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क्योंकि महात्मा गाँधी कहतें हैं "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है" इसलिए

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Monday 8 May 2017

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नर हो न निराश करो मन को | मैथलीशरण गुप्त | हिंदी कविता | Nar Ho Na Nirash Karo Man Ko | Maithlisharan Gupt

'नर हो न निराश करो मन को' मैथलीशरण गुप्त जी की एक ऐसी अद्भुत और दिव्य रचना है जिसे पढ़कर घोर निराशा में डूबा मनुष्य आशा की और अग्रसर हो जाता है, आलसी उद्यम की ओर और हतोत्साहित उत्साह की ओर | यह अमर काव्य-रचना मनुष्य को निराशा के काले अंधरे ने से निकल कर पुरुषार्थ करने को प्रेरित करती है | निष्क्रियता को तज कर सक्रियता को अपनाने का सन्देश देती है | मुझे ऐसा विश्वास है कि यह कविता पाठकों को सीमारहित प्रेरणा देगी |                                                                                                                           -रणजीत बहादुर  

नर हो, न निराश करो मन को


नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।

प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
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Sunday 16 April 2017

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आवारा भीड़ के खतरे | लेख | लेखक: हजारी प्रसाद द्विवेदी | Awara Bheed Ke Khatre | Hindi Essay| Hajari Prasad Dwivedi

लेखक ने इस लेख में युवा असंतोष पर विचार विमर्श किया साथ ही युवा पीढ़ी के सही दिशा को समझाने का प्रयास भी किया है |

एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकान्त वर्मा ने बताया-पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आसपास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया ? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया-हरामजादी बहुत खूबसूरत है।

हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है ? क्या अर्थ है ? यह कैसी मानसिकता है ? यह मानसिकता क्यों बनी ? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं-पश्चिम से संपन्न देशों में भी और तीसरी दुनियाँ के गरीब देशों में भी। अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम और हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का काम मिले, अमेरिका में रहूँ। ‘स्टेट्स’ जाना यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है। ये अपवाद हैं। भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं। संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं। सवाल है-उस युवक ने सुंदर मॉडल पर पत्थर क्यों फेंका ? हरामजादी बहुत खूबसूरत है-यह उस गुस्से का कारण क्यों ? वाह, कितनी सुंदर है-ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते ?

युवक साधारण कुरता पाजामा पहिने था। चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त। शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटकता रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत खराब। घर में अपमान, बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध। घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। किसी के अच्छे घर से घृणा होती है। सुंदर कार पर थूकने का मन होता है। मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है। अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है। जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है।

बूढ़े-सयाने स्कूल का लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से शिकायत होने लगती है। वे कहते हैं-ये लड़के कैसे हो गए ? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था। हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुकाकर मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी को नहीं मानते। मैं याद करता हूँ कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था। गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता था। समाज के नेताओं का भी नहीं। मगर तब हम छात्रों को जो किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी ? हमारे कस्बे में कुल दस-बारह अखबार आते थे। रेडियो नहीं। स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था। सब नेता हमारे हीरो थे-स्थानीय भी और जवाहर लाला नेहरू भी। हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियाँ नहीं जानते थे। मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे। पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पाँचवी कक्षा का छात्र है। वह सवेरे अखबार पढ़ता है, टेलीवीजन देखता है, रेडियो सुनता है। वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है। देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है। घर में उससे कुछ ऐसा करने को कहो तो वह प्रतिरोध करता है। मेरी बात भी तो सुनो। दिन भर पढ़कर आया हूँ। अब फिर कहते ही कि पढ़ने बैठ जाऊँ।थोड़ी देर खेलूँगा तो पढ़ाई भी नहीं होगी। हमारी पुस्तक में लिखा है। वह जानता है घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं।


ऊँची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्र हीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं-युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है-(हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे ? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं। उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं। उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टाँग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग। छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब। वे घरेलू मामले जानते हैं। ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएँ। ये गुरु कहते हैं छात्रों को क्रांति करना है। वे क्रांति करने लगे, तो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे। अधिकतर छात्र अपने गुरु से नफरत करते हैं।

बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं। वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हजार है, पर घर का ठाठ आठ हजार रुपयों का है। मेरा बाप घूस खाता है। मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है। हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं, कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं। इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था- प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत। उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है। कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था। उसकी परीक्षा हो चुकी है और एक लंबी छुट्टी है। उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो-तीन बार कहा। डाँटा। वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया हम क्या करें ? ऐसी तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी। छुट्टी काटना उसकी समस्या है। वह कुछ तो करेगा ही। दबाओगे तो विद्रोह कर देगा। जब बच्चे का यह हाल है तो किशोरों और तरुणों की प्रतिक्रियाएँ क्या होंगी।

युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियाँ उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पद चिन्हों पर चलें ? किन मूल्यों को मानें ?

यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे ‘लास्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) कहा जाता है। युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं। युद्ध में सब बड़े लगे हैं, तो बच्चों की परवाह करने वाले नहीं। बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए। घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ। जीवन मूल्यों का नाश हुआ। ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीज जो पीढ़ी बनकर जवान हुई, तो खोई हुई पीढ़ी इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवाय कुछ नहीं था। विश्वास टूट गए थे। यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई। अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी। नाटक का नाम ‘लुक बैक इन एंगर’। मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और संपन्न होने पर भी चलता रहा। कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए। ‘वीट जनरेशन’ हुई। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है। ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है। अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा। मगर व्यवस्था से असंतोष वहाँ पैदा  हुआ। अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है। वहाँ एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक है, तो दूसरी ओर अतिशय संपन्नता से पीड़ित युवक भी। जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वच्छंदता और विध्वंसवादिता में प्रगट हुआ। जहाँ तक नशीली वस्तुओं के सेवन के सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले सत्तावन फीसदी छात्र और पैंतीस फीसदी छात्र नशे के आदी बन गए। दिल्ली तो महानगर है। छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं। किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर जगह मिल जाता है। ‘स्मैक’ और ‘पॉट’ टॉफी की तरह उपलब्ध हैं।

छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं। सही मानते हैं। अगर छात्रों युवकों में विचार हो, दिशा हो संगठन हो और साकारात्मक उत्साह हो। वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराईयों को समझें तो उन्हीं बुराईयों के उत्तराधिकारी न बने, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराईयाँ मिलाकर पतन की परंपरा को आगे न बढ़ाएँ। सिर्फ आक्रोश तो आत्म क्षय करता है। एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठवें दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। वे ‘स्टूडेंट पावर’ में विश्वास करते थे। मानते हैं कि छात्र क्रांति कर सकते हैं। वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते। उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लाना होगा। लक्ष्य निर्धारित करना होगा। आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो। अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए। हो ची मिन्ह और चे गुएवारा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी ,भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना। अमेरिकी विश्विद्यालय की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी। फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे। राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यायल में आंदोलन किया। लेखक ज्यां पाल सार्त्र ने उनका समर्थन किया। उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था। उनके लिए राजनैतिक क्रांति करना संभव नहीं था। फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया। पर उनकी माँगें ठोस थी जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन। अपने यहाँ जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी मांग उनकी नहीं थी। पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई। फिर वह लंदन चला गया।

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सभी पतित हैं, तो हम क्यों नहीं हों। सब दलदल में फँसे हैं, तो जो नए लोग हैं, उन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए। यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ। दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर ले लेते हैं। कारण बताते हैं-मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ। पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वह परिवर्तन ला सकते हैं। पर मैं देख रहा हूं एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से तत्ववादी, बुनियाद परस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ ब़ढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।

 जून 1991
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Saturday 25 March 2017

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प्राप्तव्य | हिंदी कविता | बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' | Praptavya | Hindi Poem | Balkrishan Sharma 'Naveen'

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' की लिखी इस कविता में मनुष्य को स्वर्ग को अपना प्राप्तव्य न बनाकर अपितु इस धरती को ही देवदुर्लभ बनाकर इसे अपवर्ग बनाने का सन्देश है |

प्राप्तव्य 


इस धरती पर लाना है,
हमें खींच कर स्वर्ग
कहीं यदि उसका ठौर-ठिकाना है!

यदि वह स्वर्ग कल्पना ही हो
यदि वह शुद्ध जल्पना ही हो
तब भी हमें भूमि माता को
अनुपम स्वर्ग बनाना है!
जो देवोपम है उसको ही इस धरती पर लाना है!

और स्वर्ग तो भोग-लोक है
तदुपरान्त बस रोग-शोक है
हमें भूमि को योग-लोक का
नव अपवर्ग बनाना है!
जोकि देवदुर्लभ है उसको इस धरती पर लाना है!

बनना है हमको निज स्वामी
उर्ध्व वृत्ति सत्-चित्-अनुगामी
वसुधा सुधा-सिंचिता करके
हमें अमर फल खाना है
जोकि देवदुर्लभ है उसको इस धरती पर लाना है!

हैं आनंद-जात जन निश्चय
सदानंद में ही उनका लय
चिर आनंद वारि धाराएँ
हमें यहाँ बरसाना है
जो देवोपम है उसको ही इस धरती पर लाना है!
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Tuesday 17 January 2017

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मानव का अभिमान | हरिवंश रे बच्चन | कविता | Manav Ka Abhimaan | Harivansh Rai Bacchan | Hindi Poem

'मानव का अभिमान' हरिवंश राय बच्चन द्वारा रचित 'धार के इधर उधर' पुस्तक से ली गयी कविता है जिसमे कवि ने वर्तमान युग में मानव के द्वारा मानव जाति के विनाश की संभवाना प्रकट की है | तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।

जिन वनैले जंतुओं से
था कभी भयभीत होता,
भागता तन-प्राण लेकर,
सकपकाता, धैर्य खोता,
बंद कर उनको कटहरों में बना इंसान।
तुष्ट  मानव का नहीं अभिमान।

प्रकृति की उन शक्तियों पर
जो उसे निरुपाय करतीं,
ज्ञान लघुता का करातीं,
सर्वथा असहाय करतीं,
बुद्धि से पूरी विजय पाकर बना बलवान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।

आज गर्वोन्मत्त होकर
विजय के रथ पर चढ़ा वह,
कुचलने को जाति अपनी
आ रहा बरबस बढ़ा वह;
मनुज करना चाहता है मनुज का अपमान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान
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तुष्ट= satisfied
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Sunday 15 January 2017

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विपथगा | अज्ञेय | कहानी | Vipathga | Hindi Story | Agyey |



यह मानवी थी या दानवी, यह मैं इतने दिन सोचकर भी नहीं समझ पाया हूँ। कभी-कभी तो यह भी विश्वास नहीं होता कि उस दिन की घटना वास्तविक ही थी, स्वप्न नहीं। किन्तु फिर जब अपने सामने ही दीवार पर टंगी हुई वह टूटी तलवार देखता हूँ, तो हठात् उसकी सत्यता मान लेनी पड़ती है। फिर भी अभी तक यह निर्णय नहीं कर पाया कि मानवी थी या नहीं...

उसके शरीर में लावण्य की दमक थी, मुँह पर सौन्दर्य की आभा थी, ओठों पर एक दबी हुई विचारशील मुस्कान थी। किन्तु उसकी आँखें! उनमें अनुराग, विराग, क्रोध, विनय, प्रसन्नता, करुणा, व्यथा, कुछ भी नहीं था, थी केवल एक भीषण, तुषारमय, अथाह ज्वाला!

मनुष्य की आँखों में ऐसी मृतवत जड़ता के साथ ही ऐसी जलन हो सकती है, यह बात आज भी मेरे गुमान में नहीं आती। किन्तु आज एक वर्ष बीत जाने पर भी, मैं जब कभी उसका ध्यान करता हूँ, उसकी वे आँखें मेरे सामने आ जाती हैं। उसकी आकृति, उसका वर्ण, उसकी बोली, मुझे कुछ भी याद नहीं आता, केवल वे दो प्रदीप्त बिम्ब दीख पड़ते हैं... रात्रि के अन्धकार में जिधर आँख फेरता हूँ, उधर ही स्फटिक मणि की तरह नीले आकाश में शुक्र तारे की तरह, हरित ज्योतिमय उसके वे विस्फारित नेत्र निर्निमेष होकर मुझ पर अपनी दृष्टि गड़ाये रहते हैं...

मैं भावुक प्रकृति का आदमी नहीं हूँ। पुराने फ़ैशन का एकदम साधारण व्यक्ति हूँ। मेरी जीविका का आधार इसी पेरिस शहर के एक स्कूल में इतिहास के अध्यापक का पद है। मैं सिनेमा थियेटर देखने का शौकीन नहीं हूँ, न मेरा कविता में ही मन लगता है। मनोरंजन के लिए मैं कभी-कभी देश-विदेश की क्रान्तियों के इतिहास पढ़ लिया करता हूँ। एक-आध बार मैंने इस विषय पर व्याख्यान भी दिये हैं। इससे अधिक कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि यह विदेश है। जब पढ़ने से मन उकता जाता है, तब कभी-कभी पुराने अस्त्र-शस्त्र के संग्रह में लग जाता हूँ। बड़ी मेहनत से मैंने इनका संग्रह किया है। जिस कटार से सम्राट पीटर ने अपनी प्रेमिकाओं की हत्या की थी, उसकी मूठ मेरे संग्रह में है; जिस प्याले में कैथराइन ने अपने पुत्र को विष दिया था, उसका एक खंड; जिस गोली से एक अज्ञात स्त्री ने आर्क-एंजेल के गर्वनर को मारा था, उसका खाली कारतूस; जिस घोड़े पर सवार होकर नेपोलियन मॉस्को से भागा था, उसकी एक नाल; और नेपोलियन की जैकेट का एक बटन भी मेरे संग्रह में है। ऐसा संग्रह शायद पेरिस में दूसरा नहीं है शायद मॉस्को में भी नहीं था...

पर जो बात मैं कहना चाहता था, उससे भटक गया। हाँ, मैं भावुक प्रकृति का नहीं हूँ। मेरी रुचि इसी संग्रह में या कभी-कभी क्रान्ति सम्बन्धी साहित्य तक परिमित है और इधर-उधर की बात मैं नहीं जानता। फिर भी उस दिन की घटना से मेरे शान्तिमय जीवन में उसी तरह उथल-पुथल मचा गयी, जिस तरह एक उद्यान में झंझावात। उस दिन से न जाने क्यों एक अज्ञात, अस्पष्ट अशान्ति ने मेरे हृदय में घर कर लिया है। जब भी मेरी दृष्टि उस टूटी हुई तलवार पर पड़ती है, एक गम्भीर किन्तु भावातिरेक से कम्पायमान ध्वनि मेरे कानों में गूँज उठती है :

“दीप बुझता है तो धुआँ उठता है। किन्तु जब हमारे विस्तृत देश के भूखे, पीड़ित, अनाश्रित कृषक-कुटुम्ब सड़कों पर भटक-भटककर हेमावृत धरती पर बैठकर अपने भाग्य को कोसने लगते हैं, जब उनके हृदय में सुरक्षित आशा की अन्तिम दीप्ति बुझ जाती है, तब एक आह तक नहीं उठती। न जाने कब तक वह बुझी हुई राख पड़ी रहती है-पड़ी रहेगी! किन्तु किसी दिन, सुदूर भविष्य में, किसी घोर झन्झा से उसमें फिर चिनगारी निकलेगी! उसकी ज्वाला-घोरतम, अनवरुद्ध, प्रदीप्त ज्वाला!-किधर फैलेगी, किसको भस्म करेगी, किन नगरों और प्रान्तों का मानमर्दन करेगी कौन जाने?”

मुझे रोमांच हो आता है, मैं मन्त्रमुग्ध की तरह निश्चेष्ट होकर उस दिन की घटना पर विचार करने लग जाता हूँ...

रात्रि के आठ बज रहे थे। मैं मॉस्कों में अपने कमरे में बैठा लैम्प के प्रकाश में धीरे-धीरे कुछ लिख रहा था। पास में एक छोटी मेज़ पर भोजन के जूठे बर्तन पड़े थे। इधर-उधर दीवार पर टंगी या अंगीठी पर रखी हुई मेरे संग्रह की वस्तुएँ थीं।

बाहर वर्षा हो रही थी। छत पर जो आवाज़ आ रही थी, उसने मैंने अनुमान किया कि ओले भी पड़ रहे हैं किन्तु उस जाड़े में उठकर देखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं थी। कभी-कभी लैम्प के फीके प्रकाश पर खीझने के अतिरिक्त मैं बिलकुल एकाग्र होकर दूसरे दिन पढ़ने के लिए ‘सफल क्रान्ति’ पर एक छोटा-सा निबन्ध लिख रहा था।

‘सफल क्रान्ति क्या है? असंख्य विफल जीवनियों का, असंख्य निष्फल प्रयत्नों का, असंख्य विस्तृत आहुतियों का, अशान्तिपूर्ण किन्तु शान्तिजनक निष्कर्ष!’

(उन दिनों मैं मॉस्को के एक स्कूल में अध्यापक था। वहीं इतिहास पढ़ाने में और कभी-कभी क्रान्ति-विषयक लेख लिखने में तथा पढ़ने में मेरा समय बीत जाता था। क्रान्ति का अर्थ मैं समझता था या नहीं रह नहीं कह सकता। आज मैं क्रान्ति के विषय में अपनी अनभिज्ञता को ही कुछ-कुछ जान पाया हूँ!)

एकाएक किसी ने द्वार खटखटाया। मैंने बैठे-बैठे ही उत्तर दिया, “आ जाओ!” और लिखने में लगा रहा। द्वार खुला और बन्द हो गया। फिर उसी अविरल जलधारी की आवाज़ आने लगी-कमरे में निःस्तब्धता छा गयी। मैंने कुछ विस्मित होकर आँख उठायी और उठाये ही रह गया।

बहुत-मोटा-सा ओवरकोट पहने, सिर पर बड़े-बड़े बालों वाली टोपी रखे, गले में लाल रूमाल बाँधे, दरवाज़े के पास खड़ी एक स्त्री एकटक मेरी ओर देख रही थी। उसके कपड़े भीगे हुए थे, टोपी में कहीं-कहीं एक आध ओला फँस गया था। पैरों में उसने घुटने तक पहुँचने वाले बड़े-बड़े भद्दे रूसी बूट पहन रखे थे, जो कीचड़ में सने हुए थे। ऊपर टोपी और नीचे रूमाल के कारण उसके मुँह का बहुत थोड़ा भाग दीख पड़ता था। इस प्रकार आवृत्त होने पर भी उसके शरीर में एक लचक और साथ ही एक खिंचाव का आभस स्पष्ट होता था, मानों कपड़ों से ढँक कर एक तने हुए धनुष की प्रत्यंचा सामने रख दी गयी हो। आँखें नहीं दीखती थीं किन्तु उन ओठों की पतली रेखा देखने से भावना होती थी कि उसके पीछे विद्युत की चपलता के साथ ही वज्र की कठोरता दबी हुई है...

मैं क्षण-भर उसी की ओर देखता रहा किन्तु वह कुछ बोली नहीं। मैंने ही मौन भंग किया, “कहिए, क्या आज्ञा है?” कोई उत्तर नहीं मिला। मैंने फिर पूछा, “आपका नाम जान सकता हूँ?”

उसने धीरे-धीरे कहा, मानो प्रत्येक शब्द को तौल-तौल कर रखा हो, “मैंने सुना था कि क्रान्तिकारियों से आपको सहानुभूति है और आपने इस विषय पर व्याख्यान भी दिये हैं। इसी सहानुभूति की आशा से आपको पास आयी हूँ।”

मैं काँप गया। मेरी इस सहानुभूति की चर्चा बाहर होती है और क्रान्तिकारियों तक को इसका ज्ञान है फिर मुझमें और क्रान्तिकारियों में भेद क्या है? कहीं यह मॉस्कों के राजनैतिक विभाग की जासूस तो नहीं है? मेरी नौकरी... शायद साइबेरिया की खानों में आयु-भर... पर अगर यह जासूस होती, तो ऐसी दशा में क्यों आती? ऐसे बात क्यों करती? इससे तो साफ़ सन्देह होने लगता है... जासूस होती तो विश्वास उत्पन्न करने की चेष्टा करती... पर क्या जाने, मैं आपका अभिप्राय नहीं समझा!”

वह बोली, ‘मैं क्रान्तिकारिणी हूँ। मुझे अभी कुछ धन की आवश्यकता है। आप दे सकेंगे?”

“किसलिए?”

वह कुछ देर के लिए असमंजस में पड़ गयी, मानो सोच रही हो कि उत्तर देना चाहिए या नहीं। फिर उसने धीरे-धीरे ओवरकोट के बटन खोले और भीतर से एक तलवार - रक्तरंजित तलवार! - निकाली। इतनी देर में उसने आँख पलभर भी मुझ पर से नहीं हटायी। मुझे मालूम हो रहा था, मानो वह मेरे अन्तरतम विचारों को भाँप रही हो। मैं भी मुग्ध होकर देखता रहा...

वह बोली, “यह देखो! जानते हो, यह किस का रक्त है? कर्नल गोरोव्स्की का! और उसकी लोथ उसके घर के बाग़ में पड़ी हुई है!”

मैं भौंचक होकर बोला, “हैं? कब?”

“अभी एक घंटा भी नहीं हुआ। उसी की तलवार, इन हाथों ने उसी के हृदय में भोंक दी। तुम पूछोगे, क्यों? शायद तुम्हें नहीं मालूम कि स्त्री कितना भीषण प्रतिशोध करती है!”

“तुम यहाँ क्यों आयीं?”

“मुझे धन की ज़रूरत है। मॉस्को से भागने के लिए।”

“मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। तुम हत्यारिणी हो।”

वह एका-एक सहम-सी गयी, मानो उसे इस उत्तर की आशा न हो। फिर धीरे-धीरे एक फीकी, विषादमय हँसी हँस कर बोली, “बस, यहीं तक थी तुम्हारी सहानुभूति! इसी क्रान्तिवाद के लिए तुम व्याख्यान देते हो, यही तुम्हारे इतिहासों का निष्कर्ष है!”

“मैं क्रान्तिवादी हूँ पर हत्यारा नहीं हूँ। इस प्रकार की हत्याओं से देश को लाभ नहीं, हानि होगी। सरकार ज्यादा दवाब डालेगी, मार्शल-लॉ जारी होगा, फाँसियाँ होंगी। हमारा क्या लाभ होगा?”

“तुम क्रान्ति को क्या समझते हो, गुड़ियों का खेल!” यह कहती हुई वह मेरी मेज़ के पास आकर खड़ी हो गयी। मेज़ पर पड़े हुए काग़ज़ों को देखकर बोली, “यह क्या, सफल क्रान्ति! असंख्य विफल जीवनियों का... विस्मृत आहुतियों का निष्कर्ष!”

वह ठठाकर हँसी। ‘सफल क्रान्ति! जानते हो, क्रान्ति के लिए कैसी आहुतियाँ देनी पड़ती हैं?”

मैं कुछ उत्तर न दे सका। मैं उसे वह लेख पढ़ते हुए देख कर झेंप रहा था।

वह फिर बोली, “तुम भी अपने आपको क्रान्तिवादी कहते हो, हम भी। किन्तु हमारे आदर्शों में कितना भेद है! तुम चाहते हो, स्वातन्त्र्य के नाम पर विश्व जीत कर उस पर शासन करना, और हम! - हम इसी की चेष्टा में लगे हैं कि अपने हृदय इतने विशाल बन सकें कि विश्व उनमें समा जाय!”

मैंने किसी षड्यन्त्र में भाग नहीं लिया है - क्रान्तिवाद पर लेक्चर देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया है फिर भी मैं अपने सिद्धान्तों पर आक्षेप नहीं सह सका। मैंने तन कर कहा, “तुम झूठ कहती हो। मैं सच्चा साम्यवादी हूँ। मैं चाहता हूँ कि संसार में साम्य हो, शासक और शासित का भेद मिट जाय। लेकिन इस प्रकार हत्या करने से यह कभी सिद्ध नहीं होगा। जिसे तुम क्रान्ति कहती हो, उसके लिए अगर यह करना पड़ता हो, तो मैं उस क्रान्ति का विरोध करूँगा, उसे रोकने का भरसक प्रयत्न करूँगा। इसके लिए अगर प्राण भी-”

“क्रान्ति का विरोध करोगे, उसे रोकोगे तुम? सूर्य उदय होता है, उसको रोकने की चेष्टा की है? समुद्र में प्रलय-लहरी उठती है, उसे रोका है? ज्वालामुखी में विस्फोट होता है; धरती काँपने लगती है, उसे रोका है? क्रान्ति सूर्य से भी अधिक दीप्तिमान, प्रलय से भी अधिक भयंकर, ज्वाला से भी अधिक उत्तप्त, भूकम्प से भी अधिक विदारक है... उसे क्या रोकोगे!”

“शायद न रोक सकूँ। लेकिन मेरा जो कर्त्तव्य है, वह तो पूरा करूँगा।”

“क्या कर्तव्य? लेक्चर झाड़ना?”

“देश में अपने विचारों का निदर्शन, अहिंसात्मक क्रान्ति का प्रचार।’

“अहिंसात्मक क्रान्ति! जो भूखे, नंगे, प्रपीड़ित हैं, उनको जाकर कहोगे, चुप-चाप बिना आह भरे मरते जाओ! रूस की भयंकर सर्दी में बर्फ के नीचे दब जाओ लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि तुम्हारी लोथ किसी भद्र पुरुष के रास्ते में न आ जाय! रोते हुए बच्चों से कहोगे, माता की छातियों की ओर मत देखो, बाहर जाकर मिट्टी-पत्थर खाकर भूख मिटाओ! और अत्याचारी शासक तुम्हारी ओर देखकर मन-ही-मन हँसेंगे, और तुम्हारी अहिंसा की आड़ में निर्धनों का रक्त चूस कर ले जाएँगे! यही है तुम्हारी शान्तिमय क्रान्ति, जिसका तुम्हें इतना अभिमान है।”

“अगर शासक अत्याचार करेंगे, तो उनके विरुद्ध आन्दोलन करना भी तो हमारा धर्म होगा।”

“धर्म?, वही धर्म, जिसे तुम एक स्कूल की नौकरी के लिए बेच खाते हो? वही धर्म, जिसके नाम पर तुम स्कूल में इतिहास पढ़ाते समय इतने झूठ बकते हो?”

मैंने क्रुद्ध होकर कहा, “व्यक्तिगत आक्षेपों से कोई फायदा नहीं है। ऐसे तो मैं पूछ सकता हूँ, तुम्हीं ने कौन बड़ा बलिदान किया है? एक आदमी को मार कर भाग आयीं, यही न?”

मुझे उस पर बड़ा क्रोध आ रहा था। किन्तु जिस तरह वह छाती के बटनखोले हाथ में तलवार लिये, दानवी की तरह खड़ी मेरी ओर देख रही थी, उसे देखकर मेरा साहस ही नहीं पड़ा कि उसे निकाल दूँ! मैं प्रश्न पूछ कर उसकी ओर देखने लगा। मुझे आशा थी कि वह मुझ पर से दृष्टि हटा लेगी, मेरे प्रश्न का उत्तर देते घबराएगी, क्रुद्ध होगी। किन्तु यह सब कुछ भी नहीं हुआ। यह धीरे से काग़ज हटा कर मेरी मेज़ के एक कोने में बैठ गयी और तलवार की नोक मेरी ओर करती हुई बोली, “मैंने क्या किया है, सुनोगे, तुम? मैंने बलिदान कोई बड़ा नहीं किया, लेकिन देखा, बहुत-कुछ है। मेरे पास बहुत समय है - अभी गोरोव्स्की का पता किसी को नहीं लगा होगा। सुनोगे तुम?”

पहले मैंने सोचा, सुनकर क्या करूँगा? अभी लेख लिखना है, कल स्कूल भी जाना होगा, और फिर पुलिस - इसे कह दूँ, चली जाय। लेकिन फिर एक अदाम्य कौतूहल और अपनी हृदयहीनता पर ग्लानि-सी हुई। मैंने उठकर अंगीठी में कोयले हिलाकर आग तेज़ कर दी, एक और कुर्सी उठाकर आग के पास रख दी, और अपनी जगह बैठकर बोला, “हाँ, सुनूँगा। आग के पास उस कुर्सी पर बैठ कर सुनाओ, सर्दी बहुत है।”

वह वहीं बैठी रही, मानो मेरी बात उसने सुनी ही न हो। केवल तलवार एक ओर रखकर, कुछ आगे ओर झुककर आग की ओर देखने लगी। थोड़ी दूर देखकर चौंक कर बोली, “हाँ, सुनो। मैंने घर में आरामकुर्सी पर बैठ कर यन्त्रालयों में पिसते हुए श्रमजीवियों के लिए साम्यवाद पर लेख नहीं लिखे हैं। न मैंने मंच पर खड़े होकर कृषकों को जबानी स्वतन्त्रय-युद्ध की मरीचिका दिखलायी है। मैंने घर-बार, माता-पिता, पति तक को छोड़ कर धक्के ही धक्के खाये हैं। सौभाग्य बेचकर अपने विश्वास की रक्षा की है। स्वत्व बचाने के लिए पिता की हत्या की है। और - और अपना स्त्री-रूप बेचकर देश के लिए भिक्षा माँगी है - और आज फिर माँगने निकली हूँ।”

मेरे मुँह से अकस्मात् निकल गया, “किससे?”

इस प्रश्न से मानो उसकी विचार-शृंखला टूट गयी। तलवार की ओर देखती हुई बोली, “यह फिर बताऊँगी - वह मेरे अन्तिम - मेरे एकमात्र बलिदान की कहानी है।”

विश्वास और स्वत्व की रक्षा - पिता की हत्या - मुझे कुछ भी समझ नहीं आया।

“मेरे पिता पीटर्सबर्ग में पुलिस-विभाग के सदस्य थे। मेरे पति भी वहाँ राज नैतिक विभाग में काम करते थे। कुटुम्ब में, वंश में एक मैं ही थी जिसने क्रान्ति का आह्वान सुना... फिर भी, कितने विरोध का सामना करना पड़ा! पहले-पहले जब मैं क्रान्तिदल में आयी, तो लेाग मुझ पर सन्देह करने लग गये। न जाने किस अज्ञात शत्रु ने उनसे कह दिया, इसका पिता पुलिस में है, पति राजनैतिक विभाग में, इससे विनाश के अतिरिक्त और क्या आशा हो सकती है? मैंने देखा, इतनी कामना, इतनी सदिच्छा होते हुए भी मैं अनादृता, परित्यक्ता-सी हूँ... मेरे पति को भी मेरी वृत्तियों का पता लगा। फलस्वरूप एक दिन मैं चुपचाप घर से निकल गयी- उन्हें भी नौकरी छिन जाने का डर था! उसके बाद - उसके बाद मेरी परीक्षा का प्रश्न उठा! पति को छोड़ देने पर भी मुझे सदस्य नहीं बनाया गया - परीक्षा देने को कहा गया। कितनी भयंकर थी वह!”

क्षण-भर आग की ओर देखने के बाद फिर उसने कहना शुरू कियाः ‘मैं और चार और व्यक्ति पिस्तौल लेकर एक दिन सायंकाल को निकोलस पार्क में बैठ गये। उस दिन उधर से पीटर्सबर्ग की पुलिस दो बन्दियों को लेकर जाने वाली थी। इसी पर वार करके बन्दियों को छुड़ाने का काम हमारे सुपुर्द हुआ था। यही मेरी परीक्षा थी!

“हम रात तक वहीं बैठे रहे। नौ बजे के लगभग पुलिस के बूटों की आहट आयी। हम सावधान हो गये। किसी ने पूछा, ‘कौन बैठा है?’ हमने उत्तर नहीं दिया, गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं। दो मिनट के अन्दर निर्णय हो गया-हमारे तीन आदमी खेत रहे, पर हमें सफलता प्राप्त हुई। बन्दी मुक्त हो गये। हम चारों शीघ्रता से पार्क से निकल कर अलग हो गये।”

मैं बहुत ध्यान से सुन रहा था। ऐसी कहानी मैंने कभी नहीं सुनी थी-पढ़ी भी नहीं थी... मैंने व्यग्रता से पूछा, “फिर?”

“दूसरे दिन-दूसरे दिन मॉस्की में अखबार में पढ़ा, बन्दियों को लेकर जाने वाले अफसर थे -मेरे पिता!”

उस छोटे-से कमरे में फिर सन्नाटा छा गया। वर्षा अब भी हो रही थी। मैं विमनस्क-सा होकर छत पर पड़ रही बूँदें गिनने की चेष्टा करने लगा।

उसने पूछा, “और कुछ भी सुनोगे?”

“मैंने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “मैंने तुम लोगों पर अन्याय किया है। वास्तव में तुम्हें बहुत उत्सर्ग करना पड़ता है। मैं अभी तक नहीं जान पाया था।”

“हाँ, यह स्वाभाविक है। एक अकेले व्यक्ति की व्यथा, एक आदमी का दुख हम समझ सकते हैं। एक प्राणी को पीड़ित देखकर हमारे हृदय में सहानुभूति जगती है-एक हूक-सी उठती है... किन्तु जाति, देश, राष्ट्र! कितना विराट होता है! इसकी व्यथा, इसके दुख से असंख्य व्यक्ति एक साथ ही पीड़ित होते हैं इसमें इतनी विशालता, इतनी भव्यता है कि हम यही नहीं समझ पाते कि व्यथा कहाँ हो रही है, हो भी रही है या नहीं।”

“ठीक है। तुम्हें बहुत दुख झेलने पड़ते हैं। किन्तु इस प्रकार अकारण दुख झेलना चाहे कितनी ही धीरता से झेला जाय, बुद्धिमत्ता तो नहीं है।”

“हमारे दुख प्रसव-वेदना की तरह हैं, इसके बाद ही क्रान्ति का जन्म होगा। इसके बिना क्रान्ति की चेष्टा करना, क्रान्ति से फल-प्राप्ति की आशा करना विडम्बना-मात्र है।”

“लेकिन हर आन्दोलन किसी निर्धारित पथ पर ही चलता है, ऐसे तो नहीं बढ़ता?”

“क्रान्ति आन्दोलन नहीं है।”

“सुधार करने के लिए भी तो कोई आदर्श सामने रखना होता है?”

“क्रान्ति सुधार नहीं है।”

“न सही। परिवर्तन ही सही। लेकिन परिवर्तन का भी तो ध्येय होता है!”

“क्रान्ति परिवर्तन भी नहीं है।”

मैंने सोचा, पूछूँ तो फिर क्रान्ति है क्या? किन्तु मैं बिना पूछे उसके मुख की ओर देखने लग गया। वह स्वयं बोली, “क्रान्ति आन्दोलन, सुधार परिवर्तन कुछ भी नहीं है; क्रान्ति है विश्वासों का, रूढ़ियों का, शासन की और विचार की प्रणालियों का घातक, विनाशकारी, भयंकर विस्फोट! इसका न आदर्श है, न ध्येय, न धुर। क्रान्ति विपथगा, विध्वंसिनी है, विदग्ध कारिणी है!”

“ये तो सब बातें है। कवियों वाला शब्द-विन्यास है। ऐसी क्रान्ति करके क्या मिलेगा।”

वह हँसने लगी। “क्रान्ति से क्या मिलेगा? कुछ नहीं। जो कुछ है, शायद वह भी भस्म हो जाएगा। पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि क्रान्ति का विरोध करना चाहिए। हमें इस बात का ध्यान भी नहीं करना चाहिए कि हमें क्रान्ति करके क्या मिलेगा।”

“क्यों!”

“कोढ़ का रोगी जब डॉक्टर के पास जाता है, तो यही कहता है कि मेरा रोग छुड़ा दो। यह नहीं पूछता कि इस रोग को दूर करके इसके बदले मुझे क्या दोगे! क्रान्ति एक भयंकर औषध है, यह कड़वी है, पीड़ाजनक है, जलाने वाली है, किन्तु है औषध। रोग को मार अवश्य भगाती है। किन्तु इसके बाद, स्वास्थ्य-प्राप्ति के लिए जिस पथ्य की आवश्यकता है, वह इसमें खोजने पर निराशा ही होगी, इसके लिए क्रान्ति को दोष देना मूर्खता है।”

मैं निरुत्तर हो गया। चुपचाप उसके मुख की ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद बोला, “एक बात पूछूँ?”

“क्या!”

“तुम्हारा नाम क्या है?”

“क्यों?”

“यों ही। कौतूहल है।”

“पिता ने जो नाम दिया था, वह उस दिन छूट गया, जिस दिन विवाह हुआ। पति ने जो नाम दिया था, उसे मैं आज भूल गयी हूँ, अब मेरा नाम मेरिया इवानोवना है।”

कुछ देर हम फिर चुप रहे। मैंने तलवार की ओर देखते हुए पूछा, “यह-यह कैसे हुआ?”

उसके उन विचित्र नील नेत्रों की सुषुप्त ज्वाला फिर जाग उठी। वह अपने हाथों की ओर देखती हुई बोली, “वह बहुत वीभत्स कहानी है।” फिर - आप-ही-आप, “नहीं रक्त नहीं लगा है।”

कौतूहल होते हुए भी नहीं आग्रह नहीं किया। इतनी देर में मैं कुछ-कुछ समझने लगा था कि इस स्त्री (या दानवी?) से अनुनय-विनय करना व्यर्थ है, इस पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। मैं चुपचाप। इसी आशा में बैठा रहा कि शायद वह स्वयं की कुछ कह दे। मुझे निराश भी नहीं होना पड़ा।

वह आग की ओर देखती हुई धीरे-धीरे बोली, “तो सुनो! आज जो-कुछ मैं कर रही हूँ, वह मैंने कभी किसी से नहीं कहा, शायद अब किसी से कहूँगी भी नहीं। जब मैं तुम्हारा पता पूछकर यहाँ आयी, तब मुझे ज़रा भी खयाल नहीं था कि तुमसे कुछ भी बात करूँगी। केवल धन माँगकर चले जाने की इच्छा से आयी थी। अब - मेरा खयाल बदल गया है। मुझे धन नहीं चाहिए। मैं-”

“क्यों?”

“मैं अपना काम करके मॉस्को से भाग जाना चाहती थी। किन्तु अब नहीं भागूँगी।”

“और क्या करोगी?”

“अभी एक काम बाक़ी है। एक बार और भिक्षा माँगनी है। उसके बा - “वह एका-एक रुक गयी। फिर तलवार की धार पर तर्जनी फेरती हुई आप-ही-आप बोली, “कितनी तीक्ष्ण धार है यह!”

मैंने साहस करके पूछा, “भिक्षा की बात, तुमने पहले भी कही थी, और बलिदान की भी। मैं कुछ समझ नहीं पाया था।”

“अब कहने लगी हूँ, तो सब-कुछ कहूँगी। अब लज्जा के लिए स्थान नहीं रह गया है। स्त्रीत्व तो पहले ही खो दिया था, आज मानवता भी चली गयी! और फिर - आज के बाद - सब-कुछ एक हो जाएगा। पर तुम चुपचाप सुनते जाओ, बीच में रोकना नहीं।”

मैं प्रतीक्षा में बैठा रहा। वह इस तरह निरीह होकर कहानी कहने लगी, मानो स्वप्न में कह रही हो-मानो मशीन से ध्वनि निकल रही हो।

“तुमने माइकेल क्रेस्की का नाम सुना है?”

“वही जो पीटर्सबर्ग में पुलिस के तीन अफ़सरों को मार कर लापता हो गये थे?”

“हाँ, वही। वह हमारी संस्था के प्रधान थे।” यह कहकर उसने मेरी ओर देखा। मैं कुछ नहीं बोला, किन्तु मेरे मुख पर विस्मय का भाव उसने स्पष्ट देखा होगा। वह फिर कहने लगी, “वह कल यहीं मॉस्की में गिरफ्तार हो गये हैं।”

क्षण-भर निःस्तब्धता रही।

“पर उनको गिरफ्तार करके ले जाने पर भी पुलिस को यह नहीं पता लगा कि वह कौन है? वह इसी सन्देह पर गिरफ्तार किये गये थे शायद क्रान्तिकारी हों। मुझे इस बात की खबर मिली, तो मैंने निश्चय किया कि जाकर पता लगाऊँ। मैं यह साधारण गँवार स्त्री की पोशाक पहनकर पुलिस विभाग के दफ़्तर में गयी। वहाँ जाकर मैंने अपना परिचय यही दिया कि मैं उनकी बहिन हूँ, गाँव से उन्हें लेने आयी हूँ! तब तक पुलिस को उन पर कोई सन्देह नहीं हुआ था। लेकिन इधर-उधर से - पीटर्सबर्ग से भी - पूछताछ हो रही थी।

“पहले तो मैंने सोचा कि पीटर्सबर्ग से अपने साथियों को बुला भेजूँ, उनसे मिलकर उन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करूँ। लेकिन इसके लिए समय नहीं था - न जाने कब उन्हें पीटर्सबर्ग से उत्तर आ जाय! मैं अकेली सिवाय अनुनय-विनय के कुछ नहीं कर सकती थी... उफ़्! अपनी अशक्तता पर कितना क्रोध आता था! मैं दाँत पीसकर रही गयी... जब तक ऐसे समय में अपनी असमर्थता, निस्सहायता का अनुभव नहीं होता, तब तक क्रान्ति की आवश्यकता भी पूरी तरह से नहीं समझ आ सकती।”

मेरी ओर देख और मुझे ध्यान से सुनता पाकर वह बोलीः

“फिर - फिर मैंने सोचा, जो कुछ मैं अकेले कर सकती हूँ, वह करना ही होगा! अगर गिड़गिड़ाने से उन्हें छुड़ा सकूँ तो यह करना होगा, चाहे बाद में मुझे फाँसी पर भी लटकना पड़े! मैंने निश्चय कर लिया - मेरी हिचकिचाहट दूर हो गयी। कल ही शाम को मैं जनरल कोल्पिन के बँगले पर गयी। उस समय वहाँ कर्नल गोरोव्स्की भी मौजूद था। पहले तो मुझे अन्दर जाना ही नहीं मिला, दरबान ने जो कुछ मेरे पास था, तलाशी में निकालकर रख लिया। बहुत गिड़गिड़ा कर मैं अन्दर जा पायी!

“पहले जनरल कोल्पिन ने मुझे देखकर डाँट दिया। फिर न जाने क्या सोच कर बोला, “क्यों, क्या बात है?’ मैंने अपनी गढ़ी हुई कहानी कह सुनायी कि मेरा भाई निर्दोष था, पुलिस ने यों ही उसे पकड़ लिया। जनरल साहब बहुत बड़े आदमी हैं, सब कुछ उनके हाथ में है, जिसे चाहे उसे छोड़ सकते हैं... मैं उसके आगे रोयी भी, उसके पैर भी पकड़े - उसके, जिसकी मैं ज़बान खींच लेती!

“वह चुपचाप सुनता रहा। जब मैं कह चुकी तब भी कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद उसने आँख से गोरोव्स्की को इशारा किया। कुछ कानाफूसी हुई। गोरोव्स्की ने मुझे कहा, ‘इधर आओ, तुमसे कुछ बात करनी है।’ मैं उसके साथ दूसरे कमरे में चली गयी। वहाँ जाकर वह बोला, ‘देखो, अभी सब-कुछ हमारे हाथ में है, पर कल के बाद नहीं रहेगा।’ हमें उसे अदालत में ले जाना होगा।”

फिर-

“यह कहकर वह चुप हो गया। मैंने कहा, ‘आप मालिक हैं, जैसा कहेंगे मैं करूँगी।’ वह बोला, ‘जनरल साहब तुम्हारे भाई पर दया करने को तैयार हैं - एक शर्त पर।’ मैंने उत्सुक होकर पूछा, ‘क्या?’ वह मेरे बहुत पास आ गया। फिर धीरे-धीरे बोला, ‘मेरिया इवानोवना, तुम अपूर्व सुन्दरी हो’...”

वह बोलते-बोलते चुप हो गयी। मैंने सिर उठाकर उसकी ओर देखा, उसकी आँखें विचित्र ज्योति से चमक रही थीं। वह एका-एक मेज पर से उठकर मेरे सामने खड़ी हो गयी। बोली, “जानते हो, उसकी क्या शर्त थी? जानते हो? ऐेसी शर्त तुम्हें स्वप्न में भी न सूझेगी... यही एक शर्त थी, यही एकमात्र बलिदान था, जिसके लिए मैं तैयार होकर नहीं गयी थी...”

वह फिर चुप हो गयी। दोनों हाथों से अपनी कमीज़ का कॉलर और गले का रूमाल पकड़कर कुछ देर मेरी ओर देखती रही। फिर एका-एक झटका देकर कमीज़ और रूमाल फाड़ती हुई बोली, “देखो, अध्यापक! ऐसा सौन्दर्य तुमने कभी देखा है?”

“उसका मुख जो कि रूमाल और टोपी से ढ़का हुआ था, अब एकदम स्पष्ट दीख रहा था। उसके नीचे उसका गला और वक्ष खुला हुआ था... उसका वह अपूर्व लावण्य, वह प्रस्फुटित सौन्दर्य, अधरों पर दबी हुई विषादयुक्त मुस्कान, हेमवर्ण कंठ और वक्ष... ऐसा अनुपम सौन्दर्य सचमुच मैंने पहले नहीं देखा था... मेरे शरीर में बिजली दौड़ गयी - फिर मैंने दृष्टि फेर ली...

किन्तु उसकी वह आँखें-विस्फारित, निर्निमेष... उनका वह तुषारकणों की तरह शीतल प्रदीपन... उनमें विराग, क्रोध, करुणा, व्यथा की अनुपस्थिति... वह शुक्रतारे की हरित ज्योति...!

“यह है बलि! यह स्त्री का रूप है माइकेल क्रेस्की की मुक्ति का मूल्य!”

मैंने चाहा, कुछ कहूँ, चिल्लाऊँ, पर बहुत चेष्टा करने पर भी आवाज़ नहीं निकली!

उसने, उस नर-पिशाच गोरोव्स्की ने, मेरे पास आकर कहा, ‘मेरिया इबानोवना, तुम अपूर्व सुन्दरी हो - तुम्हारी लिए अपने भाई को छुड़ा लेना साधारण-सी बात है... मुझ पर मानो बिजली गिरी। क्षण-भर मुझे इस शर्त का पूरा अभिप्राय भी न समझ आया। फिर समुद्र की लहरों की तरह मेरे हृदय में क्रोध उमड़ आया। मेरा मुख लाल हो गया। मैंने कहा, ‘पापी! कुत्ते!’ और तीव्र गति से बाहर निकल गयी। किन्तु पछे उसकी हँसी और ये शब्द सुनीयी पड़े - ‘कल शाम तक प्रतीक्षा है, उसके बाद-

“बाहर ठंडी हवा में आकर मेरी सुध कुछ ठिकाने आयी। मैं शान्त होकर सोचने लगी, मेरा कर्त्तव्य क्या है? माइकेल क्रेस्की का गौरव अधिक है या... उन्हें मर जाने दूँ? कभी नहीं! छुड़ाऊँ तो कैसे? इसी आशा में बैठी रहूँ कि शायद पुलिस को पता न लगे? प्रतारणा! कहीं वे उन्हें पहचान गये तो...! पीटर्सबर्ग से किसी को बुलाऊँ? पर उसके लिए समय कहाँ है! अकेली क्या करूँगी? वह शर्त...!

“प्रधान, हमारा कार्य, देश, राष्ट्र! इसके विरुद्ध क्या है? एक स्त्री का सतीत्व...! मैंने निर्णय कर लिया। शायद मुझसे गलती हुई; शादय इस निर्णय के लिए संसार, मेरे अपने क्रान्तिवादी बन्धु, मेरे नाम पर थूकेंगे; शायद मुझे नरक की यातना भोगनी पड़ेगी... पर जो यातना मेरे निर्णय करने में सही है, उससे अधिक नरक में भी क्या होगा?”

वह फिर ठहर गयी। अबकी बार मुझसे नहीं रहा गया। मैंने अत्यन्त व्यग्रता से पूछा, “क्या निर्णय किया है?”

“अभी यहीं से जनरल क्रोल्पिन के घर जाऊँगी। पर सुनो, अभी मेरी कहानी समाप्त नहीं हुई। आज छः बजे मैं कर्नल गोरोव्स्की के घर गयी। मेरे आते ही वह हँसकर बोला, ‘मेरिया, तुम जितनी सुन्दर हो, उतनी ही बुद्धिमती भी हो। इज्ज़त तो बार-बार बिगड़कर भी बन जाती है, भाई बार-बार नहीं मिलते!’ मैंने सिर झुकाकर कहा, ‘हाँ, आप साहब से कहला भेजें कि मुझे उनकी शर्त मंजूर है’।”

“वह उस समय वर्दी उतार कर रख रहा था। बोला, “तुम यहीं ठहरो, मैं टेलीफ़ोन पर कहे देता हूँ।’ वह कोने में टेलीफ़ोन पर बात करने लगा। उसकी पीठ मेरी ओर थी। मुझे एका-एक कुछ सूझा... मैंने म्यान में से उसकी तलवार निकाल ली - दबे-पाँव जाकर उसके पीछे खड़ी हो गयी। टेलीफ़ोन पर बातचीत हो चुकी - गोरोव्स्की उसे बन्द करके घूमने को ही था कि मैंने तलवार उसकी पीठ में भोंक दी! उसने आह तक नहीं की - अनाज की बोरी की तरह भूमि पर बैठ गया। फिर मैंने उसकी लोथ उठाकर खिड़की से बाहर डाल दी और भाग निकली!”

मैंने पूछा, “तुम्हारे इन हाथों में इतनी शक्ति!”

वह हँस पड़ी, बोली, “मैं क्रान्तिकारिणी हूँ - यह देखो!”

उसने तलवार उठाई, एक हाथ से मूठ और दूसरे से नोक थामकर बोली, “यह देखो!” देखते-देखते उसने उसे चपटी ओर से घुटने पर मारा - तलवार दो टूक हो गयी! उसने वे दोनों टुकड़े मेरी मेज़ पर रख दिये।

मैंने पूछा, “अब-अब क्या करोगी?”

“अब कोल्पिन के यहाँ जाऊँगी। क्रेस्की को छुड़ाऊँगी। उसके बाद? उसके बाद-”

उसने अपनी जेब में हाथ डालकर एक छोटा-सा रिवाल्वर निकाला। “यह भी गोराव्स्की के यहाँ से मिल गया।”

“पर - इसका क्या करोगी?”

“प्रयोग!” कहकर उसने उसे छिपा लिया।

इसके बाद शायद चार-पाँच मिनट फिर कोई न बोला। मैंने उसकी सारी कहानी का मन-ही-मन सिंहावलोकन किया। उसमें कितनी वीभत्सता, कितनी करुणा थी! और उसका दोष क्या था? केवल इतना ही कि वह क्रान्तिकारी थी! एका-एक मुझे एक बात याद आ गयी! मैंने पूछा, “तुमने कहा था कि तुमने पहले भी भिक्षा माँगी थी - इसी प्रकार की। वह क्या बात थी बताओगी?”

वह अब तक खड़ी थी, अब फिर मेज़ पर बैठ गयी। बोली, “वह पुरानी बात है। उन दिनों की, जब मैं पीटर्सबर्ग से भागी थी। अकेली नहीं, साथ में एक लड़की भी थी - तुमने पॉलिना का नाम सुना है?”

“हाँ, सुना तो है। इस समय याद नहीं आ रहा कि कहाँ।”

“वह नोव्गोरोड में पकड़ी गयी थी - वेश्याओं की गली में - और गोली से उड़ा दी गयी थी।”

“हाँ, मुझे याद आ गया। उसके बाद बहुत शोर भी मचा था कि यह क्यों हुआ, लेकिन कुछ पता नहीं लगा।”

“हाँ। उस दिन मैं भी नोव्गोरोड में थी - उसी घर में! हम दोनों वहाँ रहती थीं। एक वेश्या के यहाँ ही। वहीं, नित्य-प्रति रात को लोग आते थे, हमारे शरीरों को देखते थे, गन्दे संकेत करते थे, और हम बैठी सब-कुछ देखा करती थीं वहाँ, जब चूसे हुए नींबू की तरह बीमारियों से घुले हुए वे पूँजीपति साफ़-साफ़ कपड़े पहनकर इठलाते हुए आते थे-उफ़्! जिसने वह नहीं देखा, वह पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का दूरव्यापी परिणाम नहीं समझ सकता! धन के आधिक्य से ही कितनी बुराइयाँ समाज में आ जाती हैं इसको जानने के लिए वह देखना जरूरी है!

“फिर वे आसपास की कोठरियों में चले जाते थे... किसी-किसी में अन्धेरा हो जाता था... फिर...”

थोड़ी देर वह चुप रही। फिर बोली, “कभी-कभी उनमें एक-आध नवयुवक भी आता था-शान्त, सुन्दर, सुडौल...उनके आने पर वह घर और उसमें रहने वाले-कितने विद्रूप, कितने वीभत्स मालूम होने लगते थे...किन्तु शायद अगर वे न आते, तो हमारी वहीं मृत्यु हो जाती-इतना ग्लानियम दृश्य था वह!

“यही थे हमारे सहायक, हमारे सहकारी... हमें पीटर्सबर्ग से जो ऐलान बाँटने के लिए आते थे, वे हम इन्हें दे देती थीं - ये उन्हें बाँट आते थे। नोव्गोरोड़ में हमने अपनी संस्था की शाखा इसी तरह बनायी। फिर नोव्रोगोड से आर्कएंजेल, फिर जेरोस्लावल, फिर पीटर्सबर्ग और फिर वापस नोव्रोगोड... आर्कएंजेल में तीन गर्वनरों की हत्या हुई; जेरोस्लावल में राजकर्मचारियों के घर जला दिये गये, नोव्गोरोड में पुलिस के कई अफ़सर मारे गये। फिर-पॉलिना पकड़ी गयी, और मैं मॉस्को में आ गयी...”

“पर वह पकड़ी कैसे गयी?”

“वे मुहल्ले जिनमें रहते थे, रात ही को खुलते थे... दिन में वे वैसे ही पड़े रहते थे, जैसे विस्फोट के बाद ज्वालामुखी का फटा हुआ शिखर... पर उस दिन ज़रूरी काम था-पॉलिना मोटा-सा कोट पहन, मुँह ढँककर बाहर निकली। उसकी जेब में कुछ पत्र थे और एक पिस्तौल, वह पत्र पहुँचाने जा रही थी। इसी समय-”

घड़ी में टन्! टन्! ग्यारह बज गये। वह चौंककर उठी और बो..., “बहुत देर हो गयी-अब मैं जाती हूँ।”

“कहाँ?”

“कोल्पिन के यहाँ - अन्तिम भिक्षा माँगने।”

उसने शीघ्रता से अपने कोट के बटन बन्द किये और उठ खड़ी हुई। मैं भी खड़ा हो गया।

मैंने रुक-रुककर कहा, “स्वातन्त्र्य-युद्ध में बहुत सिरों की बलि देनी पड़ती है।” मानो मैं अपने आपको ही समझा रहा होऊँ।

वह बोली, “ऐसे स्वातन्त्रय-युद्ध में सिर अधिक टूटते हैं या हृदय-कौन कह सकता है?”

“मैं चुप होकर खड़ा रहा। वह कुछ हँसी, फिर बोली, “जीवन कैसा विचित्र है, जानते हो अध्यापक? मैं आयी थी धन लेकर विलुप्त हो जाने और चली हूँ, स्मृति-स्वरूप वह बोकर - वह अशान्ति का बीज!”

जिधर उसने संकेत किया था, मैं उधर देखता ही रह गया। लैम्प और आग के प्रकाश में लाल-लाल चमक रहा था - उस टूटी हुई तलवार की मूठ!

सहसा किवाड़ खुलकर बन्द हो गया। मेरा स्वप्न टूट गया - मैंने आँख उठा कर देखा।

वर्षा अब भी हो रही थी - ओले भी पड़ रहे थे। किन्तु वह - वहाँ नहीं थी। था अकेला मैं -और वह शान्ति का बीज!

वह बीज कैसे प्रस्फुटित हुआ, यह फिर कहूँगा। अभी उस दिन की घटना पूरी कहनी है।

‘वह चली गयी। पर मैं फिर अपना लेख नहीं लिख सका... एक बार मैंने काग़जों की ओर देखा, ‘सफल क्रान्ति!’ दो शब्द मेरी ओर देखकर हँस रहे थे... विस्मृत आहुतियों का शान्ति-जनक निष्कर्ष!’ प्रवंचना! मैंने वे काग़ज़ फाड़कर आग में डाल दिये। फिर भी शान्ति नहीं मिली।। मैं सोचने लगा, इसके बाद वह क्या करेगी? कोल्पिन के घर में... माइकेल क्रेस्की तो शायद मुक्त हो जाएंगे... किन्तु उसके बाद?

उस उद्धार के फलस्वरूप, आनन्द, उल्लास, गौरव-कहाँ होंगे? वहाँ होगी व्यथा, प्रज्वलन, पशुता का तांडव! जहाँ स्वतन्त्रता का उद्दाम आह्वान होना चाहिए, वहाँ क्या होगा? एक स्त्री-हृदय के टूटने की धीमी आवाज!

मैंने जाकर लैम्प बुझा दिया। कमरे में अँधेरा छा गया केवल कहीं-कहीं अंगीठी की आग में लाल-लाल प्रकाश पड़ने लगा और उसमें कुर्सी की टाँगों की छाया एक विचित्र नृत्य करने लगी! मैं उसे देखते-देखते फिर सोचने लगा-इसी समय कोल्पिन के घर में न जाने क्या हो रहा होगा... मेरिया वहाँ पहुँच गयी होगी... शायद अब तक क्रेस्की मॉस्को की किसी गली में छिपने के लिए चल पड़े हों... वह क्या सोचते होंगे कि उनका उद्धार कैसे हुआ? मेरिया की बात उन्हें मालूम होगी? शायद वहाँ उनका मिलन हो जाय-किन्तु कोल्पिन क्यों होने देगा? मेरिया के बलिदान की बात शायद कोई न जान पाएगा - किसी को भी मालूम नहीं होगा... असीम समुद्र में बहते हुए एका-एक बुझ जानेवाले दीप की तरह उसकी कथा वहीं समाप्त हो जाएगी - और मैं उसका नाम तक नहीं जान पाऊँगा! कैसी विडम्बना है यह!

घड़ी में बारह बजे। मैं चौंका एक अत्यन्त वीभत्स दृश्य मेरी आँखों के आगे नाच गया। कोल्पिन और मेरिया... उस दृश्य के विचार को भी मैं नहीं सह सका! मैंने उठकर किवाड़ खोल दिये और दरवाज़े के बीच में खड़ा होकर वर्षा को देखने लगा। कभी-कभी एक-आध ओला मेरे ऊपर पड़ जाता था, किन्तु मुझे उसका ध्यान भी नहीं हुआ। मैं आँखें फाड़कर रात्रि के अन्धकार में वर्षा की बूँद देखने की चेष्टा कर रहा था...

पूर्व में जब धुँधला-सा प्रकाश हो गया, कब मेरा वह जाग्रत स्वप्न टूटा। तब मुझे ज्ञान हुआ कि मेरे हाथ-पैर सर्दी से संज्ञा-शून्य हो गये हैं। मैंने मानो वर्षा से कहा, ‘वहाँ जो कुछ होना था, अब तक हो चुका होगा।’ फिर मैं किवाड़ बन्द कर अन्दर जाकर लेट गया और अपने ठिठुरे हुए अंगों को गर्मी पहुँचाने के लिए कम्बल लपेटकर पड़ रहा...

उस दिन की घटना यहीं समाप्त होती है; पर उसके बाद एक-दो घटनाएँ और हुई, जिनका इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह भी यहीं कहूँगा।

इसके दूसरे दिन मैंने पढ़ा, “कल रात को जनरल कोल्पिन और कर्नल गोराव्स्की दोनों अपने घरों में मारे गये। जनरल कोल्पिन की हत्या एक स्त्री ने रिवाल्वर से की। उनको मारने के बाद उसने रिवाल्वर से आत्मघात कर लिया। कर्नल गोरोव्स्की घर में तलवार से मरे पाए गये। कहा जाता है कि उनकी अपनी तलवार और रिवाल्वर दोनों गायब हैं। जिस रिवाल्वर से जनरल कोल्पिन की हत्या की गयी, उस पर गोरोव्स्की और कोल्पिन की घातक यही स्त्री है। पुलिस जोरों से अनुसन्धान कर रही है, लेकिन अभी इसके रहस्य का कुछ पता नहीं लगा है।”

क्रेस्की का कहीं नाम भी नहीं था।

यह रहस्य आज भी नहीं खुला। हाँ, उसके कुछ दिन बाद मैंने सुना कि माइकेल क्रेस्की पीटर्सबर्ग के पास पुलिस से लड़ते हुए मारे गये...

वह रहस्य दबा ही रह गया। शायद माइकेल क्रेस्की को स्वयं भी कभी यह नहीं ज्ञात हुआ कि वे मॉस्को से उस दिन आधी रात के समय क्यों एका-एक छोड़ दिए गये...

किन्तु अशान्ति का जो बीज मेरे हृदय में बोया था, वह नहीं दब सका। जिस दिन मैंने सुना कि माइकेल क्रेस्की मारे गये, उस दिन मेरी धमनियों में रूसी रक्त खोल उठा... क्रेस्की के कारण नहीं, किन्तु मेरिया के शब्दों की स्मृति के कारण। मैनें अपने स्कूल में एक व्याख्यान दिया, जिसमें जीवन में पहली बार विशुद्ध हृदय से मैंने क्रान्ति का समर्थन किया था...

इसके बाद मुझे रूस से निर्वासित कर दिया गया, क्योंकि क्रान्ति के पोषकों के लिए रूस में स्थान नहीं था!

आज मैं पेरिस में रहता हूँ। मॉस्को की तरह अब भी मैं अध्यापन का काम कर रहा हूँ, किन्तु अब उसमें मेरी रुचि नहीं है। आज भी मैं क्रान्ति-विषयक पुस्तकों का अध्ययन करता हूँ, किन्तु अब पढ़ते समय मेरा ध्यान अपनी अनभिज्ञता की ओर ही रहता है। आज भी मेरा वह संग्रह उसी भाँति पड़ा है, किन्तु अब उसकी सबसे अमूल्य वस्तु है वह टूटी हुई तलवार! हाँ, अब मैंने व्याख्यान देना छोड़ दिया है - अब एक विचित्र विषादमय अशान्ति, एक विक्षोभमय ग्लानि, मेरे हृदय में घर किये रहती है...

ज्वालामुखी से आग निकलती है और बुझ जाती है, किन्तु जमे हुए लावा के काले-काले पत्थर पड़े रह जाते हैं। आँधी आती है और चली जाती है, किन्तु वृक्षों की टूटी हुई शाखें सूखती रहती हैं। नदी में पानी चढ़ता है और उतर जाता है, किन्तु उसके प्रवाह से एकत्रित घास-फूस, लकड़ी किनारे पर सड़ती रह जाती है। वह टूटी तलवार उसके आवागमन का स्मृतिचिह्न है। जब भी इस ओर देखता हूँ, दो धधकते हुए निर्निमेष वृत्त मेरे आगे जा जाते हैं, मैं सहसा पूछ बैठता हूँ, मेरिया, इवानोव्ना, तुम मानवी थीं या दानवी, या स्वर्ग-भ्रष्टा विपथगा देवी?”

(दिल्ली जेल, सितम्बर 1931)
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Saturday 14 January 2017

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सदा चांदनी | बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' | कविता | Sada Chandani | Bal Krishan Sharma 'Naveen' | Hindi Poem

कवि कारावास में बंद है | कारावास के आँगन में चांदनी आ जाती जो उसे रोमांचित करती है |.....

                                                      













कुछ धूमिल-सी कुछ उज्ज्वल-सी झिलमिल शिशिर-चाँदनी छाई
मेरे कारा के आँगन में उमड़ पड़ी यह अमल जुन्हाई।

अरे आज चाँदी बरसी है मेरे इस सूने आँगन में
जिससे चमक आ गई है इन मेरे भूलुंठित कण-कण में
उठ आई है एक पुलक मृदु मुझ बंदी के भी तन-मन में
भावों की स्वप्निल फुहियों में मेरी भी कल्पना नहाई,

मैं हूँ बंद सात तालों में किंतु मुक्त है चंद्र गगन में
मुक्ति बह रही है क्षण-क्षण इस मंद प्रवाहित शिशर-व्यजन में
और कहाँ कब मानी मैंने बंधन-सीमा अपने मन में!
जन-जन-गण का मुक्ति-संदेसा ले आई चंद्रिका-जुन्हाई!

मैं निज काल कोठरी में हूँ औ' चाँदनी खिली है बाहर
इधर अंधेरा फैल रहा है फैला उधर प्रकाश अमाहर
क्यों मानूँ कि ध्वान्त अविजित जब है विस्तृत गगन उजागर
लो मेरे खपरैलों से भी एक किरण हँसती छन आई!

मास वर्ष की गिनती क्यों हो वहाँ जहाँ मन्वंतर जूझें
युग परिवर्तन करने वाले जीवन वर्षों को क्यों बूझें
हम विद्रोही, कहो हमें क्यों अपने मग के कंटक सूझें
हमको चलना है, हमको क्या, हो अंधियारी या कि जुन्हाई!
कुछ धूमिल-सी कुछ उज्ज्वल-सी हिय में सदा चाँदनी छाई!
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Friday 13 January 2017

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गेहूँ और गुलाब | रामवृक्ष बेनीपुरी | हिंदी लेख | Gehu aur Gulab | Ramvirksh Benipuri | Hindi lekh |

इस लेख में रामवृक्ष बेनीपुरी ही यह विमर्श कर रहे हैं कि गेहूं हमारी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है जबकि गुलाब मानसिक आवश्यकताओं की | यदि हम मानसिक आवश्यताओं की जगह शारीक आवश्यकताओं को पहल देंगे तो हम में मानवता की जगह राक्षसता के गुण आजायेंगे क्योंकि मानव को मानव मन की शरीर पर जीत ने बनाया है |

गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है।

गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्‍या चाहते हैं - पुष्‍ट शरीर या तृप्‍त मानस? या पुष्‍ट शरीर पर तृप्‍त मानस?

जब मानव पृथ्‍वी पर आया, भूख लेकर। क्षुधा, क्षुधा, पिपासा, पिपासा। क्‍या खाए, क्‍या पिए? माँ के स्‍तनों को निचोड़ा, वृक्षों को झकझोरा, कीट-पतंग, पशु-पक्षी - कुछ न छुट पाए उससे !

गेहूँ - उसकी भूख का काफला आज गेहूँ पर टूट पड़ा है? गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ !

मैदान जोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं - गेहूँ के लिए।

बेचारा गुलाब - भरी जवानी में सि‍सकियाँ ले रहा है। शरीर की आवश्‍यकता ने मानसिक वृत्तियों को कहीं कोने में डाल रक्‍खा है, दबा रक्‍खा है।

किंतु, चाहे कच्‍चा चरे या पकाकर खाए - गेहूँ तक पशु और मानव में क्‍या अंतर? मानव को मानव बनाया गुलाब ने! मानव मानव तब बना जब उसने शरीर की आवश्‍यकताओं पर मानसिक वृत्तियों को तरजीह दी।

यही नहीं, जब उसकी भूख खाँव-खाँव कर रही थी तब भी उसकी आँखें गुलाब पर टँगी थीं।

उसका प्रथम संगीत निकला, जब उसकी कामिनियाँ गेहूँ को ऊखल और चक्‍की में पीस-कूट रही थीं। पशुओं को मारकर, खाकर ही वह तृप्‍त नहीं हुआ, उनकी खाल का बनाया ढोल और उनकी सींग की बनाई तुरही। मछली मारने के लिए जब वह अपनी नाव में पतवार का पंख लगाकर जल पर उड़ा जा रहा था, तब उसके छप-छप में उसने ताल पाया, तराने छोड़े ! बाँस से उसने लाठी ही नहीं बनाई, वंशी भी बनाई।

रात का काला-घुप्‍प परदा दूर हुआ, तब यह उच्छवसित हुआ सिर्फ इसलिए नहीं कि अब पेट-पूजा की समिधा जुटाने में उसे सहूलियत मिलेगी, बल्कि वह आनंद-विभोर हुआ, उषा की लालिमा से, उगते सूरज की शनै: शनै: प्रस्‍फुटित होनेवाली सुनहली किरणों से, पृथ्‍वी पर चम-चम करते लक्ष-लक्ष ओसकणों से! आसमान में जब बादल उमड़े तब उनमें अपनी कृषि का आरोप करके ही वह प्रसन्‍न नहीं हुआ। उनके सौन्‍दर्य-बोध ने उसके मन-मोर को नाच उठने के लिए लाचार किया, इन्‍द्रधनुष ने उसके हृदय को भी इन्‍द्रधनुषी रंगों में रँग दिया!

मानव-शरीर में पेट का स्‍थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्‍क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की।

गेहूँ की आवश्‍यकता उसे है, किंतु उसकी चेष्‍टा रही है गेहूँ पर विजय प्राप्‍त करने की। उपवास, व्रत, तपस्‍या आदि उसी चेष्‍टा के भिन्‍न-भिन्‍न रूप रहे हैं।

जब तक मानव के जीवन में गेहूँ और गुलाब का सम-तुलन रहा वह सुखी रहा, आनंदमय रहा !

वह कमाता हुआ गाता था और गाता हुआ कमाता था। उसके श्रम के साथ संगीत बँधा हुआ था और संगीत के साथ श्रम।

उसका साँवला दिन में गायें चराता था, रात में रास रचाता था।

पृथ्‍वी पर चलता हुआ वह आकाश को नहीं भूला था और जब आकाश पर उसकी नजरें गड़ी थीं, उसे याद था कि उसके पैर मिट्टी पर हैं।

किंतु धीरे-धीरे यह सम-तुलन टूटा।

अब गेहूँ प्रतीक बन गया हड्डी तोड़नेवाले, उबानेवाले, थकानेवाले, नारकीय यंत्रणाएँ देनेवाले श्रम का - वह श्रम, जो पेट की क्षुधा भी अच्‍छी तरह शांत न कर सके।

और गुलाब बन गया प्रतीक विलासिता का - भ्रष्‍टाचार का, गंदगी और गलीज का। वह विलासिता - जो शरीर को नष्‍ट करती है और मानस को भी !

अब उसके साँवले ने हाथ में शंख और चक्र लिए। नतीजा - महाभारत और यदुवंशियों का सर्वनाश !

वह परंपरा चली आ रही है। आज चारों ओर महाभारत है, गृहयुद्ध है, सर्वनाश है, महानाश है!

गेहूँ सिर धुन रहा है खेतों में, गुलाब रो रहा है बगीचों में - दोनों अपने-अपने पालन-कर्ताओं के भाग्‍य पर, दुर्भाग्‍य पर !

चलो, पीछे मुड़ो। गेहूँ और गुलाब में हम एक बार फिर सम-तुलन स्‍थापित करें।

किंतु मानव क्‍या पीछे मुड़ा है? मुड़ सकता है?

यह महायात्री चलता रहा है, चलता रहेगा !

और क्या नवीन सम-तुलन चिरस्‍थायी हो सकेगा? क्‍या इतिहास फिर दुहराकर नहीं रहेगा?

नहीं, मानव को पीछे मोड़ने की चेष्‍टा न करो।

अब गुलाब और गेहूँ में फिर सम-तुलन लाने की चेष्‍टा में सिर खपाने की आवश्‍यकता नहीं।

अब गुलाब गेहूँ पर विजय प्राप्‍त करे ! गेहूँ पर गुलाब की विजय - चिर विजय! अब नए मानव की यह नई आकांक्षा हो!

क्‍या यह संभव है?

बिलकुल सोलह आने संभव है !

विज्ञान ने बता दिया है - यह गेहूँ क्‍या है। और उसने यह भी जता दिया है कि मानव में यह चिर-बुभुक्षा क्‍यों है।

गेहूँ का गेहुँत्‍व क्‍या है, हम जान गए हैं। यह गेहुँत्‍व उसमें आता कहां से है, हमसे यह भी छिपा नहीं है।

पृथ्‍वी और आकाश के कुछ तत्‍व एक विशेष प्रतिक्रिया के पौधों की बालियों में संगृहीत होकर गेहूँ बन जाते हैं। उन्‍हीं तत्‍वों की कमी हमारे शरीर में भूख नाम पाती है !

क्‍यों पृथ्‍वी की कुड़ाई, जुताई, गुड़ाई! हम पृथ्‍वी और आकाश के नीचे इन तत्‍वों को क्‍यों न ग्रहण करें?

यह तो अनहोनी बात - युटोपिया, युटोपिया!

हाँ, यह अनहोनी बात, युटोपिया तब तक बनी रहेगी, जब तक मानव संहार-काण्‍ड के लिए ही आकाश-पाताल एक करता रहेगा। ज्‍यों ही उसने जीवन की समस्‍याओं पर ध्‍यान दिया, यह बात हस्‍तामलकवत् सिद्ध होकर रहेगी !

और, विज्ञान को इस ओर आना है; नहीं तो मानव का क्‍या, सर्व ब्रह्माण्‍ड का संहार निश्चित है !

विज्ञान धीरे-धीरे इस ओर भी कदम बढ़ा रहा है !

कम से कम इतना तो अवश्‍य ही कर देगा कि गेहूँ इतना पैदा हो कि जीवन की परमावश्‍यक वस्‍तुएँ हवा, पानी की तरह इफरात हो जायँ। बीज, खाद, सिंचाई, जुताई के ऐसे तरीके और किस्‍म आदि तो निकलते ही जा रहे हैं जो गेहूँ की समस्‍या को हल कर दें !

प्रचुरता - शारीरिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति करने वाले साधनों की प्रचुरता - की ओर आज का मानव प्रभावित हो रहा है !

प्रचुरता? - एक प्रश्‍न चिह्न!

क्‍या प्रचुरता मानव को सुख और शांति‍ दे सकती है?

'हमारा सोने का हिंदोस्‍तान' - यह गीत गाइए, किंतु यह न भूलिए कि यहाँ एक सोने की नगरी थी, जिसमें राक्षसता निवास करती थी! जिसे दूसरे की बहू-बेटियों को उड़ा ले जाने में तनिक भी झिझक नहीं थी।

राक्षसता - जो रक्‍त पीती थी, जो अभक्ष्‍य खाती थी, जिसके अकाय शरीर था, दस शिर थे, जो छह महीने सोती थी !

गेहूँ बड़ा प्रबल है - वह बहुत दिनों तक हमें शरीर का गुलाम बनाकर रखना चाहेगा! पेट की क्षुधा शांत कीजिए, तो वह वासनाओं की क्षुधा जाग्रत कर बहुत दिनों तक आपको तबाह करना चाहेगा।

तो, प्रचुरता में भी राक्षसता न आवे, इसके लिए क्‍या उपाय?

अपनी मनोवृत्तियों को वश में करने के लिए आज का मनोविज्ञान दो उपाय बताता है - इंद्रियों के संयमन की ओर वृत्तियों को उर्ध्‍वगामी करने की।

संयमन का उपदेश हमारे ऋषि-मुनि देते आए हैं। किंतु, इसके बुरे नतीजे भी हमारे सामने हैं - बड़े-बड़े तपस्वियों की लंबी-लंबी तपस्‍याएँ एक रम्‍भा, एक मेनका, एक उर्वशी की मुस्‍कान पर स्‍खलित हो गईं!

आज भी देखिए। गांधीजी के तीस वर्ष के उपदेशों और आदेशों पर चलनेवाले हम तपस्‍वी किस तरह दिन-दिन नीचे गिरते जा रहे हैं।

इसलिए उपाय एकमात्र है - वृत्तियों को उर्ध्‍वगामी करना !

कामनाओं को स्‍थूल वासनाओं के क्षेत्र से ऊपर उठाकर सूक्ष्‍म भावनाओं की ओर प्रवृत्त कीजिए।

शरीर पर मानस की पूर्ण प्रभुता स्‍थापित हो - गेहूँ पर गुलाब की !

गेहूँ के बाद गुलाब - बीच में कोई दूसरा टिकाव नहीं, ठहराव नहीं !

गेहूँ की दुनिया खत्‍म होने जा रही है। वह दुनिया जो आर्थिक और राजनीतिक रूप में हम सब पर छाई है।

जो आर्थिक रूप से रक्‍त पीती रही, राजनीतिक रूप में रक्‍त बहाती रही !

अब दुनिया आने वाली है जिसे हम गुलाब की दुनिया कहेंगे। गुलाब की दुनिया -मानस का संसार - सांस्‍कृतिक जगत्।

अहा, कैसा वह शुभ दिन होगा हम स्‍थूल शारीरिक आवश्‍यकताओं की जंजीर तोड़कर सूक्ष्‍म मानव-जगत् का नया लोक बनाएँगे?

जब गेहूँ से हमारा पिण्‍ड छूट जायगा और हम गुलाब की दुनिया में स्‍वच्‍छंद विहार करेंगे !

गुलाब की दुनिया - रंगों की दुनिया, सुगंधों की दुनिया!

भौंरे नाच रहे, गूँज रहे; फुल सूँघनी फुदक रही, चहक रही! नृत्‍य, गीत - आनंद, उछाह!

कहीं गंदगी नहीं, कहीं कुरूपता नहीं, आंगन में गुलाब, खेतों में गुलाब, गालों पर गुलाब खिल रहे, आँखों से गुलाब झाँक रहा !

जब सारा मानव-जीवन रंगमय, सुगंधमय, नृत्‍यमय, गीतमय बन जायगा! वह दिन कब आयेगा !

वह आ रहा है - क्‍या आप देख नहीं रहे हैं ! कैसी आँखें हैं आपकी। शायद उन पर गेहूँ का मोटा पर्दा पड़ा हुआ है। पर्दे को हटाइए और देखिए वह अलौकिक स्‍वर्गिक दृश्‍य इसी लोक में, अपनी इस मिट्टी की पृथ्‍वी पर ही!

शौके दीदार अगर है, तो नजर पैदा कर!
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