड़बड़ मचा रक्खा है, इसलिए मैं कुसुमपुर---जो कि हमारा इलाका है---इंस्पेक्शन के लिए जा रहा हूँ |
     स्टे० मा०---फिर कब पलटियेगा ?
     मोहन०---दो रोज में | अच्छा, गुड इवनिंग !
     स्टेशन मास्टर, जो लाइन-क्लियर दे चुके थे, गुड इवनिंग करते हुए अपने आफिस में घुस गए |
     बाबू मोहनदास अंग्रेजी काठी से सजे हुए घोड़े पर, जो कि पूर्व ही से स्टेशन पर खड़ा था, सवार होकर चलते हुए |
    सरलस्वभावा ग्रामवासिनी कुलकामिनीगण  का सुमधुर संगीत धीरे-धीरे आम्र-कानन में से निकलकर चारों ओर गूँज रहा है | अन्धकार-गगन में जुगनू-तारे चमक-चमककर चित्त को चंचल कर रहे हैं | ग्रामीण लोग अपना हल कंधे पर रक्खे, बिरहा गाते हुए, बैलों की जोड़ी के साथ, घर की ओर प्रत्यावर्तन कर रहे हैं | 
     एक विशाल तरुवर की शाखा में झूला पड़ा हुआ है, उसपर चार महिलाएं बैठी है, और पचासों उसको घेरकर गाती हुई घूम रही हैं | झूले के पेंग के साथ 'अबकी सावन सइयां घर रहुरे' की सुरीली पचासों कोकिल-कंठ से निकली हुई तान पशुगणों  को भी मोहित कर रही है | बालिकाएं स्वछन्द भाव से क्रीड़ा कर रही हैं | अकस्मात् अश्व के पद-शब्द ने उन सरला कामिनियों को चौंका दिया | वे सब देखती हैं तो हमारे पूर्व-परिचित बाबू मोहनलाल घोड़े को रोककर उसपर से उतर रहे हैं | वे सब उनका भेष देखकर घबड़ा गयीं और आपस में कुछ इंगित करके चुप रह गयीं | 
    बाबू मोहनलाल ने निस्तब्धता को भंग किया, और बोले ! भद्रे---यहाँ से कुसुमपुर कितनी दूर है ? और किधर से जाना होगा ? 
     एक प्रौढ़ा ने सोचा कि 'भद्रे' कोई परिहास-शब्द तो नहीं है, पर वह कुछ कह न सकी, केवल एक ओर दिखाकर बोली---इहाँ से डेढ़ऐ  कोस तो बाय, इहै पैड़वा जाई |
     बाबू मोहनलाल उसी पगडण्डी से चले | चलते-चलते उन्हें भ्रम हो गया और वह अपनी छावनी का पथ छोड़कर दुसरे मार्ग से जाने लगे | मेघ घिर आये, जल वेग से बरसने लगा, अन्धकार और घना हो गया | भटकते-भटकते वह एक खेत के समीप पहुंचे; वहां उस हरे-भरे खेत में एक ऊंचा और बड़ा मचान था जो कि फूस से छाया हुआ था, और समीप ही में एक छोटा-सा कच्चा मकान था |
     उस मचान पर बालक और बालिकाएं बैठी हुई कोलाहल मचा रही थीं | जल में भीगते हुए भी मोहनलाल खेत के समीप खड़े होकर उनके आनन्द-कलरव को श्रवण करने लगे |
          भ्रांत होने से उनका बहुत समय व्यतीत हो गया | रात्रि अधिक बीत गयी | कहाँ ठहरें ? इसी विचार में वह खड़े रहे, बूँदें कम हो गयीं | इतने में एक बालिका अपने मलिन वसन के अंचल की आड़ में दीप लिए हुए उसी मचान की ओर जाती हुई दिखाई पड़ी |
३ 
     बालिका की अवस्था १५ वर्ष की है | आलोक से उसका अंग अंधकार-घन में विद्युलेखा की तरह की तरह चमक रहा था | यद्यपि दरिद्रता ने उसे मलिन कर रक्खा है, पर ईस्वरीय सुषमा उसके कोमल अंग पर अपना निवास किये हुए है | मोहनलाल ने थोड़ा बढ़कर उससे पूछना चाहा, पर संकुचित होकर ठिठक गए | परन्तु पूछने के अतिरिक्त दूसरा उपाय ही नहीं था | अस्तु, रूखेपन के साथ पुछा---कुसुमपुर का रास्ता किधर है ?
     बालिका इस भव्य मूर्ति को देखकर डरी, पर साहस के साथ बोली---मैं नहीं जानती | ऐसे सरल नेत्र-संचालन से इंगित करके उसने यह शब्द कहा कि युवक को क्रोध के स्थान में हंसी आ गई और कहने लगा---तो जो जानता हो,मुझे बतलाओ, मैं उससे पूछ लूँगा |
     बालिका---हमारी माता जानती होंगी |
     मोहन०---इस समय तुम कहां जाती हो ?
     बालिका---(मचान की ओर दिखाकर) वहां जो कई लड़के है, उनमें से एक हमारा भाई है, उसी को खिलाने जाती हूँ |
     मोहन०---बालक इतनी रात को खेत में क्यों बैठा है |
     बालिका---वह रात-भात और लड़कों के साथ खेत ही में रहता है |

     मोहन०---तुम्हारी माँ कहाँ हैं ?
     बालिका---चलिए, मैं लिवा चलती हूँ |
     इतना कहकर बालिका अपने भाई के पास गई, और उसको खिलाकर तथा उसके पास बैठे हुए लड़कों को भी कुछ देकर उसी क्षुद्र-कुटीराभिमुख गमन करने लगी | मोहनलाल उस सरला बालिका के पीछे चले |
४ 
     उस क्षुद्र कुटीर में पहुँचने पर एक स्त्री मोहनलाल को दिखाई पड़ी जिसकी अंगप्रभा स्वर्ण-तुल्य थी, तेजोमय मुख-मंडल, तथा ईषत उन्नत अधर अभिमान से भरे हुए थे, अवस्था उसकी ५० वर्ष से अधिक थी | मोहनलाल की आंतरिक अवस्था, जो ग्राम्यजीवन देखेने से कुछ बदल चुकी थी, उस सरल गंभीर तेजोमय मूर्ति को देख और भी सरल विनययुक्त हो गई | उसने झुककर प्रणाम किया | स्त्री ने आशीर्वाद दिया और पुछा---बेटा! कहाँ के आते हो ?
     मोहन०---मैं कुसुमपुर जाता था, किन्तु, रास्ता भूल गया.....
     'कुसुमपुर' का नाम सुनते ही स्त्री का मुख-मंडल आरक्तिम हो गया और उसके नेत्र से दो बूँद आंसू निकल आये | वे अश्रु करुणा के नहीं, किन्तु अभिमान के थे |
     मोहनलाल आश्चर्यान्वित होकर देख रहे थे | उन्होंने पुछा----आपको कुसुमपुर के नाम से क्षोभ क्यों हुआ?
     स्त्री---बेटा ! उसकी बड़ी कथा है, तुम सुनकर क्या करोगे ! 
     मोहन०---नहीं मई सुनना चाहता हूँ, यदि आप कृपा करके सुनावें |
     स्त्री---अच्छा, कुछ जलपान कर लो, तब सुनाउंगी |
     पुन: बालिका की और देखकर स्त्री ने कहा---कुछ जल पीने को ले आओ |
     आज्ञा पाते ही बालिका उस क्षुद्र गृह के एक मिट्टी के बर्तन में  से कुछ वस्तु निकाल, उसे एक पात्र में घोलकर ले आयी, और मोहनलाल के सामने रख दिया | मोहनलाल उस शर्बत को पान करके फूस की चटाई पर बैठकर स्त्री की कथा सुनने लगे |
     स्त्री कहने लगी---हमारे पति उस प्रांत के गण्य भूस्वामी थे, और वंश भी हमलोगों का बहुत उच्च था | जिस गाँव का अभी आपने नाम लिया है, वही हमारे पति की प्रधान ज़मीदारी थी | कार्य-वश एक कुंदनलाल नामक महाजन से कुछ ऋण लिया गया | कुछ भी विचार न करने से उनका बहुत रुपया बढ़ गया, और जब ऐसी अवस्था पहुंची तो अनेक उपाय करके हमारे पति धन जुटाकर उनके पास ले गए, तब उसे धूर्त ने कहा,"क्या हर्ज़ है बाबू साहब !आप आठ रोज़ में आना, हम रूपया ले लेंगे, और जो घाटा होगा, उसे छोड़ देंगे, आपका इलाका भी जायगा, इस  समय रेहननाम भी नहीं मिल रहा है |" उसका विश्वास करके हमारे पति फिर बैठे रहे, और उसने कुछ भी न पुछा | उनकी उदारता के कारण वह संचित धन भी थोड़ा हो गया, और उधर दावा करके इलाका---जो की वह ले लेना चाहता था---बहुत थोड़े रूपये में नीलाम करा लिया | फिर हमारे पति के हृदय में, उस इलाका के इस भांति निकल जाने के कारण, बहुत चोट पहुंची और इसी से उनकी मृत्यु हो गयी | इस दशा के होने के उपरांत हम लोग इस दुसरे गाँव में आकर रहने लगे | यहाँ के ज़मीदार बहुत धर्मात्मा हैं, उन्होंने कुछ सामान्य 'कर' पर यह भूमि दी है, इसी से अब हमारी जीविका है |.....
     इतना कहते-कहते स्त्री का गला अभिमान से भर आया, और कुछ कह न सकी |
     स्त्री की कथा को सुनकर मोहनलाल को बड़ा दू:ख  हुआ | रात विशेष बीत चुकी थी, अत: रात्रि-यापन करके, प्रभात में मलिन तथा पश्चिमगामी चन्द्र का अनुसरण करके, बताये हुए पथ से वह चले गए |
     पर उनके मुख पर विवाद तथा लज्जा ने अधिकार कर लिया था | कारण यह था कि स्त्री की ज़मींदारी हरण करनेवाले, तथा उसके प्राणप्रिय पति से उसे विच्छेद कराकर इस भांति दुःख देनेवाले कुंदनलाल, मोहनलाल के ही पिता थे |























  

2 comments:

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