Thursday 28 April 2016

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फूल और कांटे | कविता | कवि: अयोध्या सिंह 'उपाध्याय' | Phool Aur Kante | Hindi Poem | Poet:- Ayodhyaya Singh 'Upadhyaya' |

फूल और कांटे
     'फूल और कांटे' अयोध्या सिंह 'उपाध्याय' जी द्वारा रचित कविता है | इस कविता में कवि ने यह सन्देश देना चाहा है कि किसी का कर्म ही होता है जो उसे महानता के शिखर पर ले जाते हैं | इसमें उसका जन्म या कुल का कोई हाथ नहीं होता | इस बात को स्पष्ट करने के लिए कवि ने फूल और कांटे का चयन किया |
                                               (१) 
हैं जनम लेते जगह में एक ही,
                                        एक ही पौधा उन्हें है पालता |
रात में उनपर चमकता चाँद भी,
                                        एक ही सी चाँदनी है डालता ||
                                             

                                            (२) 
मेघ उनपर है बरसता एक-सा,
                                        एक-सी उनपर हवाएँ हैं बहीं |
पर सदा ही यह दिखाता है समय,
                                        ढंग उनके एक से होते नहीं ||
                                              (३)
छेदकर काँटा किसीकी उँगलियाँ,
                                        फाड़ देता है किसीका वर वसन |
और प्यारी तितलियों का पर कतर,
                                        भौंर का है बेध देता श्याम तन ||
                                               (४)
फूल लेकर तितलियों को गोद में,
                                        भौंर को अपना अनूठा रस पिला |
निज सुगन्धि औ' निराले रंग में,
                                        है सदा देती कली दिल की खिला ||
                                               (५) 
खटकता है एक सबकी आंख में,
                                         दूसरा है सोहता सुर-सीस पर
किस तरह कुल के बड़ाई काम दे,
                                         जो किसीमें हो बड़प्पन की कसर ||
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Tuesday 26 April 2016

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शत्रु | अज्ञेय | कहानी | Shatru | Agyey | Hindi Story

      'शत्रु' कहानी अज्ञेय जी द्वारा रचित कहानी है जिसमें ज्ञान को भगवान् स्वप्न में दर्शन देते हैं और उसे अपना प्रतिनिधि घोषित करके संसार का पुनर्निर्माण करने के लिए कहते हैं | ज्ञान संसार में जा के विभिन्न समस्याएं देखता है| पर जब भी वह इनका समाधान करने जाता तो नई समस्याएं आ जाती | अंत में हार मानकर वह 
आत्म-हत्या करने जाता है और तभी...
 १  
     ज्ञान को एक रात सोते समय भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिए, और कहा---ज्ञान, मैंने तुम्हे अपना प्रतिनिधि बनाकर संसार में भेजा है | उठो, संसार का पुनर्निर्माण करो |
     ज्ञान जाग पड़ा | उसने देखा, संसार अंधकार से पड़ा है और मानव जाति उस अंधकार में पथभ्रष्ट होकर विनाश की ओर बढ़ती चली जा रही है | वह ईश्वर का प्रतिनिधि है, तो उसे मानव-जाति को पथ पर लाना होगा, उसका नेता बनकर उसके शत्रु से युद्ध करना होगा |
     और वह जाकर चौराहे पर खड़ा हो गया और सबको सुनाकर कहने लगा---मै मसीह हूँ, पैगम्बर हूँ | भगवान का प्रतिनिधि हूँ | मेरे पास तुम्हारे उद्धार के लिए एक संदेश है |
     लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी | कुछ उसकी ओर देख कर हँस पड़ते, कुछ कहते, पागल है, अधिकांश कहते, यह हमारे धर्म के विरुद्ध शिक्षा देता है, नास्तिक है, इसे मारो ! और बच्चे उसे पत्थर मारा करते |
     आखिर तंग आकर वह एक अँधेरी गली में छिपकर बैठ गया, और सोचेने लगा | उसने निश्चय किया कि मानव-जाति का सबसे बड़ा शत्रु है धर्म, उसी से लड़ना होगा |
     तभी पास कहीं से उसने स्त्री के करुण क्रन्दन की आवाज़ सुनी | उसने देखा, एक स्त्री भूमि पर लेटी है, उसके पास एक बहुत छोटा-सा बच्चा पड़ा है, जो या तो बेहोश है या मर चुका है, क्योंकि उसके शरीर में किसी प्रकार की गति नहीं है |
     ज्ञान ने पूछा---बहन, क्यों रोती हो ?
     उस स्त्री ने कहा---मैंने एक विधर्मी से विवाह किया था | जब लोगों को इसका पता चला, तब उन्होंने उसे मार डाला और मुझे निकाल दिया | मेरा बच्चा भूख से मर रहा है |
     ज्ञान का निश्चय और दृढ हो गया | उसने कहा---तुम मेरे साथ आओ, मै तुम्हारी रक्षा करूँगा |---और उसे अपने साथ ले गया |
     ज्ञान ने धर्म के विरुद्ध प्रचार शुरू किया | उसने कहा---धर्म झूठा बंधन है | परमात्मा एक है, अबाध है और धर्म से परे है | धर्म हमे सीमा में रखता है, रोकता है, परमात्मा से अलग रखता है, अतः शत्रु है ?
     लेकिन किसी ने कहा---जो व्यक्ति पराई और बहिष्कृता औरत को अपने साथ रखता है, उसकी बात हम क्यों सुने ? वह समाज से पतित है, नीच है |
     तब लोगों ने उसे समाजच्युत करके बाहर निकाल दिया |
ज्ञान ने देखा कि धर्म से लड़ने के पहले समाज से लड़ना है | जब तक समाज पर विजय नहीं मिलती, तब तक धर्म का खंडन नहीं हो सकता |
     तब वह इसी प्रकार करने लगा---वह कहने लगा---धर्मध्वजी ये पुगी-पुरोहित, मुल्ला, ये कौन हैं ? इन्हें क्या अधिकार है हमारे जीवन को बाँध रखने कर ? आओ, हम इन्हें दूर कर दे, एक स्वतंत्र समाज की रचना करे, ताकि हम उन्नति के पथ पर बढ़ सके |
     तब एक दिन विदेशी सरकार के दो सिपाही आकर उसे पकड़ ले गए | क्योंकि वह वर्गों में परस्पर विरोध जगा रहा था |
     ज्ञान जब जेल काटकर बाहर निकला, तब उसकी छाती में इन विदेशियों के प्रति विद्रोह धधक रहा था | यही तो हमारी क्षुद्रताओं को स्थायी बनाये रखते हैं, और लाभ उठाते हैं | पहले अपने को विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करना होगा, तब..और वह गुप्त रूप से विदेश्यों के विरुद्ध लड़ाई का आयोजन करने लगा |
     एक दिन उसके पास एक विदेशी आदमी आया | वह मैले-कुचले फटे -पुराने खाकी पहने हुए था | मुख पर झुर्रियाँ पड़ी थीं, आँखों में एक तीखा दर्द था | उसने ज्ञान से कहा---आप मुझे कुछ काम दे, ताकि मै अपनी रोजी कमा सकूँ | मैं विदेशी हूँ | आपके देश में भूखा मर रहा हूँ | कोई भी काम मुझे दे, मै करूँगा, आप परीक्षा लें | मेरे पास रोटी का टुकड़ा भी नही है |
     ज्ञान ने खिन्न होकर कहा---मेरी दशा तुमसे कुछ अच्छी नही है, मैं भी भूखा हूँ |
वह विदेशी एकाएक पिघल-सा गया | बोला---अच्छा, मैं आपके दुःख से बहुत दुखी हूँ | मुझे अपना भाई समझे | यदि आपस में सहानुभूति हो, तो भूखे मरना मामूली बात है | परमात्मा आपकी रक्षा करे | मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ ?
     ज्ञान ने देखा कि देशी-विदेशी का प्रश्न तब उठता है, जब पेट भरा हो | सबसे पहला शत्रु तो यह भूख ही है, पहले भूख को जीतना होगा, तभी आगे कुछ सोचा जा सकेगा...
     और उसने 'भूख के लड़ाकों' का एक दल बनाना शुरू किया, जिसका उद्देश्य था अमीरों से धन छीनकर सबमे समान रूप से वितरण करना, भूखों को रोटी देना इत्यादि, लेकिन जब धनिकों को इस बात का पता चला तब उन्होंने एक दिन चुपचाप अपने चरों द्वारा उसे पकड़वा मंगाया और एक पहाड़ी किले में कैद कर दिया | वहाँ एकांत में वे उसे सताने के लिए नित्य एक मुट्ठी चबेना और एक लोटा पानी दे देते, बस |
     धीरे-धीरे ज्ञान का हृदय ग्लानि से भरने लगा | जीवन उसे बोझ-सा जान पड़ने लगा | निरंतर यह भाव उसके भीतर जगा करता कि मैं, ज्ञान, परमात्मा का प्रतिनिधि, इतना विवश हूँ कि पेट-भर रोटी का प्रबंध मेरे लिए असंभव है ? यदि ऐसा है, तो कितना व्यर्थ है यह जीवन, कितना छूंछा, कितना बेमानी |
     एक दिन वह किले की दीवार पर चढ़ गया | बाहर खाई में भरा हुआ पानी देखते-देखते उसे एकदम से विचार आया, और उसने यह निश्चय कर लिया कि वह उसमें कूदकर प्राण खो देगा | परमात्मा के पास लौटकर प्रार्थना करेगा कि मुझे इस भार से मुक्त करो, मैं तुम्हारा प्रतिनिधि तो हूँ, लेकिन ऐसे संसार में मेरा स्थान नही है |
     वह स्थिर मुग्ध दृष्टी से खाई के पानी में देखने लगा | वह कूदने को ही था की एकाएक उसने देखा, पानी में उसका प्रतिबिम्ब झलक रहा है और मानो कह रहा है---बस, अपने आपसे लड़ चुके ?
     ज्ञान सहमकर रुक गया, फिर धीरे-धीरे दीवार पर से नीचे उतर औया और किले में चक्कर काटने लगा |
     और उसने जान लिया कि जीवन की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि हम निरंतर आसानी की ओर आकृष्ट होते हैं |



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Sunday 17 April 2016

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कलियों से | हरिवंश राय बच्चन | कविता | Kaliyon Se | Hindi poem | Harivansh Rai Bachchan |

          
कलियों से 
'कलियों से' कविता हिन्दी के महान कवि  हरिवंश राय बच्चन जी की रचना है| कवि कलियों से क्षमा मांगता है  क्योंकि उसने बचपन से उन्हें तोड़ कर उनपर अत्याचार किये हैं जिसपर कलियां उसे धन्यवाद देती हैं कि उसने उन्हें तोड़ कर उनकी उपयोगिता बढ़ाई है क्योंकि वे तो तोड़े न जाने के बाद भी कुम्हला के गिर ही जातीं... 
                 'अहे, मैंने कलियों के साथ,
    जब मेरा चंचल बचपन था,
    महा निर्दयी मेरा    मन था,
    अत्याचार अनेक   किये थे,
    कलियों को दुःख दीर्घ दिए थे,
    तोड़ इन्हें बागों से लाता,
    छेद-छेद कर हार बनाता !
    क्रूर कार्य, यह कैसे करता,
    सोच इसे हूँ आहें भरता |
कलियों, तुमसे क्षमा माँगते ये अपराधी हाथ |'
            'अहे, वह मेरे प्रति उपकार !
    कुछ दिन में कुम्हला ही जाती,
    गिरकर भूमि-समाधि बनाती |
    कौन जानता मेरा खिलना ?
    कौन, नाज़ से डुलना-हिलना ?
    कौन गोद में मुझको लेता ?
    कौन प्रेम का परिचय देता ?
    मुझे तोड़, की बड़ी भलाई,
    काम किसी के तो कुछ आई ,
बनी रही दो-चार घड़ी तो किसी गले का हार |'
            'अहे, वह क्षणिक प्रेम का जोश !
    सरस-सुगंधित थी तू जब तक,
    बनी स्नेह-भाजन थी तब तक |
    जहाँ तनिक-सी तू मुरझाई,
    फेंक दी गई, दूर हटाई |
इसी प्रेम से क्या तेरा हो जाता है परितोष ?'
            'बदलता पल-पल पर संसार 
    हृदय विश्व के साथ बदलता,
    प्रेम कहाँ फिर लहे अटलता ?
    इससे केवल यही सोचकर,
    लेती हूँ संतोष हृदय भर----
मुझको भी था किया किसी ने कभी हृदय से प्यार !'

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Tuesday 5 April 2016

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चन्दा-II | जयशंकर प्रसाद | कहानी | Chanda-II | Jayshankar Prasad | Hindi story|

'चन्दा' कहानी के इस भाग में;
     जब हीरा लौट के नहीं आता तो रजा उसकी मदद के लिए एक कोल को  भेजेते हैं | वह कोल रामू होता है जो हीरा के मदद करने की जगह उसे मौत के मुंह में धकेल देता है और वह कोल-पति बन जाता | चन्दा हीरा के क़त्ल... 
     यह बात राजा साहब को विदित हुई | उन्होंने उसकी मदद के लिए कोलों को जाने की आज्ञा दी | रामू उस अवसर पर था | उसने सबके पहले जाने के लिए पैर बढ़ाया, और चला | वहां जब पहुंचा, तो उस दृश्य को देखकर घबड़ा गया, और हीरा से कहा---हाथ ढीला कर; जब यह छोड़ने लगे, तब गोली मारूँ, नहीं तो सम्भव है कि तुम्ही को लग जाय |
     हीरा---नहीं, तुम गोली मारो |
     रामू---तुम छोड़ो तो मैं वार करूं |
     हीरा---नहीं, यह अच्छा नहीं होगा |
     रामू---तुम उसे छोड़ो, मैं अभी मारता हूँ |
     हीरा---नहीं, तुम वार करो |
     रामू---वार करने से संभव है कि उछले और तुम्हारे हाथ छूट जाएँ,तो यह तोड़ डालेगा |
     हीरा---नहीं, तुम मार लो, मेरा हाथ ढीला हुआ जाता है |
     रामू---तुम हद करते हो, मानते नहीं |
     इतने में हीरा का हाथ कुछ बात-चीत करते-करते ढीला पड़ा; वह चीता उछलकर हीरा के कमर के को पकड़कर तोड़ने लगा |
     रामू खड़ा होकर देख रहा है, और पैशाचिक आकृति उस घृणित पशु के मुख पर लक्षित हो रही, और वह हँस रहा है |
     हीरा टूटी हुई साँस से कहने लगा---अब भी मार ले |
     रामू ने कहा---अब तू मर ले, तब वह भी मारा जायेगा | तूने हमारा हृदय निकाल लिया है, तूने हमारा घोर अपमान किया है, उसी का प्रतिफल है | इसे भोग |
     हीरा को चीता खाये डालता है; पर उसने कहा---नीच ! तू जानता है कि 'चंदा' अब मेरी होगी | कभी नहीं ! तू नीच है---इस चीते से भी भयंकर जानवर हो |
     हीरा ने टूटी हुई आवाज से कहा-तुझे इस विश्वासघात का फल शीघ्र मिलेगा और चन्दा फिर हमसे मिलेगी | चन्दा...प्यारी..च...
     इतना उसके मुख से निकला ही था की चीते ने उसका सिर दांतों के तले दाब लिया | रामू देखकर पैशाचिक हँसी हँस रहा था | हीरा के  समाप्त हो जाने पर रामू लौट आया, और झूठी बातें बनाकर राजा से कहा कि उसको हमारे जाने के पहले ही चीता ने मार दिया | राजा बहुत दुःखी हुए, और जंगल की सर्दारी रामू को मिली |
     वसंत की राका चारों ओर अनूठा दृश्य दिखा रही है | चन्द्रमा न मालूम किस लक्ष्य की ओर दौड़ा चला जा रहा है; कुछ पूछने से भी नहीं बताता | कुटज की कली का परिमल लिए पवन भी न मालूम कहाँ दौड़ रहा है, उसका भी कुछ समझ नहीं पड़ता | उसी तरह, चंद्रप्रभा के तीर पर बैठी हुई कोल-कुमारी का कोमल कंठ-स्वर भी किस धुन में है---नही ज्ञात होता |
     अकस्मात गोली की आवाज ने उसे चौंका दिया | गाने के समय जो उसका मुख उद्वेग और करुणा से पूर्ण दिखाई पड़ता था, वह घृणा और क्रोध से रंजित हो गया, और वह उठकर पुच्छमर्दिता  सिंहनी के समान तनकर खड़ी हो गई, और धीरे से कहा---यही समय है | ज्ञात होता है, राजा इस समय शिकार खेलने पुनः आ गये हैं---बस वह अपने वस्त्र को ठीक करके कोल-बालक बन गई, और कमर में से एक चमचमाता हुआ छूरा निकालकर चूमा | वह चांदनी में चमकने लगा | फिर वह कहने लगी---यद्यपि तुमने हीरा का रक्तपान कर लिया है, लेकिन पिता ने रामू से तुम्हे ले लिया था | अब तुम हमारे हाथ में हो, तुम्हें आज रामू का भी खून पीना होगा |
     इतना कहकर वह गोली के शब्द की ओर लक्ष्य करके चली | देखा कि तहखाने में राजासाहब बैठे हैं | शेर को गोली लग चुकी है, और वह भाग गया है, उसका पता नही लग रहा है, रामू सर्दार है, अतएव उसको खोजने के लिए आज्ञा हुई, वह शीघ्र ही सन्नद्ध हुआ | राजा ने कहा---कोई साथी लेते जाओ |  
     पहले तो उसने अस्वीकार किया, पर जब एक कोल-युवक स्वयं साथ चलने को तैयार हुआ, तो वह नही भी न कर सका, और सीधे---जिधर शेर गया था, उसी ओर चला | कोल-बालक भी उसके पीछे है | वहां घाव से व्याकुल शेर चिंघाड़ रहा है, इसने जाते ही ललकारा | उसने तत्काल ही निकलकर वार किया | रामू कम साहसी नहीं था, उसने उसके खुले हुए मुंह में निर्भीक होकर बन्दूक की नाल डाल दी; पर उसके जरा-सा मुहं घुमा लेने से गोली चमड़ा छेदकर पार निकल गई, और शेर ने क्रुद्ध होकर दांत से बन्दूक की नाल दबा ली | अब दोनों एक दुसरे को ढकेलेने लगे; पर कोल-बालक चुपचाप खड़ा है | रामू ने कहा---मार, अब देखता क्या है !
     युवक---तुम इससे बहुत अच्छी तरह लड़ रहे हो |
     रामू---मारता क्यों नहीं ?
     युवक---इसी तरह शायद हीरा से भी लड़ाई हुई थी, क्या तुम नहीं लड़ सकते ?
     रामू---कौन, चन्दा ! तुम हो ? आह, शीघ्र मारो, नहीं तो अब यह सबल हो रहा है |
     चन्दा ने कहा---हाँ, लो, मैं मारती हूँ, इसे छूरे से हमारे सामने तुमने हीरा को मारा था, यह वही छूरा है, यह तुझे दुःख से निश्चय ही छुड़ावेगा---इतना कहकर चन्दा ने रामू की बगल में छूरा उतार दिया | वह छटपटाया | इतने ही में शेर को मौका मिला, वह भी रामू पर टूट पड़ा और उसका इति कर आप भी वहीं गिर पड़ा |
     चन्दा ने अपना छूरा निकाल लिया, और उसको चांदनी में रंगा हुआ देखेने लगी, फिर खिलखिलाकर हंसी और कहा---'दरद दिल काहि सुनाऊं प्यार' ! फिर हंसकर कहा---हीरा ! तुम देखते होगे, अपर अब तो यह छूरा ही दिल की दाह सुनेगा | इतना कहकर अपनी छाती में उसे झोंक लिया और उसी जगह गिर गई, और कहने लगी-हीरा...हम...तुमसे...मिले ही.... ....
     चन्द्रमा अपने चन्द्र प्रकाश में यह सब देख रहा था |


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