Saturday 26 March 2016

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महानाश की भट्ठी-बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन'|Mahanash ki bhatthi|Hindi poem|Poet-Bal Krishna Sharma 'Naveen'|

महानाश की भट्ठी 

अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी |
बढ़ आने दे अपनी लपटें लप-लप  करती हत्यारी |
धुआँधार अम्बर हो जाये, क्षितिज लालिमा में रंजित हो,
वसुधा की विभूतियाँ आज चिता की गोदी में संचित हों,
एक-एक क्षण में सहस्त्र युग के जलने की हो तयारी|
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी |

रँगे खून से हाथ, लोचनों में प्रपंच का कज्जल छाया,
मस्तिष्क में मोह-मदिरा ने अपना चिर नवरंग जमाया|
हिय में घृणा आन घुश बैठी, स्नेह-भावनाएं रोती हैं,
अंतर में कायरता की कुत्सित लीलाएँ होती हैं |
अरे अग्नि के पुंज, कहाँ हैं तेरी दहन-शक्तियाँ सारी ?
बढ़ आने दे अपनी लपटें लप-लप  करती हत्यारी |

जड़ता बनी धर्म-भूषण, शठता आचार्य बन बैठी,
भूत-दया का रूप धरे इस ओर नपुंसकता ऐंठी,
सामाजिक औदास्य-भाव बन गया भाग्य का फेर निराला,
निरुत्साह, दौर्बल्य, भीति-भय का पड़ गया हृदय पर पाला;
कर दे नष्ट आज सदियों का संचित यह कुभाव अविचारी |
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी !
Photo by pakorn
















शत-शत सुख की अभिलाषाएँ छिन में छार हो जाएँ,
कई सहस्त्र हृदय की दुर्बलताएँ पल-भर में खो जाये,
लक्ष-लक्ष लोचनों में चमके प्राण-दान की निर्मल ज्वाला,
कोटि-कोटि कंठों से सर्वनाश का हो उदघोष निराला,
झमक झूम झकझोर भस्म कर दे निसर्ग की तुंग अटारी!
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी!

मान और मर्यादा छूटी, बिखर गयी गरिमा छन-भर में.
रण-हुँकारकारिणी शक्ति लुप्त हो गयी आह! अम्बर में;
गिरि-गह्वर में, वन-उपवन में अथवा किसी शून्य प्रान्तर में,
डोल रहे हैं कुछ दीवाने ले आशा-प्रदीप निज कर में,
कब से खोज रहे हैं तुमको सर्वनाश की ओ चिनगारी!
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू सर्वनाश की भट्ठी प्यारी!

आज सव्यसाची को खाण्डव विपिन-दहन फिर से दिखला दे,
अग्नि-कुमारों को आग से खेलना तू फिर से सिखला दे,
दिखला दे कि मरण ही जीवन है, रण-प्रांगण ही गीता है,
सिखला दे, ओ आग ! कि महाशांति तुझसे ही परिणीता है,
तेरी अनुगामिनी बनी नव प्रातः की ऊषा सुकुमारी,
क्यों झिझके री, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी !

चट-चट करती धू-धू करती हा-हा-हू हूकार मचा दे,
अपने शोलों के फूलों से मेरा आँगन आज रचा दे,
अरी, नचा दे अपनी लपटें इधर-उधर सब ओर निराली,
काली की जिह्वा-सी रक्तशोषिका लौ लपके मतवाली,
धुआँ उठे, पाखण्ड जले, हिमखण्ड सुने, देखें त्रिपुरारी,
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्टी प्यारी!

अम्बर में अंगारें बरसें, जलद धुआँ बनकर मंडराएँ 
वज्र्घोश से सुप्त रोष की भौहें विकराली चढ़ जाएँ,
अंगड़ाई लेकर विद्रोह फट पड़े अब ज्वलंत मुधर-सा,
अरी, धधक उठ, धक्-धक् कर तू महानाश की भट्ठी प्यारी!





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