Sunday 7 August 2016

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वाणी | सुमित्रानंद पन्त | कविता | Vani | Sumitranand Pant | Hindi Poem

"Poet wants to dress his speech with the ornaments of words in such a way that it can transform the world."
"कवि अपनी वाणी को शब्दों के आभूषण से अलंकृत कर संसार का रूपांतरण करना चाहता है| मनुष्य के उर के नि:शब्द द्वार को खोलना चाहता है |"            
||वाणी||

            तुम वहन कर सको जन-मन में मेरे विचार,
            वाणी मेरी, चाहिए   तुम्हें   क्या   अलंकार !

भव-कर्म आज युग की स्थितियों से है पीड़ित,
जग का रूपान्तर भी जनैक्य    पर अवलंबित,

         तुम रूप कर्म से मुक्त, शब्द के पंख मार,
         कर सको सुदूर मनोनभ में जन के विहार,
            वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या   अलंकार !

चित शून्य---आज जग, नव निनाद से हो गुंजित 
मत जड़---उसमें नव स्थितियों के गुण हो जागृत

            तुम जड़ चेतन की    सीमओं   के   आर  पार 
            झंकृत भविष्य का सत्य कर सको स्वराकार,
            वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार !

युग कर्म शब्द, युग रूप शब्द, युग सत्य शब्द,
शब्दित कर  भावी  के सहस्त्र  शत  मूक शब्द,

            ज्योतित कर जन मन के जीवन का अंधकार,
            तुम खोल सको मानव   उर के निःशब्द द्वार,
            वाणी मेरी,   चाहिए   तुम्हें    क्या   अलंकार !


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