Tuesday 26 April 2016

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शत्रु | अज्ञेय | कहानी | Shatru | Agyey | Hindi Story

      'शत्रु' कहानी अज्ञेय जी द्वारा रचित कहानी है जिसमें ज्ञान को भगवान् स्वप्न में दर्शन देते हैं और उसे अपना प्रतिनिधि घोषित करके संसार का पुनर्निर्माण करने के लिए कहते हैं | ज्ञान संसार में जा के विभिन्न समस्याएं देखता है| पर जब भी वह इनका समाधान करने जाता तो नई समस्याएं आ जाती | अंत में हार मानकर वह 
आत्म-हत्या करने जाता है और तभी...
 १  
     ज्ञान को एक रात सोते समय भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिए, और कहा---ज्ञान, मैंने तुम्हे अपना प्रतिनिधि बनाकर संसार में भेजा है | उठो, संसार का पुनर्निर्माण करो |
     ज्ञान जाग पड़ा | उसने देखा, संसार अंधकार से पड़ा है और मानव जाति उस अंधकार में पथभ्रष्ट होकर विनाश की ओर बढ़ती चली जा रही है | वह ईश्वर का प्रतिनिधि है, तो उसे मानव-जाति को पथ पर लाना होगा, उसका नेता बनकर उसके शत्रु से युद्ध करना होगा |
     और वह जाकर चौराहे पर खड़ा हो गया और सबको सुनाकर कहने लगा---मै मसीह हूँ, पैगम्बर हूँ | भगवान का प्रतिनिधि हूँ | मेरे पास तुम्हारे उद्धार के लिए एक संदेश है |
     लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी | कुछ उसकी ओर देख कर हँस पड़ते, कुछ कहते, पागल है, अधिकांश कहते, यह हमारे धर्म के विरुद्ध शिक्षा देता है, नास्तिक है, इसे मारो ! और बच्चे उसे पत्थर मारा करते |
     आखिर तंग आकर वह एक अँधेरी गली में छिपकर बैठ गया, और सोचेने लगा | उसने निश्चय किया कि मानव-जाति का सबसे बड़ा शत्रु है धर्म, उसी से लड़ना होगा |
     तभी पास कहीं से उसने स्त्री के करुण क्रन्दन की आवाज़ सुनी | उसने देखा, एक स्त्री भूमि पर लेटी है, उसके पास एक बहुत छोटा-सा बच्चा पड़ा है, जो या तो बेहोश है या मर चुका है, क्योंकि उसके शरीर में किसी प्रकार की गति नहीं है |
     ज्ञान ने पूछा---बहन, क्यों रोती हो ?
     उस स्त्री ने कहा---मैंने एक विधर्मी से विवाह किया था | जब लोगों को इसका पता चला, तब उन्होंने उसे मार डाला और मुझे निकाल दिया | मेरा बच्चा भूख से मर रहा है |
     ज्ञान का निश्चय और दृढ हो गया | उसने कहा---तुम मेरे साथ आओ, मै तुम्हारी रक्षा करूँगा |---और उसे अपने साथ ले गया |
     ज्ञान ने धर्म के विरुद्ध प्रचार शुरू किया | उसने कहा---धर्म झूठा बंधन है | परमात्मा एक है, अबाध है और धर्म से परे है | धर्म हमे सीमा में रखता है, रोकता है, परमात्मा से अलग रखता है, अतः शत्रु है ?
     लेकिन किसी ने कहा---जो व्यक्ति पराई और बहिष्कृता औरत को अपने साथ रखता है, उसकी बात हम क्यों सुने ? वह समाज से पतित है, नीच है |
     तब लोगों ने उसे समाजच्युत करके बाहर निकाल दिया |
ज्ञान ने देखा कि धर्म से लड़ने के पहले समाज से लड़ना है | जब तक समाज पर विजय नहीं मिलती, तब तक धर्म का खंडन नहीं हो सकता |
     तब वह इसी प्रकार करने लगा---वह कहने लगा---धर्मध्वजी ये पुगी-पुरोहित, मुल्ला, ये कौन हैं ? इन्हें क्या अधिकार है हमारे जीवन को बाँध रखने कर ? आओ, हम इन्हें दूर कर दे, एक स्वतंत्र समाज की रचना करे, ताकि हम उन्नति के पथ पर बढ़ सके |
     तब एक दिन विदेशी सरकार के दो सिपाही आकर उसे पकड़ ले गए | क्योंकि वह वर्गों में परस्पर विरोध जगा रहा था |
     ज्ञान जब जेल काटकर बाहर निकला, तब उसकी छाती में इन विदेशियों के प्रति विद्रोह धधक रहा था | यही तो हमारी क्षुद्रताओं को स्थायी बनाये रखते हैं, और लाभ उठाते हैं | पहले अपने को विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करना होगा, तब..और वह गुप्त रूप से विदेश्यों के विरुद्ध लड़ाई का आयोजन करने लगा |
     एक दिन उसके पास एक विदेशी आदमी आया | वह मैले-कुचले फटे -पुराने खाकी पहने हुए था | मुख पर झुर्रियाँ पड़ी थीं, आँखों में एक तीखा दर्द था | उसने ज्ञान से कहा---आप मुझे कुछ काम दे, ताकि मै अपनी रोजी कमा सकूँ | मैं विदेशी हूँ | आपके देश में भूखा मर रहा हूँ | कोई भी काम मुझे दे, मै करूँगा, आप परीक्षा लें | मेरे पास रोटी का टुकड़ा भी नही है |
     ज्ञान ने खिन्न होकर कहा---मेरी दशा तुमसे कुछ अच्छी नही है, मैं भी भूखा हूँ |
वह विदेशी एकाएक पिघल-सा गया | बोला---अच्छा, मैं आपके दुःख से बहुत दुखी हूँ | मुझे अपना भाई समझे | यदि आपस में सहानुभूति हो, तो भूखे मरना मामूली बात है | परमात्मा आपकी रक्षा करे | मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ ?
     ज्ञान ने देखा कि देशी-विदेशी का प्रश्न तब उठता है, जब पेट भरा हो | सबसे पहला शत्रु तो यह भूख ही है, पहले भूख को जीतना होगा, तभी आगे कुछ सोचा जा सकेगा...
     और उसने 'भूख के लड़ाकों' का एक दल बनाना शुरू किया, जिसका उद्देश्य था अमीरों से धन छीनकर सबमे समान रूप से वितरण करना, भूखों को रोटी देना इत्यादि, लेकिन जब धनिकों को इस बात का पता चला तब उन्होंने एक दिन चुपचाप अपने चरों द्वारा उसे पकड़वा मंगाया और एक पहाड़ी किले में कैद कर दिया | वहाँ एकांत में वे उसे सताने के लिए नित्य एक मुट्ठी चबेना और एक लोटा पानी दे देते, बस |
     धीरे-धीरे ज्ञान का हृदय ग्लानि से भरने लगा | जीवन उसे बोझ-सा जान पड़ने लगा | निरंतर यह भाव उसके भीतर जगा करता कि मैं, ज्ञान, परमात्मा का प्रतिनिधि, इतना विवश हूँ कि पेट-भर रोटी का प्रबंध मेरे लिए असंभव है ? यदि ऐसा है, तो कितना व्यर्थ है यह जीवन, कितना छूंछा, कितना बेमानी |
     एक दिन वह किले की दीवार पर चढ़ गया | बाहर खाई में भरा हुआ पानी देखते-देखते उसे एकदम से विचार आया, और उसने यह निश्चय कर लिया कि वह उसमें कूदकर प्राण खो देगा | परमात्मा के पास लौटकर प्रार्थना करेगा कि मुझे इस भार से मुक्त करो, मैं तुम्हारा प्रतिनिधि तो हूँ, लेकिन ऐसे संसार में मेरा स्थान नही है |
     वह स्थिर मुग्ध दृष्टी से खाई के पानी में देखने लगा | वह कूदने को ही था की एकाएक उसने देखा, पानी में उसका प्रतिबिम्ब झलक रहा है और मानो कह रहा है---बस, अपने आपसे लड़ चुके ?
     ज्ञान सहमकर रुक गया, फिर धीरे-धीरे दीवार पर से नीचे उतर औया और किले में चक्कर काटने लगा |
     और उसने जान लिया कि जीवन की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि हम निरंतर आसानी की ओर आकृष्ट होते हैं |



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