Sunday 29 May 2016

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इक्केवाला-२ | विश्वम्भर नाथ शर्मा 'कौशिक' | कहानी | Ikkewala-2 | Vishwambhar Nath Sharma 'Kaushik | Hindi Story

     कहानी के इस भाग में श्यामलाल अपनी आत्म-कथा सुनाता है जिसमें लेखक ने उसके शीलवान  चरित्र का चित्रण किया है | 

 'मैं अगरवाला बनिया हूँ । मेरा नाम श्यामलाल है । मेरा जन्म-स्थान मैनपूरी है । मेरे पिता व्यापार करते थे । जिस समय मेरे पिता की मृत्यु हुई, उस समय मेरी उम्र पंद्रह साल की थी । पिता के मरने पर घर-गृहस्थी का सारा भार मेरे ऊपर पड़ा । मैंने एक वर्ष तक काम-काज चलाया, पर मुझे व्यापार का अनुभव न था, उस कारण घाटा हुआ और मेरा सब काम  बिगड़ गया | अंत को और कोई उपाय न देखे मैंने वहीं एक धनी आदमी के यहाँ नौकरी कर ली | उस समय मेरे परिवार में मेरी माता और एक छोटी बहन थी | जिसके यहाँ मैंने नौकरी की थी, वह तो थे मालदार, परन्तु बड़े कंजूस थे | ऊपर से देखने में वह एक मामूली हैसियत के आदमी दिखाई पड़ते थे; परन्तु लोग कहते थे कि उनके पास एक लाख के लगभग नकद रुपया है | उस समय मैंने लोगों की बात पर विश्वास नही किया था; क्योंकि घर की हालत देखने से किसी को यह विश्वास नहीं हो सकता कि उनके पास इतना रुपया होगा | उनकी उम्र चालीस से ऊपर थी | उन्होंने दूसरी शादी की थी और उनकी पत्नी की उम्र बीस वर्ष के लगभग थी | पहली स्त्री से उनके एक लड़का था | वह जवान था और उसका विवाह इत्यादि सब हो चूका था | उसका नाम शिवचरणलाल था | पहले तो वह अपने पिता के पास ही रहता था; परन्तु जब पिता  ने दूसरा विवाह किया, तो वह नाराज़ होकर अपनी स्त्री सहित फरुर्खाबाद चला गया | वहां उसने एक दूकान कर ली और वहीं रहने लगा |'
     'उन दिनों मुझे कसरत करने का बड़ा शौक था, इसलिए मेरा बदन बहुत अच्छा बना हुआ था | कुछ दिनों पश्चात् मेरी मालकिन मेरी बहुत खातिर करने लगी | खूब मेवा-मिठाई खिलाती थीं और महीने में दस-बीस रूपये नकद दे देती थी | इस कारण दिन बड़ी अच्छी तरह कटने लगे | मैं मालकिन के खातिर करने का असली मतलब उस समय नहीं समझा | मैंने जो समझा, वह यह था कि मेरी सेवा से प्रसन्न होकर तथा मुझे गरीब समझकर वह ऐसा करती हैं | आखिर जब एक दिन उन्होंने मुझे एकांत में बुलाकर छेड़-छाड़ की, तब मेरी आंखे खुली | मुझे आरम्भ से ही इन कामों से नफ़रत थी | मैं इन बातों को जानता भी नहीं था | न कभी ऐसी संगति ही में रहा था जिसमे इन बातो का ज्ञान प्राप्त होता | मैं उस समय जो जानता था वह यह था कि आदमी को खूब कसरत करना चाहिए और स्त्रियों से बचना चाहिए | जब मालकिन ने छेड़-छाड़ की , तो मेरा कलेजा धड़कने लगा | मुझे ऐसा मालूम हुआ, कि वह एक चुड़ैल है और मुझे भक्षण करना चाहती है |'
     इक्केवाले की इस बात पर मेरे साथी मनोहरलाल बहुत हँसे | बोले---तुम तो बिलकुल बुद्धू थे जी !
     श्यामलाल बोला---'अब जो समझिये, परुन्तु बात ऐसी ही थी | खैर, मैं अपना हाथ छुड़ाकर उनके सामने से भाग आया | अब मुझे उनके सामने जाते डर मालूम होने लगा | यही खटका लगा रहता था, कि कही किसी दिन फिर न -पकड़ ले | तीन-चार दिन के बाद वही हुआ | उन्होंने अवसर पाकर फिर मुझे घेरा | उस दिन मैंने उनसे साफ़-साफ़ कह दिया, कि यदि वह ऐसी हरकत करेंगी, तो मैं मालिक से कह दूंगा | बस, उसी दिन से मेरी खातिर बंद हो गई | केवल खातिर बंद रह जाती, वहां तक गनीमत थी; परन्तु अब उन्होंने मुझे तंग करना आरम्भ कर दिया | बात-बात पर डांटती थी | कभी मालिक से शिकायत कर देती थी | आखिर जब एक दिन मालिक ने मुझे मालकिन के कहने से बहुत डांटा, तो मैंने उन्हें अलग ले जाकर कहा---लालाजी, मेरा हिसाब कर दीजिये, मैं अब आपके यहाँ नौकरी नहीं करूँगा | लालाजी लाल-पीली आँखे करके बोले---एक तो कसूर करता है और उसपर हिसाब मांगता है ? मुझे भी तैश आ गया | मैंने कहा---कसूर किस ससुरे ने किया है ? लालाजी बोले---तो क्या मालकिन झूठ कहती है ? मैंने कहा---बिल्कुल झूट ! लालाजी ने कहा---तेरे से उनकी शत्रुता है क्या ? मैंने कहा---हाँ शत्रुता है | उन्होंने पुछा---क्यों ? मैंने कहा---अब आपसे क्या बताऊं | आप उसे भी झूठ मानेंगे | इसलिए सबसे अच्छी बात यही है कि मेरा हिसाब कर दीजिये | मेरी बात सुनकर लाला के पेट में खलबली मची | उन्होंने कहा---पहले यह बता कि बात क्या है ? मैंने कहा---उसके कहने से  कोई फायदा नहीं, आप मेरा हिसाब दे दीजिए | परन्तु लाला मेरे पीछे पड़ गए | मैंने विवश होकर सब हाल बता दिया | मुझे भय था, कि लाला को मेरी बात पर विश्वाश न होगा, पर ऐसा नहीं हुआ |  लाला ने मेरी पीठ पर हाथ फेरकर कहा---शाबास श्यामलाल, मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ | अब तुम आनंद से रहो, तुम्हारी तरफ कोई आँख नहीं देख सकेगा | बस उस दिन से मैं निर्द्वन्द्व हो गया | अब अधिकतर मैं मालिक के पास बाहर ही रहने लगा, भीतर कम जाता था | उसके पश्चात् भी मालकिन ने मेरे निकलवाने के लिए चेष्टा की, पर लाला ने उनकी एक न सुनी | आखिर वह भी हारकर बैठ गयी |'
     इस प्रकार एक वर्ष और बीता | इस बीच में लाला के एक रिश्तेदार- जो उनके चचेरे भाई होते थे---बहुत आने-जाने लगे | उनकी उम्र पच्चीस-छब्बीस वर्ष के लगभग होगी | शरीर के मोटे-ताजे और तंदरुस्त आदमी थे | पहले तो मुझे उनका आना-जाना कुछ नही खटका, पर जब उनका आना-जाना हद से अधिक बढ़ गया और मैंने देखा कि वह मालकिन के पास घंटों बठे रहते हैं तो मुझे संदेह हुआ, कि हो न हो दाल में कुछ कला अवश्य है | लालाजी अधिकत दुकान में रहने के कारण यह बात न जानते थे | घर का कहार भी मालकिन से मिला हुआ मालूम होता था, इसलिए वह भी चुप्पी साधे था | एक मै ही ऐसा था, जिसके द्वारा लाला को यह खबर मिल सकती थी | अंत में मैंने इस रहस्य का पता लगाने पर कमर बाँधी और एक दिन अपनी आँखों उनकी पापमयी लीला देखी | बस उसी दिन मैंने लाला को खबर कर दी | लाला उस बात को चुपचाप पी गए | आठ-दस रोज बाद लाला ने मुझे बुलाकर कहा---श्यामलाल, तेरीबात ठीक निकली, आज मैंने भी देखा | जिस दिन तूने कहा था, उसी दिन से मैं इसकी टोह में था---आज तेरी बात की सत्यता प्रमाणित हो गई | अब बता क्या करना चाहिए ? मैंने कहा---मै क्या बताऊँ, आप जो उचित समझे, करें |'
     'लाला ने पूछा---तेरी क्या राय है ? मैंने इस उम्र में विवाह करके बड़ी भूल की; पर अब इसका उपाय क्या है ? मैंने कहा---अपने भाई साहब का आना-जाना बंद कर दीजिये, यही उपाय है और हो ही क्या सकता हा ? लाला ने सोचकर कहा---हाँ, यही ठीक है | जी में तो आता है कि इस औरत को निकाल बाहर करूँ, पर इसमें बड़ी बदनामी होगी | लोग हँसेंगे कि पहले तो विवाह किया, फिर निकाल दिया |'
     'मैंने कहा---हाँ, यह तो आपका कहना ठीक है | बस, उनका आना जाना बंद कर दीजिये, अतएव उसी दिन से यह हुकुम लग गया, कि लाला की अनुपस्थिति में बाहर का कोई आदमी---चाहे रिश्तेदार हो, चाहे कोई हो---अंदर न जाने पाए | और यह काम मेरे सुपुर्द किया गया | उस दिन से मैंने उन्हें नहीं धंसने दिया | इसपर उन्होंने मुझे प्रलोभन भी दिए, धमकी भी दी, पर मैंने एक न सुनी | मालकिन ने भी बहुत कुछ कहा-सुनाया, खुशामद की, पर मै जरा भी न पसीजा | कहरवा भी बोला---तुमसे क्या मतलब है, जो होता है, होने दो | मैंने उससे कहा---सुनता है बे, तू तो पक्का नमकहराम है, जिसका नामक खाता हिया, उसी के साथ दगा करता है | खैरियत इसी में है कि चुप रह, नही तो तुझे भी निकाल बाहर करूँगा |'
     ' यह सुनकर कहारराम चुप हो गए |'
      'थोड़े दिन बाद लाला के उन रिश्तेदार ने आना-जाना बिल्कुल बंद कर दिया | अब वह लाला के पास भी नहीं आते थे | मैंने भी सोचा, चलो अच्छा हुआ, आँख फूटी पीर गई |'
     'इसके छ: महीने बाद एक दिन लाला को हैजा हो गया मैंने बहुत दौड़-धूप की, इलाज इत्यादि कराया; पर कोई फायदा न हुआ | लाला जी समझे गए कि अंत समय निकट है; अतएव उन्होंने मुझे बुलाकर कहा---श्यामलाल, मै तुझे अपना नौकर नहीं, पुत्र समझता हूँ; इसलिए मैं अपनी कोठरी की ताली तुझे देता हूँ | मेरे मरने पर ताली मेरे लड़के को दे देना और जब तक वह न आ जाय, तब तक किसी को कोठरी न खोलने देना | बस, तुझेसे मै इतनी अंतिम सेवा चाहता हूँ |'
     'मैंने कहा---ऐसा ही होगा, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जायँ, पर मै इसमें अंतर न पड़ने दूंगा | इसके पश्चात् उन्होंने मुझे पाच हजार रूपये नकद दिए और बोले---यह लो, मैं तुम्हे देता हूँ | मैं लेता न था | पर उन्होंने कहा---तू यदि न लेगा, तो मुझे दुःख होगा, अतएव मैंने ले लिए | इसके चार घंटे बाद उनका देहांत हो गया | उनके लड़के को उनके मरने के तीन घंटे पहले तार दे दिया गया था | उनके मरने के पांच घंटे बाद वह मैनपुरी पंहुचा था | उनका देहांत रात को आठ बजे हुआ और वह रात के दो बजे के निकट पहुंचा था | लाला के मरने के बाद उनकी स्त्री ने मुझेसे कहा---कोठरी की ताली लाओ | मैंने कहा---ताली तो लाला शिवचरणपाल के हाथ में देने को कह गए हैं, मै उन्ही को दूंगा | उन्होंने कहा---अरे मूर्ख, इससे तुझे क्या मिलेगा | कोठरी खोलकर रूपया निकल ले---मुझे मत दे, तू ले ले, मैं भी तेरे साथ रहूंगी, जहाँ तू चलेगा, तेरे साथ चलूंगी | मैंने कहा---मुझसे न होगा | मैं तुम्हे ले जाकर रखूँगा कहाँ ? दुसरे तुम मेरे उस मालिक की स्त्री हो, जो मुझे अपने पुत्र के समान मानता था | मुझसे यह न होगा, कि तुम्हे अपनी स्त्री बनाकर रखूं |'
     'बाबूजी, एक घंटे तक उसने मुझे समझाया, रोई भी, हाथ भी जोड़े; परन्तु मैंने एक न मानी | आखिर उसने अन्य उपाय न देख अपने देवर अर्थात् उन्ही को बुलाया, जिनका आना-जाना मैंने बंद कराया था | उन्होंने आते ही बड़ा रुआब झाड़ा | मुझे पुलिस में देने की धमकी दी, पर मैं इससे भयभीत न हुआ | तब वह ताला तोड़ने पर आमादा हुए | मैं कोठरी के द्वार पर एक मोटा डंडा लेकर बैठ गया और मैंने उनसे कह दिया कि जो कोई ताला तोड़ने आएगा, पहले मैं उसका सिर तोडूंगा, इसके बाद जो होगा देखा जायगा | बस फिर उनका साहस न हुआ | इस रगड़े-झगड़े में रात के दो बज गए और शिवचरणलाल आ गए | मैंने उनको ताली दे दी और सब हाल बता दिया |
     'बाबूजी, जब कोठरी खोली गई, तो उसमे साठ हजार रूपये नकद निकले | इन रुपयों का हाल लाला के अतिरिक्त और किसी को भी मालूम न था | यदि मैं मालकिन की बात मानकर बीस-पच्चीस हजार रूपये भी निकाल लेता, तो किसी को भी संदेह न होता, पर मेरे मन में इसी बात का विचार एक क्षण के लिए भी पैदा न हुआ | मेरी माँ रोज रामायण पढ़कर मुझे सुनाया करती थीं, और मुझे यही समझाया करती थी कि---बेटा, पाप और बेईमानी से सदा बचना, इससे तुझे कभी दुःख न होगा | उनकी यह बातें मेरे जी में बसी हुई थीं और इसीलिए मैं बच गया | उसके बाद शिवचरणपाल ने भी मुझे एक हजार रुपया दिया | साथ ही उन्होंने यह कहा कि तुम मेरे पास रहो; पर लाला के मरने से और जो अनुभव मुझे हुए थे, उनके कारण मैंने उनके यहाँ रहना उचित न समझा | लाला की तेरही होने के बाद मैंने उनकी नौकरी छोड़ दी | छ: हजार अपने ब्याह में खर्च किये | एक हज़ार लगाकर एक दुकान की और हजार बचाकर रखा; पर दूकान में फिर घाटा हुआ | तब मैंने मैनपुरी छोड़ दी और इधर चला आया | नौकरी करने की इच्छा नही थी, इसलिए मैंने इक्का-घोड़ा खरीद लिया और किराये पर चलाने लगा---तबसे बराबर यही काम कर रहा हूँ | इसमें मुझे खाने-भर को मिल जाता है | अपने आनन्द से रहता हूँ, न किसी के लेने में हूँ, न देने में | अब बताइए, वह बाबू कहते थे कि चार आने पैसे के लिए मै बेईमानी करता हूँ | अब मैं उनसे क्या कहता | यह तो दुनिया है, जो जिसकी समझ में आता है, कहता है | मैं भी सब सुन लेता हूँ | इक्केवाले बदनाम हैं, इसलिए मुझे भी ये बाते सुननी पड़ती हैं |'
     शायमलाल की आत्मकहानी सुनकर मैं कुछ देर तक स्तब्ध रह बैठा रहा | इसके पश्चात् मैंने कहा---'भाई, तुम तो दर्शनीय आदमी हो, तुम्हारे तो चरण छूने को जी चाहता है |'
     शायमलाल हंसकर बोला---'अजी बाबूजी, क्यों काँटों में घसीटते हो ? मेरे चरण और आप छुए---राम ! राम ! मैं कोई साधू थोड़ा ही हूँ |'
     मैंने कहा---'और साधु कैसे होते हैं; उनके कोई सुर्खाव का पर तो लगा होता नही | सच्चे साधू तो तुम्ही हो |' यह सुनकर श्यामलाल हँसने लगा | इसी समय गंगापुर आ गया और हमलोग इक्के से उतरकर अपने निर्दिष्ट स्थान की ओर चल दिए |
     रास्ते में मैंने मनोहरलाल से कहा---'इस संसार में अनेकों लाल गुदड़ी में छिपे पड़े हैं | उन्हें कोई जानता तक नही |'
     मनोहरलाल----'जी हाँ ! और नामधारी ढोंगी महात्मा ईश्वर  की तरह पूजे जाते हैं |'
     बात बहुत पुरानी हो गई है, पता नही, महात्मा शायमलाल अब भी जीवित हों या नहीं, परन्तु अब भी जब कभी मुझे उनका स्मरण हो आता है तो ये उनकी काल्पनिक मूर्ति के चरणों में अपना मस्तक नत कर देता हूँ |

     

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