Tuesday 17 January 2017

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मानव का अभिमान | हरिवंश रे बच्चन | कविता | Manav Ka Abhimaan | Harivansh Rai Bacchan | Hindi Poem

'मानव का अभिमान' हरिवंश राय बच्चन द्वारा रचित 'धार के इधर उधर' पुस्तक से ली गयी कविता है जिसमे कवि ने वर्तमान युग में मानव के द्वारा मानव जाति के विनाश की संभवाना प्रकट की है | तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।

जिन वनैले जंतुओं से
था कभी भयभीत होता,
भागता तन-प्राण लेकर,
सकपकाता, धैर्य खोता,
बंद कर उनको कटहरों में बना इंसान।
तुष्ट  मानव का नहीं अभिमान।

प्रकृति की उन शक्तियों पर
जो उसे निरुपाय करतीं,
ज्ञान लघुता का करातीं,
सर्वथा असहाय करतीं,
बुद्धि से पूरी विजय पाकर बना बलवान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।

आज गर्वोन्मत्त होकर
विजय के रथ पर चढ़ा वह,
कुचलने को जाति अपनी
आ रहा बरबस बढ़ा वह;
मनुज करना चाहता है मनुज का अपमान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान
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तुष्ट= satisfied
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Sunday 15 January 2017

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विपथगा | अज्ञेय | कहानी | Vipathga | Hindi Story | Agyey |



यह मानवी थी या दानवी, यह मैं इतने दिन सोचकर भी नहीं समझ पाया हूँ। कभी-कभी तो यह भी विश्वास नहीं होता कि उस दिन की घटना वास्तविक ही थी, स्वप्न नहीं। किन्तु फिर जब अपने सामने ही दीवार पर टंगी हुई वह टूटी तलवार देखता हूँ, तो हठात् उसकी सत्यता मान लेनी पड़ती है। फिर भी अभी तक यह निर्णय नहीं कर पाया कि मानवी थी या नहीं...

उसके शरीर में लावण्य की दमक थी, मुँह पर सौन्दर्य की आभा थी, ओठों पर एक दबी हुई विचारशील मुस्कान थी। किन्तु उसकी आँखें! उनमें अनुराग, विराग, क्रोध, विनय, प्रसन्नता, करुणा, व्यथा, कुछ भी नहीं था, थी केवल एक भीषण, तुषारमय, अथाह ज्वाला!

मनुष्य की आँखों में ऐसी मृतवत जड़ता के साथ ही ऐसी जलन हो सकती है, यह बात आज भी मेरे गुमान में नहीं आती। किन्तु आज एक वर्ष बीत जाने पर भी, मैं जब कभी उसका ध्यान करता हूँ, उसकी वे आँखें मेरे सामने आ जाती हैं। उसकी आकृति, उसका वर्ण, उसकी बोली, मुझे कुछ भी याद नहीं आता, केवल वे दो प्रदीप्त बिम्ब दीख पड़ते हैं... रात्रि के अन्धकार में जिधर आँख फेरता हूँ, उधर ही स्फटिक मणि की तरह नीले आकाश में शुक्र तारे की तरह, हरित ज्योतिमय उसके वे विस्फारित नेत्र निर्निमेष होकर मुझ पर अपनी दृष्टि गड़ाये रहते हैं...

मैं भावुक प्रकृति का आदमी नहीं हूँ। पुराने फ़ैशन का एकदम साधारण व्यक्ति हूँ। मेरी जीविका का आधार इसी पेरिस शहर के एक स्कूल में इतिहास के अध्यापक का पद है। मैं सिनेमा थियेटर देखने का शौकीन नहीं हूँ, न मेरा कविता में ही मन लगता है। मनोरंजन के लिए मैं कभी-कभी देश-विदेश की क्रान्तियों के इतिहास पढ़ लिया करता हूँ। एक-आध बार मैंने इस विषय पर व्याख्यान भी दिये हैं। इससे अधिक कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि यह विदेश है। जब पढ़ने से मन उकता जाता है, तब कभी-कभी पुराने अस्त्र-शस्त्र के संग्रह में लग जाता हूँ। बड़ी मेहनत से मैंने इनका संग्रह किया है। जिस कटार से सम्राट पीटर ने अपनी प्रेमिकाओं की हत्या की थी, उसकी मूठ मेरे संग्रह में है; जिस प्याले में कैथराइन ने अपने पुत्र को विष दिया था, उसका एक खंड; जिस गोली से एक अज्ञात स्त्री ने आर्क-एंजेल के गर्वनर को मारा था, उसका खाली कारतूस; जिस घोड़े पर सवार होकर नेपोलियन मॉस्को से भागा था, उसकी एक नाल; और नेपोलियन की जैकेट का एक बटन भी मेरे संग्रह में है। ऐसा संग्रह शायद पेरिस में दूसरा नहीं है शायद मॉस्को में भी नहीं था...

पर जो बात मैं कहना चाहता था, उससे भटक गया। हाँ, मैं भावुक प्रकृति का नहीं हूँ। मेरी रुचि इसी संग्रह में या कभी-कभी क्रान्ति सम्बन्धी साहित्य तक परिमित है और इधर-उधर की बात मैं नहीं जानता। फिर भी उस दिन की घटना से मेरे शान्तिमय जीवन में उसी तरह उथल-पुथल मचा गयी, जिस तरह एक उद्यान में झंझावात। उस दिन से न जाने क्यों एक अज्ञात, अस्पष्ट अशान्ति ने मेरे हृदय में घर कर लिया है। जब भी मेरी दृष्टि उस टूटी हुई तलवार पर पड़ती है, एक गम्भीर किन्तु भावातिरेक से कम्पायमान ध्वनि मेरे कानों में गूँज उठती है :

“दीप बुझता है तो धुआँ उठता है। किन्तु जब हमारे विस्तृत देश के भूखे, पीड़ित, अनाश्रित कृषक-कुटुम्ब सड़कों पर भटक-भटककर हेमावृत धरती पर बैठकर अपने भाग्य को कोसने लगते हैं, जब उनके हृदय में सुरक्षित आशा की अन्तिम दीप्ति बुझ जाती है, तब एक आह तक नहीं उठती। न जाने कब तक वह बुझी हुई राख पड़ी रहती है-पड़ी रहेगी! किन्तु किसी दिन, सुदूर भविष्य में, किसी घोर झन्झा से उसमें फिर चिनगारी निकलेगी! उसकी ज्वाला-घोरतम, अनवरुद्ध, प्रदीप्त ज्वाला!-किधर फैलेगी, किसको भस्म करेगी, किन नगरों और प्रान्तों का मानमर्दन करेगी कौन जाने?”

मुझे रोमांच हो आता है, मैं मन्त्रमुग्ध की तरह निश्चेष्ट होकर उस दिन की घटना पर विचार करने लग जाता हूँ...

रात्रि के आठ बज रहे थे। मैं मॉस्कों में अपने कमरे में बैठा लैम्प के प्रकाश में धीरे-धीरे कुछ लिख रहा था। पास में एक छोटी मेज़ पर भोजन के जूठे बर्तन पड़े थे। इधर-उधर दीवार पर टंगी या अंगीठी पर रखी हुई मेरे संग्रह की वस्तुएँ थीं।

बाहर वर्षा हो रही थी। छत पर जो आवाज़ आ रही थी, उसने मैंने अनुमान किया कि ओले भी पड़ रहे हैं किन्तु उस जाड़े में उठकर देखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं थी। कभी-कभी लैम्प के फीके प्रकाश पर खीझने के अतिरिक्त मैं बिलकुल एकाग्र होकर दूसरे दिन पढ़ने के लिए ‘सफल क्रान्ति’ पर एक छोटा-सा निबन्ध लिख रहा था।

‘सफल क्रान्ति क्या है? असंख्य विफल जीवनियों का, असंख्य निष्फल प्रयत्नों का, असंख्य विस्तृत आहुतियों का, अशान्तिपूर्ण किन्तु शान्तिजनक निष्कर्ष!’

(उन दिनों मैं मॉस्को के एक स्कूल में अध्यापक था। वहीं इतिहास पढ़ाने में और कभी-कभी क्रान्ति-विषयक लेख लिखने में तथा पढ़ने में मेरा समय बीत जाता था। क्रान्ति का अर्थ मैं समझता था या नहीं रह नहीं कह सकता। आज मैं क्रान्ति के विषय में अपनी अनभिज्ञता को ही कुछ-कुछ जान पाया हूँ!)

एकाएक किसी ने द्वार खटखटाया। मैंने बैठे-बैठे ही उत्तर दिया, “आ जाओ!” और लिखने में लगा रहा। द्वार खुला और बन्द हो गया। फिर उसी अविरल जलधारी की आवाज़ आने लगी-कमरे में निःस्तब्धता छा गयी। मैंने कुछ विस्मित होकर आँख उठायी और उठाये ही रह गया।

बहुत-मोटा-सा ओवरकोट पहने, सिर पर बड़े-बड़े बालों वाली टोपी रखे, गले में लाल रूमाल बाँधे, दरवाज़े के पास खड़ी एक स्त्री एकटक मेरी ओर देख रही थी। उसके कपड़े भीगे हुए थे, टोपी में कहीं-कहीं एक आध ओला फँस गया था। पैरों में उसने घुटने तक पहुँचने वाले बड़े-बड़े भद्दे रूसी बूट पहन रखे थे, जो कीचड़ में सने हुए थे। ऊपर टोपी और नीचे रूमाल के कारण उसके मुँह का बहुत थोड़ा भाग दीख पड़ता था। इस प्रकार आवृत्त होने पर भी उसके शरीर में एक लचक और साथ ही एक खिंचाव का आभस स्पष्ट होता था, मानों कपड़ों से ढँक कर एक तने हुए धनुष की प्रत्यंचा सामने रख दी गयी हो। आँखें नहीं दीखती थीं किन्तु उन ओठों की पतली रेखा देखने से भावना होती थी कि उसके पीछे विद्युत की चपलता के साथ ही वज्र की कठोरता दबी हुई है...

मैं क्षण-भर उसी की ओर देखता रहा किन्तु वह कुछ बोली नहीं। मैंने ही मौन भंग किया, “कहिए, क्या आज्ञा है?” कोई उत्तर नहीं मिला। मैंने फिर पूछा, “आपका नाम जान सकता हूँ?”

उसने धीरे-धीरे कहा, मानो प्रत्येक शब्द को तौल-तौल कर रखा हो, “मैंने सुना था कि क्रान्तिकारियों से आपको सहानुभूति है और आपने इस विषय पर व्याख्यान भी दिये हैं। इसी सहानुभूति की आशा से आपको पास आयी हूँ।”

मैं काँप गया। मेरी इस सहानुभूति की चर्चा बाहर होती है और क्रान्तिकारियों तक को इसका ज्ञान है फिर मुझमें और क्रान्तिकारियों में भेद क्या है? कहीं यह मॉस्कों के राजनैतिक विभाग की जासूस तो नहीं है? मेरी नौकरी... शायद साइबेरिया की खानों में आयु-भर... पर अगर यह जासूस होती, तो ऐसी दशा में क्यों आती? ऐसे बात क्यों करती? इससे तो साफ़ सन्देह होने लगता है... जासूस होती तो विश्वास उत्पन्न करने की चेष्टा करती... पर क्या जाने, मैं आपका अभिप्राय नहीं समझा!”

वह बोली, ‘मैं क्रान्तिकारिणी हूँ। मुझे अभी कुछ धन की आवश्यकता है। आप दे सकेंगे?”

“किसलिए?”

वह कुछ देर के लिए असमंजस में पड़ गयी, मानो सोच रही हो कि उत्तर देना चाहिए या नहीं। फिर उसने धीरे-धीरे ओवरकोट के बटन खोले और भीतर से एक तलवार - रक्तरंजित तलवार! - निकाली। इतनी देर में उसने आँख पलभर भी मुझ पर से नहीं हटायी। मुझे मालूम हो रहा था, मानो वह मेरे अन्तरतम विचारों को भाँप रही हो। मैं भी मुग्ध होकर देखता रहा...

वह बोली, “यह देखो! जानते हो, यह किस का रक्त है? कर्नल गोरोव्स्की का! और उसकी लोथ उसके घर के बाग़ में पड़ी हुई है!”

मैं भौंचक होकर बोला, “हैं? कब?”

“अभी एक घंटा भी नहीं हुआ। उसी की तलवार, इन हाथों ने उसी के हृदय में भोंक दी। तुम पूछोगे, क्यों? शायद तुम्हें नहीं मालूम कि स्त्री कितना भीषण प्रतिशोध करती है!”

“तुम यहाँ क्यों आयीं?”

“मुझे धन की ज़रूरत है। मॉस्को से भागने के लिए।”

“मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। तुम हत्यारिणी हो।”

वह एका-एक सहम-सी गयी, मानो उसे इस उत्तर की आशा न हो। फिर धीरे-धीरे एक फीकी, विषादमय हँसी हँस कर बोली, “बस, यहीं तक थी तुम्हारी सहानुभूति! इसी क्रान्तिवाद के लिए तुम व्याख्यान देते हो, यही तुम्हारे इतिहासों का निष्कर्ष है!”

“मैं क्रान्तिवादी हूँ पर हत्यारा नहीं हूँ। इस प्रकार की हत्याओं से देश को लाभ नहीं, हानि होगी। सरकार ज्यादा दवाब डालेगी, मार्शल-लॉ जारी होगा, फाँसियाँ होंगी। हमारा क्या लाभ होगा?”

“तुम क्रान्ति को क्या समझते हो, गुड़ियों का खेल!” यह कहती हुई वह मेरी मेज़ के पास आकर खड़ी हो गयी। मेज़ पर पड़े हुए काग़ज़ों को देखकर बोली, “यह क्या, सफल क्रान्ति! असंख्य विफल जीवनियों का... विस्मृत आहुतियों का निष्कर्ष!”

वह ठठाकर हँसी। ‘सफल क्रान्ति! जानते हो, क्रान्ति के लिए कैसी आहुतियाँ देनी पड़ती हैं?”

मैं कुछ उत्तर न दे सका। मैं उसे वह लेख पढ़ते हुए देख कर झेंप रहा था।

वह फिर बोली, “तुम भी अपने आपको क्रान्तिवादी कहते हो, हम भी। किन्तु हमारे आदर्शों में कितना भेद है! तुम चाहते हो, स्वातन्त्र्य के नाम पर विश्व जीत कर उस पर शासन करना, और हम! - हम इसी की चेष्टा में लगे हैं कि अपने हृदय इतने विशाल बन सकें कि विश्व उनमें समा जाय!”

मैंने किसी षड्यन्त्र में भाग नहीं लिया है - क्रान्तिवाद पर लेक्चर देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया है फिर भी मैं अपने सिद्धान्तों पर आक्षेप नहीं सह सका। मैंने तन कर कहा, “तुम झूठ कहती हो। मैं सच्चा साम्यवादी हूँ। मैं चाहता हूँ कि संसार में साम्य हो, शासक और शासित का भेद मिट जाय। लेकिन इस प्रकार हत्या करने से यह कभी सिद्ध नहीं होगा। जिसे तुम क्रान्ति कहती हो, उसके लिए अगर यह करना पड़ता हो, तो मैं उस क्रान्ति का विरोध करूँगा, उसे रोकने का भरसक प्रयत्न करूँगा। इसके लिए अगर प्राण भी-”

“क्रान्ति का विरोध करोगे, उसे रोकोगे तुम? सूर्य उदय होता है, उसको रोकने की चेष्टा की है? समुद्र में प्रलय-लहरी उठती है, उसे रोका है? ज्वालामुखी में विस्फोट होता है; धरती काँपने लगती है, उसे रोका है? क्रान्ति सूर्य से भी अधिक दीप्तिमान, प्रलय से भी अधिक भयंकर, ज्वाला से भी अधिक उत्तप्त, भूकम्प से भी अधिक विदारक है... उसे क्या रोकोगे!”

“शायद न रोक सकूँ। लेकिन मेरा जो कर्त्तव्य है, वह तो पूरा करूँगा।”

“क्या कर्तव्य? लेक्चर झाड़ना?”

“देश में अपने विचारों का निदर्शन, अहिंसात्मक क्रान्ति का प्रचार।’

“अहिंसात्मक क्रान्ति! जो भूखे, नंगे, प्रपीड़ित हैं, उनको जाकर कहोगे, चुप-चाप बिना आह भरे मरते जाओ! रूस की भयंकर सर्दी में बर्फ के नीचे दब जाओ लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि तुम्हारी लोथ किसी भद्र पुरुष के रास्ते में न आ जाय! रोते हुए बच्चों से कहोगे, माता की छातियों की ओर मत देखो, बाहर जाकर मिट्टी-पत्थर खाकर भूख मिटाओ! और अत्याचारी शासक तुम्हारी ओर देखकर मन-ही-मन हँसेंगे, और तुम्हारी अहिंसा की आड़ में निर्धनों का रक्त चूस कर ले जाएँगे! यही है तुम्हारी शान्तिमय क्रान्ति, जिसका तुम्हें इतना अभिमान है।”

“अगर शासक अत्याचार करेंगे, तो उनके विरुद्ध आन्दोलन करना भी तो हमारा धर्म होगा।”

“धर्म?, वही धर्म, जिसे तुम एक स्कूल की नौकरी के लिए बेच खाते हो? वही धर्म, जिसके नाम पर तुम स्कूल में इतिहास पढ़ाते समय इतने झूठ बकते हो?”

मैंने क्रुद्ध होकर कहा, “व्यक्तिगत आक्षेपों से कोई फायदा नहीं है। ऐसे तो मैं पूछ सकता हूँ, तुम्हीं ने कौन बड़ा बलिदान किया है? एक आदमी को मार कर भाग आयीं, यही न?”

मुझे उस पर बड़ा क्रोध आ रहा था। किन्तु जिस तरह वह छाती के बटनखोले हाथ में तलवार लिये, दानवी की तरह खड़ी मेरी ओर देख रही थी, उसे देखकर मेरा साहस ही नहीं पड़ा कि उसे निकाल दूँ! मैं प्रश्न पूछ कर उसकी ओर देखने लगा। मुझे आशा थी कि वह मुझ पर से दृष्टि हटा लेगी, मेरे प्रश्न का उत्तर देते घबराएगी, क्रुद्ध होगी। किन्तु यह सब कुछ भी नहीं हुआ। यह धीरे से काग़ज हटा कर मेरी मेज़ के एक कोने में बैठ गयी और तलवार की नोक मेरी ओर करती हुई बोली, “मैंने क्या किया है, सुनोगे, तुम? मैंने बलिदान कोई बड़ा नहीं किया, लेकिन देखा, बहुत-कुछ है। मेरे पास बहुत समय है - अभी गोरोव्स्की का पता किसी को नहीं लगा होगा। सुनोगे तुम?”

पहले मैंने सोचा, सुनकर क्या करूँगा? अभी लेख लिखना है, कल स्कूल भी जाना होगा, और फिर पुलिस - इसे कह दूँ, चली जाय। लेकिन फिर एक अदाम्य कौतूहल और अपनी हृदयहीनता पर ग्लानि-सी हुई। मैंने उठकर अंगीठी में कोयले हिलाकर आग तेज़ कर दी, एक और कुर्सी उठाकर आग के पास रख दी, और अपनी जगह बैठकर बोला, “हाँ, सुनूँगा। आग के पास उस कुर्सी पर बैठ कर सुनाओ, सर्दी बहुत है।”

वह वहीं बैठी रही, मानो मेरी बात उसने सुनी ही न हो। केवल तलवार एक ओर रखकर, कुछ आगे ओर झुककर आग की ओर देखने लगी। थोड़ी दूर देखकर चौंक कर बोली, “हाँ, सुनो। मैंने घर में आरामकुर्सी पर बैठ कर यन्त्रालयों में पिसते हुए श्रमजीवियों के लिए साम्यवाद पर लेख नहीं लिखे हैं। न मैंने मंच पर खड़े होकर कृषकों को जबानी स्वतन्त्रय-युद्ध की मरीचिका दिखलायी है। मैंने घर-बार, माता-पिता, पति तक को छोड़ कर धक्के ही धक्के खाये हैं। सौभाग्य बेचकर अपने विश्वास की रक्षा की है। स्वत्व बचाने के लिए पिता की हत्या की है। और - और अपना स्त्री-रूप बेचकर देश के लिए भिक्षा माँगी है - और आज फिर माँगने निकली हूँ।”

मेरे मुँह से अकस्मात् निकल गया, “किससे?”

इस प्रश्न से मानो उसकी विचार-शृंखला टूट गयी। तलवार की ओर देखती हुई बोली, “यह फिर बताऊँगी - वह मेरे अन्तिम - मेरे एकमात्र बलिदान की कहानी है।”

विश्वास और स्वत्व की रक्षा - पिता की हत्या - मुझे कुछ भी समझ नहीं आया।

“मेरे पिता पीटर्सबर्ग में पुलिस-विभाग के सदस्य थे। मेरे पति भी वहाँ राज नैतिक विभाग में काम करते थे। कुटुम्ब में, वंश में एक मैं ही थी जिसने क्रान्ति का आह्वान सुना... फिर भी, कितने विरोध का सामना करना पड़ा! पहले-पहले जब मैं क्रान्तिदल में आयी, तो लेाग मुझ पर सन्देह करने लग गये। न जाने किस अज्ञात शत्रु ने उनसे कह दिया, इसका पिता पुलिस में है, पति राजनैतिक विभाग में, इससे विनाश के अतिरिक्त और क्या आशा हो सकती है? मैंने देखा, इतनी कामना, इतनी सदिच्छा होते हुए भी मैं अनादृता, परित्यक्ता-सी हूँ... मेरे पति को भी मेरी वृत्तियों का पता लगा। फलस्वरूप एक दिन मैं चुपचाप घर से निकल गयी- उन्हें भी नौकरी छिन जाने का डर था! उसके बाद - उसके बाद मेरी परीक्षा का प्रश्न उठा! पति को छोड़ देने पर भी मुझे सदस्य नहीं बनाया गया - परीक्षा देने को कहा गया। कितनी भयंकर थी वह!”

क्षण-भर आग की ओर देखने के बाद फिर उसने कहना शुरू कियाः ‘मैं और चार और व्यक्ति पिस्तौल लेकर एक दिन सायंकाल को निकोलस पार्क में बैठ गये। उस दिन उधर से पीटर्सबर्ग की पुलिस दो बन्दियों को लेकर जाने वाली थी। इसी पर वार करके बन्दियों को छुड़ाने का काम हमारे सुपुर्द हुआ था। यही मेरी परीक्षा थी!

“हम रात तक वहीं बैठे रहे। नौ बजे के लगभग पुलिस के बूटों की आहट आयी। हम सावधान हो गये। किसी ने पूछा, ‘कौन बैठा है?’ हमने उत्तर नहीं दिया, गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं। दो मिनट के अन्दर निर्णय हो गया-हमारे तीन आदमी खेत रहे, पर हमें सफलता प्राप्त हुई। बन्दी मुक्त हो गये। हम चारों शीघ्रता से पार्क से निकल कर अलग हो गये।”

मैं बहुत ध्यान से सुन रहा था। ऐसी कहानी मैंने कभी नहीं सुनी थी-पढ़ी भी नहीं थी... मैंने व्यग्रता से पूछा, “फिर?”

“दूसरे दिन-दूसरे दिन मॉस्की में अखबार में पढ़ा, बन्दियों को लेकर जाने वाले अफसर थे -मेरे पिता!”

उस छोटे-से कमरे में फिर सन्नाटा छा गया। वर्षा अब भी हो रही थी। मैं विमनस्क-सा होकर छत पर पड़ रही बूँदें गिनने की चेष्टा करने लगा।

उसने पूछा, “और कुछ भी सुनोगे?”

“मैंने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “मैंने तुम लोगों पर अन्याय किया है। वास्तव में तुम्हें बहुत उत्सर्ग करना पड़ता है। मैं अभी तक नहीं जान पाया था।”

“हाँ, यह स्वाभाविक है। एक अकेले व्यक्ति की व्यथा, एक आदमी का दुख हम समझ सकते हैं। एक प्राणी को पीड़ित देखकर हमारे हृदय में सहानुभूति जगती है-एक हूक-सी उठती है... किन्तु जाति, देश, राष्ट्र! कितना विराट होता है! इसकी व्यथा, इसके दुख से असंख्य व्यक्ति एक साथ ही पीड़ित होते हैं इसमें इतनी विशालता, इतनी भव्यता है कि हम यही नहीं समझ पाते कि व्यथा कहाँ हो रही है, हो भी रही है या नहीं।”

“ठीक है। तुम्हें बहुत दुख झेलने पड़ते हैं। किन्तु इस प्रकार अकारण दुख झेलना चाहे कितनी ही धीरता से झेला जाय, बुद्धिमत्ता तो नहीं है।”

“हमारे दुख प्रसव-वेदना की तरह हैं, इसके बाद ही क्रान्ति का जन्म होगा। इसके बिना क्रान्ति की चेष्टा करना, क्रान्ति से फल-प्राप्ति की आशा करना विडम्बना-मात्र है।”

“लेकिन हर आन्दोलन किसी निर्धारित पथ पर ही चलता है, ऐसे तो नहीं बढ़ता?”

“क्रान्ति आन्दोलन नहीं है।”

“सुधार करने के लिए भी तो कोई आदर्श सामने रखना होता है?”

“क्रान्ति सुधार नहीं है।”

“न सही। परिवर्तन ही सही। लेकिन परिवर्तन का भी तो ध्येय होता है!”

“क्रान्ति परिवर्तन भी नहीं है।”

मैंने सोचा, पूछूँ तो फिर क्रान्ति है क्या? किन्तु मैं बिना पूछे उसके मुख की ओर देखने लग गया। वह स्वयं बोली, “क्रान्ति आन्दोलन, सुधार परिवर्तन कुछ भी नहीं है; क्रान्ति है विश्वासों का, रूढ़ियों का, शासन की और विचार की प्रणालियों का घातक, विनाशकारी, भयंकर विस्फोट! इसका न आदर्श है, न ध्येय, न धुर। क्रान्ति विपथगा, विध्वंसिनी है, विदग्ध कारिणी है!”

“ये तो सब बातें है। कवियों वाला शब्द-विन्यास है। ऐसी क्रान्ति करके क्या मिलेगा।”

वह हँसने लगी। “क्रान्ति से क्या मिलेगा? कुछ नहीं। जो कुछ है, शायद वह भी भस्म हो जाएगा। पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि क्रान्ति का विरोध करना चाहिए। हमें इस बात का ध्यान भी नहीं करना चाहिए कि हमें क्रान्ति करके क्या मिलेगा।”

“क्यों!”

“कोढ़ का रोगी जब डॉक्टर के पास जाता है, तो यही कहता है कि मेरा रोग छुड़ा दो। यह नहीं पूछता कि इस रोग को दूर करके इसके बदले मुझे क्या दोगे! क्रान्ति एक भयंकर औषध है, यह कड़वी है, पीड़ाजनक है, जलाने वाली है, किन्तु है औषध। रोग को मार अवश्य भगाती है। किन्तु इसके बाद, स्वास्थ्य-प्राप्ति के लिए जिस पथ्य की आवश्यकता है, वह इसमें खोजने पर निराशा ही होगी, इसके लिए क्रान्ति को दोष देना मूर्खता है।”

मैं निरुत्तर हो गया। चुपचाप उसके मुख की ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद बोला, “एक बात पूछूँ?”

“क्या!”

“तुम्हारा नाम क्या है?”

“क्यों?”

“यों ही। कौतूहल है।”

“पिता ने जो नाम दिया था, वह उस दिन छूट गया, जिस दिन विवाह हुआ। पति ने जो नाम दिया था, उसे मैं आज भूल गयी हूँ, अब मेरा नाम मेरिया इवानोवना है।”

कुछ देर हम फिर चुप रहे। मैंने तलवार की ओर देखते हुए पूछा, “यह-यह कैसे हुआ?”

उसके उन विचित्र नील नेत्रों की सुषुप्त ज्वाला फिर जाग उठी। वह अपने हाथों की ओर देखती हुई बोली, “वह बहुत वीभत्स कहानी है।” फिर - आप-ही-आप, “नहीं रक्त नहीं लगा है।”

कौतूहल होते हुए भी नहीं आग्रह नहीं किया। इतनी देर में मैं कुछ-कुछ समझने लगा था कि इस स्त्री (या दानवी?) से अनुनय-विनय करना व्यर्थ है, इस पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। मैं चुपचाप। इसी आशा में बैठा रहा कि शायद वह स्वयं की कुछ कह दे। मुझे निराश भी नहीं होना पड़ा।

वह आग की ओर देखती हुई धीरे-धीरे बोली, “तो सुनो! आज जो-कुछ मैं कर रही हूँ, वह मैंने कभी किसी से नहीं कहा, शायद अब किसी से कहूँगी भी नहीं। जब मैं तुम्हारा पता पूछकर यहाँ आयी, तब मुझे ज़रा भी खयाल नहीं था कि तुमसे कुछ भी बात करूँगी। केवल धन माँगकर चले जाने की इच्छा से आयी थी। अब - मेरा खयाल बदल गया है। मुझे धन नहीं चाहिए। मैं-”

“क्यों?”

“मैं अपना काम करके मॉस्को से भाग जाना चाहती थी। किन्तु अब नहीं भागूँगी।”

“और क्या करोगी?”

“अभी एक काम बाक़ी है। एक बार और भिक्षा माँगनी है। उसके बा - “वह एका-एक रुक गयी। फिर तलवार की धार पर तर्जनी फेरती हुई आप-ही-आप बोली, “कितनी तीक्ष्ण धार है यह!”

मैंने साहस करके पूछा, “भिक्षा की बात, तुमने पहले भी कही थी, और बलिदान की भी। मैं कुछ समझ नहीं पाया था।”

“अब कहने लगी हूँ, तो सब-कुछ कहूँगी। अब लज्जा के लिए स्थान नहीं रह गया है। स्त्रीत्व तो पहले ही खो दिया था, आज मानवता भी चली गयी! और फिर - आज के बाद - सब-कुछ एक हो जाएगा। पर तुम चुपचाप सुनते जाओ, बीच में रोकना नहीं।”

मैं प्रतीक्षा में बैठा रहा। वह इस तरह निरीह होकर कहानी कहने लगी, मानो स्वप्न में कह रही हो-मानो मशीन से ध्वनि निकल रही हो।

“तुमने माइकेल क्रेस्की का नाम सुना है?”

“वही जो पीटर्सबर्ग में पुलिस के तीन अफ़सरों को मार कर लापता हो गये थे?”

“हाँ, वही। वह हमारी संस्था के प्रधान थे।” यह कहकर उसने मेरी ओर देखा। मैं कुछ नहीं बोला, किन्तु मेरे मुख पर विस्मय का भाव उसने स्पष्ट देखा होगा। वह फिर कहने लगी, “वह कल यहीं मॉस्की में गिरफ्तार हो गये हैं।”

क्षण-भर निःस्तब्धता रही।

“पर उनको गिरफ्तार करके ले जाने पर भी पुलिस को यह नहीं पता लगा कि वह कौन है? वह इसी सन्देह पर गिरफ्तार किये गये थे शायद क्रान्तिकारी हों। मुझे इस बात की खबर मिली, तो मैंने निश्चय किया कि जाकर पता लगाऊँ। मैं यह साधारण गँवार स्त्री की पोशाक पहनकर पुलिस विभाग के दफ़्तर में गयी। वहाँ जाकर मैंने अपना परिचय यही दिया कि मैं उनकी बहिन हूँ, गाँव से उन्हें लेने आयी हूँ! तब तक पुलिस को उन पर कोई सन्देह नहीं हुआ था। लेकिन इधर-उधर से - पीटर्सबर्ग से भी - पूछताछ हो रही थी।

“पहले तो मैंने सोचा कि पीटर्सबर्ग से अपने साथियों को बुला भेजूँ, उनसे मिलकर उन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करूँ। लेकिन इसके लिए समय नहीं था - न जाने कब उन्हें पीटर्सबर्ग से उत्तर आ जाय! मैं अकेली सिवाय अनुनय-विनय के कुछ नहीं कर सकती थी... उफ़्! अपनी अशक्तता पर कितना क्रोध आता था! मैं दाँत पीसकर रही गयी... जब तक ऐसे समय में अपनी असमर्थता, निस्सहायता का अनुभव नहीं होता, तब तक क्रान्ति की आवश्यकता भी पूरी तरह से नहीं समझ आ सकती।”

मेरी ओर देख और मुझे ध्यान से सुनता पाकर वह बोलीः

“फिर - फिर मैंने सोचा, जो कुछ मैं अकेले कर सकती हूँ, वह करना ही होगा! अगर गिड़गिड़ाने से उन्हें छुड़ा सकूँ तो यह करना होगा, चाहे बाद में मुझे फाँसी पर भी लटकना पड़े! मैंने निश्चय कर लिया - मेरी हिचकिचाहट दूर हो गयी। कल ही शाम को मैं जनरल कोल्पिन के बँगले पर गयी। उस समय वहाँ कर्नल गोरोव्स्की भी मौजूद था। पहले तो मुझे अन्दर जाना ही नहीं मिला, दरबान ने जो कुछ मेरे पास था, तलाशी में निकालकर रख लिया। बहुत गिड़गिड़ा कर मैं अन्दर जा पायी!

“पहले जनरल कोल्पिन ने मुझे देखकर डाँट दिया। फिर न जाने क्या सोच कर बोला, “क्यों, क्या बात है?’ मैंने अपनी गढ़ी हुई कहानी कह सुनायी कि मेरा भाई निर्दोष था, पुलिस ने यों ही उसे पकड़ लिया। जनरल साहब बहुत बड़े आदमी हैं, सब कुछ उनके हाथ में है, जिसे चाहे उसे छोड़ सकते हैं... मैं उसके आगे रोयी भी, उसके पैर भी पकड़े - उसके, जिसकी मैं ज़बान खींच लेती!

“वह चुपचाप सुनता रहा। जब मैं कह चुकी तब भी कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद उसने आँख से गोरोव्स्की को इशारा किया। कुछ कानाफूसी हुई। गोरोव्स्की ने मुझे कहा, ‘इधर आओ, तुमसे कुछ बात करनी है।’ मैं उसके साथ दूसरे कमरे में चली गयी। वहाँ जाकर वह बोला, ‘देखो, अभी सब-कुछ हमारे हाथ में है, पर कल के बाद नहीं रहेगा।’ हमें उसे अदालत में ले जाना होगा।”

फिर-

“यह कहकर वह चुप हो गया। मैंने कहा, ‘आप मालिक हैं, जैसा कहेंगे मैं करूँगी।’ वह बोला, ‘जनरल साहब तुम्हारे भाई पर दया करने को तैयार हैं - एक शर्त पर।’ मैंने उत्सुक होकर पूछा, ‘क्या?’ वह मेरे बहुत पास आ गया। फिर धीरे-धीरे बोला, ‘मेरिया इवानोवना, तुम अपूर्व सुन्दरी हो’...”

वह बोलते-बोलते चुप हो गयी। मैंने सिर उठाकर उसकी ओर देखा, उसकी आँखें विचित्र ज्योति से चमक रही थीं। वह एका-एक मेज पर से उठकर मेरे सामने खड़ी हो गयी। बोली, “जानते हो, उसकी क्या शर्त थी? जानते हो? ऐेसी शर्त तुम्हें स्वप्न में भी न सूझेगी... यही एक शर्त थी, यही एकमात्र बलिदान था, जिसके लिए मैं तैयार होकर नहीं गयी थी...”

वह फिर चुप हो गयी। दोनों हाथों से अपनी कमीज़ का कॉलर और गले का रूमाल पकड़कर कुछ देर मेरी ओर देखती रही। फिर एका-एक झटका देकर कमीज़ और रूमाल फाड़ती हुई बोली, “देखो, अध्यापक! ऐसा सौन्दर्य तुमने कभी देखा है?”

“उसका मुख जो कि रूमाल और टोपी से ढ़का हुआ था, अब एकदम स्पष्ट दीख रहा था। उसके नीचे उसका गला और वक्ष खुला हुआ था... उसका वह अपूर्व लावण्य, वह प्रस्फुटित सौन्दर्य, अधरों पर दबी हुई विषादयुक्त मुस्कान, हेमवर्ण कंठ और वक्ष... ऐसा अनुपम सौन्दर्य सचमुच मैंने पहले नहीं देखा था... मेरे शरीर में बिजली दौड़ गयी - फिर मैंने दृष्टि फेर ली...

किन्तु उसकी वह आँखें-विस्फारित, निर्निमेष... उनका वह तुषारकणों की तरह शीतल प्रदीपन... उनमें विराग, क्रोध, करुणा, व्यथा की अनुपस्थिति... वह शुक्रतारे की हरित ज्योति...!

“यह है बलि! यह स्त्री का रूप है माइकेल क्रेस्की की मुक्ति का मूल्य!”

मैंने चाहा, कुछ कहूँ, चिल्लाऊँ, पर बहुत चेष्टा करने पर भी आवाज़ नहीं निकली!

उसने, उस नर-पिशाच गोरोव्स्की ने, मेरे पास आकर कहा, ‘मेरिया इबानोवना, तुम अपूर्व सुन्दरी हो - तुम्हारी लिए अपने भाई को छुड़ा लेना साधारण-सी बात है... मुझ पर मानो बिजली गिरी। क्षण-भर मुझे इस शर्त का पूरा अभिप्राय भी न समझ आया। फिर समुद्र की लहरों की तरह मेरे हृदय में क्रोध उमड़ आया। मेरा मुख लाल हो गया। मैंने कहा, ‘पापी! कुत्ते!’ और तीव्र गति से बाहर निकल गयी। किन्तु पछे उसकी हँसी और ये शब्द सुनीयी पड़े - ‘कल शाम तक प्रतीक्षा है, उसके बाद-

“बाहर ठंडी हवा में आकर मेरी सुध कुछ ठिकाने आयी। मैं शान्त होकर सोचने लगी, मेरा कर्त्तव्य क्या है? माइकेल क्रेस्की का गौरव अधिक है या... उन्हें मर जाने दूँ? कभी नहीं! छुड़ाऊँ तो कैसे? इसी आशा में बैठी रहूँ कि शायद पुलिस को पता न लगे? प्रतारणा! कहीं वे उन्हें पहचान गये तो...! पीटर्सबर्ग से किसी को बुलाऊँ? पर उसके लिए समय कहाँ है! अकेली क्या करूँगी? वह शर्त...!

“प्रधान, हमारा कार्य, देश, राष्ट्र! इसके विरुद्ध क्या है? एक स्त्री का सतीत्व...! मैंने निर्णय कर लिया। शायद मुझसे गलती हुई; शादय इस निर्णय के लिए संसार, मेरे अपने क्रान्तिवादी बन्धु, मेरे नाम पर थूकेंगे; शायद मुझे नरक की यातना भोगनी पड़ेगी... पर जो यातना मेरे निर्णय करने में सही है, उससे अधिक नरक में भी क्या होगा?”

वह फिर ठहर गयी। अबकी बार मुझसे नहीं रहा गया। मैंने अत्यन्त व्यग्रता से पूछा, “क्या निर्णय किया है?”

“अभी यहीं से जनरल क्रोल्पिन के घर जाऊँगी। पर सुनो, अभी मेरी कहानी समाप्त नहीं हुई। आज छः बजे मैं कर्नल गोरोव्स्की के घर गयी। मेरे आते ही वह हँसकर बोला, ‘मेरिया, तुम जितनी सुन्दर हो, उतनी ही बुद्धिमती भी हो। इज्ज़त तो बार-बार बिगड़कर भी बन जाती है, भाई बार-बार नहीं मिलते!’ मैंने सिर झुकाकर कहा, ‘हाँ, आप साहब से कहला भेजें कि मुझे उनकी शर्त मंजूर है’।”

“वह उस समय वर्दी उतार कर रख रहा था। बोला, “तुम यहीं ठहरो, मैं टेलीफ़ोन पर कहे देता हूँ।’ वह कोने में टेलीफ़ोन पर बात करने लगा। उसकी पीठ मेरी ओर थी। मुझे एका-एक कुछ सूझा... मैंने म्यान में से उसकी तलवार निकाल ली - दबे-पाँव जाकर उसके पीछे खड़ी हो गयी। टेलीफ़ोन पर बातचीत हो चुकी - गोरोव्स्की उसे बन्द करके घूमने को ही था कि मैंने तलवार उसकी पीठ में भोंक दी! उसने आह तक नहीं की - अनाज की बोरी की तरह भूमि पर बैठ गया। फिर मैंने उसकी लोथ उठाकर खिड़की से बाहर डाल दी और भाग निकली!”

मैंने पूछा, “तुम्हारे इन हाथों में इतनी शक्ति!”

वह हँस पड़ी, बोली, “मैं क्रान्तिकारिणी हूँ - यह देखो!”

उसने तलवार उठाई, एक हाथ से मूठ और दूसरे से नोक थामकर बोली, “यह देखो!” देखते-देखते उसने उसे चपटी ओर से घुटने पर मारा - तलवार दो टूक हो गयी! उसने वे दोनों टुकड़े मेरी मेज़ पर रख दिये।

मैंने पूछा, “अब-अब क्या करोगी?”

“अब कोल्पिन के यहाँ जाऊँगी। क्रेस्की को छुड़ाऊँगी। उसके बाद? उसके बाद-”

उसने अपनी जेब में हाथ डालकर एक छोटा-सा रिवाल्वर निकाला। “यह भी गोराव्स्की के यहाँ से मिल गया।”

“पर - इसका क्या करोगी?”

“प्रयोग!” कहकर उसने उसे छिपा लिया।

इसके बाद शायद चार-पाँच मिनट फिर कोई न बोला। मैंने उसकी सारी कहानी का मन-ही-मन सिंहावलोकन किया। उसमें कितनी वीभत्सता, कितनी करुणा थी! और उसका दोष क्या था? केवल इतना ही कि वह क्रान्तिकारी थी! एका-एक मुझे एक बात याद आ गयी! मैंने पूछा, “तुमने कहा था कि तुमने पहले भी भिक्षा माँगी थी - इसी प्रकार की। वह क्या बात थी बताओगी?”

वह अब तक खड़ी थी, अब फिर मेज़ पर बैठ गयी। बोली, “वह पुरानी बात है। उन दिनों की, जब मैं पीटर्सबर्ग से भागी थी। अकेली नहीं, साथ में एक लड़की भी थी - तुमने पॉलिना का नाम सुना है?”

“हाँ, सुना तो है। इस समय याद नहीं आ रहा कि कहाँ।”

“वह नोव्गोरोड में पकड़ी गयी थी - वेश्याओं की गली में - और गोली से उड़ा दी गयी थी।”

“हाँ, मुझे याद आ गया। उसके बाद बहुत शोर भी मचा था कि यह क्यों हुआ, लेकिन कुछ पता नहीं लगा।”

“हाँ। उस दिन मैं भी नोव्गोरोड में थी - उसी घर में! हम दोनों वहाँ रहती थीं। एक वेश्या के यहाँ ही। वहीं, नित्य-प्रति रात को लोग आते थे, हमारे शरीरों को देखते थे, गन्दे संकेत करते थे, और हम बैठी सब-कुछ देखा करती थीं वहाँ, जब चूसे हुए नींबू की तरह बीमारियों से घुले हुए वे पूँजीपति साफ़-साफ़ कपड़े पहनकर इठलाते हुए आते थे-उफ़्! जिसने वह नहीं देखा, वह पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का दूरव्यापी परिणाम नहीं समझ सकता! धन के आधिक्य से ही कितनी बुराइयाँ समाज में आ जाती हैं इसको जानने के लिए वह देखना जरूरी है!

“फिर वे आसपास की कोठरियों में चले जाते थे... किसी-किसी में अन्धेरा हो जाता था... फिर...”

थोड़ी देर वह चुप रही। फिर बोली, “कभी-कभी उनमें एक-आध नवयुवक भी आता था-शान्त, सुन्दर, सुडौल...उनके आने पर वह घर और उसमें रहने वाले-कितने विद्रूप, कितने वीभत्स मालूम होने लगते थे...किन्तु शायद अगर वे न आते, तो हमारी वहीं मृत्यु हो जाती-इतना ग्लानियम दृश्य था वह!

“यही थे हमारे सहायक, हमारे सहकारी... हमें पीटर्सबर्ग से जो ऐलान बाँटने के लिए आते थे, वे हम इन्हें दे देती थीं - ये उन्हें बाँट आते थे। नोव्गोरोड़ में हमने अपनी संस्था की शाखा इसी तरह बनायी। फिर नोव्रोगोड से आर्कएंजेल, फिर जेरोस्लावल, फिर पीटर्सबर्ग और फिर वापस नोव्रोगोड... आर्कएंजेल में तीन गर्वनरों की हत्या हुई; जेरोस्लावल में राजकर्मचारियों के घर जला दिये गये, नोव्गोरोड में पुलिस के कई अफ़सर मारे गये। फिर-पॉलिना पकड़ी गयी, और मैं मॉस्को में आ गयी...”

“पर वह पकड़ी कैसे गयी?”

“वे मुहल्ले जिनमें रहते थे, रात ही को खुलते थे... दिन में वे वैसे ही पड़े रहते थे, जैसे विस्फोट के बाद ज्वालामुखी का फटा हुआ शिखर... पर उस दिन ज़रूरी काम था-पॉलिना मोटा-सा कोट पहन, मुँह ढँककर बाहर निकली। उसकी जेब में कुछ पत्र थे और एक पिस्तौल, वह पत्र पहुँचाने जा रही थी। इसी समय-”

घड़ी में टन्! टन्! ग्यारह बज गये। वह चौंककर उठी और बो..., “बहुत देर हो गयी-अब मैं जाती हूँ।”

“कहाँ?”

“कोल्पिन के यहाँ - अन्तिम भिक्षा माँगने।”

उसने शीघ्रता से अपने कोट के बटन बन्द किये और उठ खड़ी हुई। मैं भी खड़ा हो गया।

मैंने रुक-रुककर कहा, “स्वातन्त्र्य-युद्ध में बहुत सिरों की बलि देनी पड़ती है।” मानो मैं अपने आपको ही समझा रहा होऊँ।

वह बोली, “ऐसे स्वातन्त्रय-युद्ध में सिर अधिक टूटते हैं या हृदय-कौन कह सकता है?”

“मैं चुप होकर खड़ा रहा। वह कुछ हँसी, फिर बोली, “जीवन कैसा विचित्र है, जानते हो अध्यापक? मैं आयी थी धन लेकर विलुप्त हो जाने और चली हूँ, स्मृति-स्वरूप वह बोकर - वह अशान्ति का बीज!”

जिधर उसने संकेत किया था, मैं उधर देखता ही रह गया। लैम्प और आग के प्रकाश में लाल-लाल चमक रहा था - उस टूटी हुई तलवार की मूठ!

सहसा किवाड़ खुलकर बन्द हो गया। मेरा स्वप्न टूट गया - मैंने आँख उठा कर देखा।

वर्षा अब भी हो रही थी - ओले भी पड़ रहे थे। किन्तु वह - वहाँ नहीं थी। था अकेला मैं -और वह शान्ति का बीज!

वह बीज कैसे प्रस्फुटित हुआ, यह फिर कहूँगा। अभी उस दिन की घटना पूरी कहनी है।

‘वह चली गयी। पर मैं फिर अपना लेख नहीं लिख सका... एक बार मैंने काग़जों की ओर देखा, ‘सफल क्रान्ति!’ दो शब्द मेरी ओर देखकर हँस रहे थे... विस्मृत आहुतियों का शान्ति-जनक निष्कर्ष!’ प्रवंचना! मैंने वे काग़ज़ फाड़कर आग में डाल दिये। फिर भी शान्ति नहीं मिली।। मैं सोचने लगा, इसके बाद वह क्या करेगी? कोल्पिन के घर में... माइकेल क्रेस्की तो शायद मुक्त हो जाएंगे... किन्तु उसके बाद?

उस उद्धार के फलस्वरूप, आनन्द, उल्लास, गौरव-कहाँ होंगे? वहाँ होगी व्यथा, प्रज्वलन, पशुता का तांडव! जहाँ स्वतन्त्रता का उद्दाम आह्वान होना चाहिए, वहाँ क्या होगा? एक स्त्री-हृदय के टूटने की धीमी आवाज!

मैंने जाकर लैम्प बुझा दिया। कमरे में अँधेरा छा गया केवल कहीं-कहीं अंगीठी की आग में लाल-लाल प्रकाश पड़ने लगा और उसमें कुर्सी की टाँगों की छाया एक विचित्र नृत्य करने लगी! मैं उसे देखते-देखते फिर सोचने लगा-इसी समय कोल्पिन के घर में न जाने क्या हो रहा होगा... मेरिया वहाँ पहुँच गयी होगी... शायद अब तक क्रेस्की मॉस्को की किसी गली में छिपने के लिए चल पड़े हों... वह क्या सोचते होंगे कि उनका उद्धार कैसे हुआ? मेरिया की बात उन्हें मालूम होगी? शायद वहाँ उनका मिलन हो जाय-किन्तु कोल्पिन क्यों होने देगा? मेरिया के बलिदान की बात शायद कोई न जान पाएगा - किसी को भी मालूम नहीं होगा... असीम समुद्र में बहते हुए एका-एक बुझ जानेवाले दीप की तरह उसकी कथा वहीं समाप्त हो जाएगी - और मैं उसका नाम तक नहीं जान पाऊँगा! कैसी विडम्बना है यह!

घड़ी में बारह बजे। मैं चौंका एक अत्यन्त वीभत्स दृश्य मेरी आँखों के आगे नाच गया। कोल्पिन और मेरिया... उस दृश्य के विचार को भी मैं नहीं सह सका! मैंने उठकर किवाड़ खोल दिये और दरवाज़े के बीच में खड़ा होकर वर्षा को देखने लगा। कभी-कभी एक-आध ओला मेरे ऊपर पड़ जाता था, किन्तु मुझे उसका ध्यान भी नहीं हुआ। मैं आँखें फाड़कर रात्रि के अन्धकार में वर्षा की बूँद देखने की चेष्टा कर रहा था...

पूर्व में जब धुँधला-सा प्रकाश हो गया, कब मेरा वह जाग्रत स्वप्न टूटा। तब मुझे ज्ञान हुआ कि मेरे हाथ-पैर सर्दी से संज्ञा-शून्य हो गये हैं। मैंने मानो वर्षा से कहा, ‘वहाँ जो कुछ होना था, अब तक हो चुका होगा।’ फिर मैं किवाड़ बन्द कर अन्दर जाकर लेट गया और अपने ठिठुरे हुए अंगों को गर्मी पहुँचाने के लिए कम्बल लपेटकर पड़ रहा...

उस दिन की घटना यहीं समाप्त होती है; पर उसके बाद एक-दो घटनाएँ और हुई, जिनका इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह भी यहीं कहूँगा।

इसके दूसरे दिन मैंने पढ़ा, “कल रात को जनरल कोल्पिन और कर्नल गोराव्स्की दोनों अपने घरों में मारे गये। जनरल कोल्पिन की हत्या एक स्त्री ने रिवाल्वर से की। उनको मारने के बाद उसने रिवाल्वर से आत्मघात कर लिया। कर्नल गोरोव्स्की घर में तलवार से मरे पाए गये। कहा जाता है कि उनकी अपनी तलवार और रिवाल्वर दोनों गायब हैं। जिस रिवाल्वर से जनरल कोल्पिन की हत्या की गयी, उस पर गोरोव्स्की और कोल्पिन की घातक यही स्त्री है। पुलिस जोरों से अनुसन्धान कर रही है, लेकिन अभी इसके रहस्य का कुछ पता नहीं लगा है।”

क्रेस्की का कहीं नाम भी नहीं था।

यह रहस्य आज भी नहीं खुला। हाँ, उसके कुछ दिन बाद मैंने सुना कि माइकेल क्रेस्की पीटर्सबर्ग के पास पुलिस से लड़ते हुए मारे गये...

वह रहस्य दबा ही रह गया। शायद माइकेल क्रेस्की को स्वयं भी कभी यह नहीं ज्ञात हुआ कि वे मॉस्को से उस दिन आधी रात के समय क्यों एका-एक छोड़ दिए गये...

किन्तु अशान्ति का जो बीज मेरे हृदय में बोया था, वह नहीं दब सका। जिस दिन मैंने सुना कि माइकेल क्रेस्की मारे गये, उस दिन मेरी धमनियों में रूसी रक्त खोल उठा... क्रेस्की के कारण नहीं, किन्तु मेरिया के शब्दों की स्मृति के कारण। मैनें अपने स्कूल में एक व्याख्यान दिया, जिसमें जीवन में पहली बार विशुद्ध हृदय से मैंने क्रान्ति का समर्थन किया था...

इसके बाद मुझे रूस से निर्वासित कर दिया गया, क्योंकि क्रान्ति के पोषकों के लिए रूस में स्थान नहीं था!

आज मैं पेरिस में रहता हूँ। मॉस्को की तरह अब भी मैं अध्यापन का काम कर रहा हूँ, किन्तु अब उसमें मेरी रुचि नहीं है। आज भी मैं क्रान्ति-विषयक पुस्तकों का अध्ययन करता हूँ, किन्तु अब पढ़ते समय मेरा ध्यान अपनी अनभिज्ञता की ओर ही रहता है। आज भी मेरा वह संग्रह उसी भाँति पड़ा है, किन्तु अब उसकी सबसे अमूल्य वस्तु है वह टूटी हुई तलवार! हाँ, अब मैंने व्याख्यान देना छोड़ दिया है - अब एक विचित्र विषादमय अशान्ति, एक विक्षोभमय ग्लानि, मेरे हृदय में घर किये रहती है...

ज्वालामुखी से आग निकलती है और बुझ जाती है, किन्तु जमे हुए लावा के काले-काले पत्थर पड़े रह जाते हैं। आँधी आती है और चली जाती है, किन्तु वृक्षों की टूटी हुई शाखें सूखती रहती हैं। नदी में पानी चढ़ता है और उतर जाता है, किन्तु उसके प्रवाह से एकत्रित घास-फूस, लकड़ी किनारे पर सड़ती रह जाती है। वह टूटी तलवार उसके आवागमन का स्मृतिचिह्न है। जब भी इस ओर देखता हूँ, दो धधकते हुए निर्निमेष वृत्त मेरे आगे जा जाते हैं, मैं सहसा पूछ बैठता हूँ, मेरिया, इवानोव्ना, तुम मानवी थीं या दानवी, या स्वर्ग-भ्रष्टा विपथगा देवी?”

(दिल्ली जेल, सितम्बर 1931)
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Saturday 14 January 2017

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सदा चांदनी | बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' | कविता | Sada Chandani | Bal Krishan Sharma 'Naveen' | Hindi Poem

कवि कारावास में बंद है | कारावास के आँगन में चांदनी आ जाती जो उसे रोमांचित करती है |.....

                                                      













कुछ धूमिल-सी कुछ उज्ज्वल-सी झिलमिल शिशिर-चाँदनी छाई
मेरे कारा के आँगन में उमड़ पड़ी यह अमल जुन्हाई।

अरे आज चाँदी बरसी है मेरे इस सूने आँगन में
जिससे चमक आ गई है इन मेरे भूलुंठित कण-कण में
उठ आई है एक पुलक मृदु मुझ बंदी के भी तन-मन में
भावों की स्वप्निल फुहियों में मेरी भी कल्पना नहाई,

मैं हूँ बंद सात तालों में किंतु मुक्त है चंद्र गगन में
मुक्ति बह रही है क्षण-क्षण इस मंद प्रवाहित शिशर-व्यजन में
और कहाँ कब मानी मैंने बंधन-सीमा अपने मन में!
जन-जन-गण का मुक्ति-संदेसा ले आई चंद्रिका-जुन्हाई!

मैं निज काल कोठरी में हूँ औ' चाँदनी खिली है बाहर
इधर अंधेरा फैल रहा है फैला उधर प्रकाश अमाहर
क्यों मानूँ कि ध्वान्त अविजित जब है विस्तृत गगन उजागर
लो मेरे खपरैलों से भी एक किरण हँसती छन आई!

मास वर्ष की गिनती क्यों हो वहाँ जहाँ मन्वंतर जूझें
युग परिवर्तन करने वाले जीवन वर्षों को क्यों बूझें
हम विद्रोही, कहो हमें क्यों अपने मग के कंटक सूझें
हमको चलना है, हमको क्या, हो अंधियारी या कि जुन्हाई!
कुछ धूमिल-सी कुछ उज्ज्वल-सी हिय में सदा चाँदनी छाई!
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Friday 13 January 2017

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गेहूँ और गुलाब | रामवृक्ष बेनीपुरी | हिंदी लेख | Gehu aur Gulab | Ramvirksh Benipuri | Hindi lekh |

इस लेख में रामवृक्ष बेनीपुरी ही यह विमर्श कर रहे हैं कि गेहूं हमारी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है जबकि गुलाब मानसिक आवश्यकताओं की | यदि हम मानसिक आवश्यताओं की जगह शारीक आवश्यकताओं को पहल देंगे तो हम में मानवता की जगह राक्षसता के गुण आजायेंगे क्योंकि मानव को मानव मन की शरीर पर जीत ने बनाया है |

गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है।

गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्‍या चाहते हैं - पुष्‍ट शरीर या तृप्‍त मानस? या पुष्‍ट शरीर पर तृप्‍त मानस?

जब मानव पृथ्‍वी पर आया, भूख लेकर। क्षुधा, क्षुधा, पिपासा, पिपासा। क्‍या खाए, क्‍या पिए? माँ के स्‍तनों को निचोड़ा, वृक्षों को झकझोरा, कीट-पतंग, पशु-पक्षी - कुछ न छुट पाए उससे !

गेहूँ - उसकी भूख का काफला आज गेहूँ पर टूट पड़ा है? गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ !

मैदान जोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं - गेहूँ के लिए।

बेचारा गुलाब - भरी जवानी में सि‍सकियाँ ले रहा है। शरीर की आवश्‍यकता ने मानसिक वृत्तियों को कहीं कोने में डाल रक्‍खा है, दबा रक्‍खा है।

किंतु, चाहे कच्‍चा चरे या पकाकर खाए - गेहूँ तक पशु और मानव में क्‍या अंतर? मानव को मानव बनाया गुलाब ने! मानव मानव तब बना जब उसने शरीर की आवश्‍यकताओं पर मानसिक वृत्तियों को तरजीह दी।

यही नहीं, जब उसकी भूख खाँव-खाँव कर रही थी तब भी उसकी आँखें गुलाब पर टँगी थीं।

उसका प्रथम संगीत निकला, जब उसकी कामिनियाँ गेहूँ को ऊखल और चक्‍की में पीस-कूट रही थीं। पशुओं को मारकर, खाकर ही वह तृप्‍त नहीं हुआ, उनकी खाल का बनाया ढोल और उनकी सींग की बनाई तुरही। मछली मारने के लिए जब वह अपनी नाव में पतवार का पंख लगाकर जल पर उड़ा जा रहा था, तब उसके छप-छप में उसने ताल पाया, तराने छोड़े ! बाँस से उसने लाठी ही नहीं बनाई, वंशी भी बनाई।

रात का काला-घुप्‍प परदा दूर हुआ, तब यह उच्छवसित हुआ सिर्फ इसलिए नहीं कि अब पेट-पूजा की समिधा जुटाने में उसे सहूलियत मिलेगी, बल्कि वह आनंद-विभोर हुआ, उषा की लालिमा से, उगते सूरज की शनै: शनै: प्रस्‍फुटित होनेवाली सुनहली किरणों से, पृथ्‍वी पर चम-चम करते लक्ष-लक्ष ओसकणों से! आसमान में जब बादल उमड़े तब उनमें अपनी कृषि का आरोप करके ही वह प्रसन्‍न नहीं हुआ। उनके सौन्‍दर्य-बोध ने उसके मन-मोर को नाच उठने के लिए लाचार किया, इन्‍द्रधनुष ने उसके हृदय को भी इन्‍द्रधनुषी रंगों में रँग दिया!

मानव-शरीर में पेट का स्‍थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्‍क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की।

गेहूँ की आवश्‍यकता उसे है, किंतु उसकी चेष्‍टा रही है गेहूँ पर विजय प्राप्‍त करने की। उपवास, व्रत, तपस्‍या आदि उसी चेष्‍टा के भिन्‍न-भिन्‍न रूप रहे हैं।

जब तक मानव के जीवन में गेहूँ और गुलाब का सम-तुलन रहा वह सुखी रहा, आनंदमय रहा !

वह कमाता हुआ गाता था और गाता हुआ कमाता था। उसके श्रम के साथ संगीत बँधा हुआ था और संगीत के साथ श्रम।

उसका साँवला दिन में गायें चराता था, रात में रास रचाता था।

पृथ्‍वी पर चलता हुआ वह आकाश को नहीं भूला था और जब आकाश पर उसकी नजरें गड़ी थीं, उसे याद था कि उसके पैर मिट्टी पर हैं।

किंतु धीरे-धीरे यह सम-तुलन टूटा।

अब गेहूँ प्रतीक बन गया हड्डी तोड़नेवाले, उबानेवाले, थकानेवाले, नारकीय यंत्रणाएँ देनेवाले श्रम का - वह श्रम, जो पेट की क्षुधा भी अच्‍छी तरह शांत न कर सके।

और गुलाब बन गया प्रतीक विलासिता का - भ्रष्‍टाचार का, गंदगी और गलीज का। वह विलासिता - जो शरीर को नष्‍ट करती है और मानस को भी !

अब उसके साँवले ने हाथ में शंख और चक्र लिए। नतीजा - महाभारत और यदुवंशियों का सर्वनाश !

वह परंपरा चली आ रही है। आज चारों ओर महाभारत है, गृहयुद्ध है, सर्वनाश है, महानाश है!

गेहूँ सिर धुन रहा है खेतों में, गुलाब रो रहा है बगीचों में - दोनों अपने-अपने पालन-कर्ताओं के भाग्‍य पर, दुर्भाग्‍य पर !

चलो, पीछे मुड़ो। गेहूँ और गुलाब में हम एक बार फिर सम-तुलन स्‍थापित करें।

किंतु मानव क्‍या पीछे मुड़ा है? मुड़ सकता है?

यह महायात्री चलता रहा है, चलता रहेगा !

और क्या नवीन सम-तुलन चिरस्‍थायी हो सकेगा? क्‍या इतिहास फिर दुहराकर नहीं रहेगा?

नहीं, मानव को पीछे मोड़ने की चेष्‍टा न करो।

अब गुलाब और गेहूँ में फिर सम-तुलन लाने की चेष्‍टा में सिर खपाने की आवश्‍यकता नहीं।

अब गुलाब गेहूँ पर विजय प्राप्‍त करे ! गेहूँ पर गुलाब की विजय - चिर विजय! अब नए मानव की यह नई आकांक्षा हो!

क्‍या यह संभव है?

बिलकुल सोलह आने संभव है !

विज्ञान ने बता दिया है - यह गेहूँ क्‍या है। और उसने यह भी जता दिया है कि मानव में यह चिर-बुभुक्षा क्‍यों है।

गेहूँ का गेहुँत्‍व क्‍या है, हम जान गए हैं। यह गेहुँत्‍व उसमें आता कहां से है, हमसे यह भी छिपा नहीं है।

पृथ्‍वी और आकाश के कुछ तत्‍व एक विशेष प्रतिक्रिया के पौधों की बालियों में संगृहीत होकर गेहूँ बन जाते हैं। उन्‍हीं तत्‍वों की कमी हमारे शरीर में भूख नाम पाती है !

क्‍यों पृथ्‍वी की कुड़ाई, जुताई, गुड़ाई! हम पृथ्‍वी और आकाश के नीचे इन तत्‍वों को क्‍यों न ग्रहण करें?

यह तो अनहोनी बात - युटोपिया, युटोपिया!

हाँ, यह अनहोनी बात, युटोपिया तब तक बनी रहेगी, जब तक मानव संहार-काण्‍ड के लिए ही आकाश-पाताल एक करता रहेगा। ज्‍यों ही उसने जीवन की समस्‍याओं पर ध्‍यान दिया, यह बात हस्‍तामलकवत् सिद्ध होकर रहेगी !

और, विज्ञान को इस ओर आना है; नहीं तो मानव का क्‍या, सर्व ब्रह्माण्‍ड का संहार निश्चित है !

विज्ञान धीरे-धीरे इस ओर भी कदम बढ़ा रहा है !

कम से कम इतना तो अवश्‍य ही कर देगा कि गेहूँ इतना पैदा हो कि जीवन की परमावश्‍यक वस्‍तुएँ हवा, पानी की तरह इफरात हो जायँ। बीज, खाद, सिंचाई, जुताई के ऐसे तरीके और किस्‍म आदि तो निकलते ही जा रहे हैं जो गेहूँ की समस्‍या को हल कर दें !

प्रचुरता - शारीरिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति करने वाले साधनों की प्रचुरता - की ओर आज का मानव प्रभावित हो रहा है !

प्रचुरता? - एक प्रश्‍न चिह्न!

क्‍या प्रचुरता मानव को सुख और शांति‍ दे सकती है?

'हमारा सोने का हिंदोस्‍तान' - यह गीत गाइए, किंतु यह न भूलिए कि यहाँ एक सोने की नगरी थी, जिसमें राक्षसता निवास करती थी! जिसे दूसरे की बहू-बेटियों को उड़ा ले जाने में तनिक भी झिझक नहीं थी।

राक्षसता - जो रक्‍त पीती थी, जो अभक्ष्‍य खाती थी, जिसके अकाय शरीर था, दस शिर थे, जो छह महीने सोती थी !

गेहूँ बड़ा प्रबल है - वह बहुत दिनों तक हमें शरीर का गुलाम बनाकर रखना चाहेगा! पेट की क्षुधा शांत कीजिए, तो वह वासनाओं की क्षुधा जाग्रत कर बहुत दिनों तक आपको तबाह करना चाहेगा।

तो, प्रचुरता में भी राक्षसता न आवे, इसके लिए क्‍या उपाय?

अपनी मनोवृत्तियों को वश में करने के लिए आज का मनोविज्ञान दो उपाय बताता है - इंद्रियों के संयमन की ओर वृत्तियों को उर्ध्‍वगामी करने की।

संयमन का उपदेश हमारे ऋषि-मुनि देते आए हैं। किंतु, इसके बुरे नतीजे भी हमारे सामने हैं - बड़े-बड़े तपस्वियों की लंबी-लंबी तपस्‍याएँ एक रम्‍भा, एक मेनका, एक उर्वशी की मुस्‍कान पर स्‍खलित हो गईं!

आज भी देखिए। गांधीजी के तीस वर्ष के उपदेशों और आदेशों पर चलनेवाले हम तपस्‍वी किस तरह दिन-दिन नीचे गिरते जा रहे हैं।

इसलिए उपाय एकमात्र है - वृत्तियों को उर्ध्‍वगामी करना !

कामनाओं को स्‍थूल वासनाओं के क्षेत्र से ऊपर उठाकर सूक्ष्‍म भावनाओं की ओर प्रवृत्त कीजिए।

शरीर पर मानस की पूर्ण प्रभुता स्‍थापित हो - गेहूँ पर गुलाब की !

गेहूँ के बाद गुलाब - बीच में कोई दूसरा टिकाव नहीं, ठहराव नहीं !

गेहूँ की दुनिया खत्‍म होने जा रही है। वह दुनिया जो आर्थिक और राजनीतिक रूप में हम सब पर छाई है।

जो आर्थिक रूप से रक्‍त पीती रही, राजनीतिक रूप में रक्‍त बहाती रही !

अब दुनिया आने वाली है जिसे हम गुलाब की दुनिया कहेंगे। गुलाब की दुनिया -मानस का संसार - सांस्‍कृतिक जगत्।

अहा, कैसा वह शुभ दिन होगा हम स्‍थूल शारीरिक आवश्‍यकताओं की जंजीर तोड़कर सूक्ष्‍म मानव-जगत् का नया लोक बनाएँगे?

जब गेहूँ से हमारा पिण्‍ड छूट जायगा और हम गुलाब की दुनिया में स्‍वच्‍छंद विहार करेंगे !

गुलाब की दुनिया - रंगों की दुनिया, सुगंधों की दुनिया!

भौंरे नाच रहे, गूँज रहे; फुल सूँघनी फुदक रही, चहक रही! नृत्‍य, गीत - आनंद, उछाह!

कहीं गंदगी नहीं, कहीं कुरूपता नहीं, आंगन में गुलाब, खेतों में गुलाब, गालों पर गुलाब खिल रहे, आँखों से गुलाब झाँक रहा !

जब सारा मानव-जीवन रंगमय, सुगंधमय, नृत्‍यमय, गीतमय बन जायगा! वह दिन कब आयेगा !

वह आ रहा है - क्‍या आप देख नहीं रहे हैं ! कैसी आँखें हैं आपकी। शायद उन पर गेहूँ का मोटा पर्दा पड़ा हुआ है। पर्दे को हटाइए और देखिए वह अलौकिक स्‍वर्गिक दृश्‍य इसी लोक में, अपनी इस मिट्टी की पृथ्‍वी पर ही!

शौके दीदार अगर है, तो नजर पैदा कर!
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Thursday 12 January 2017

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पुरुष का भाग्य | अज्ञेय | हिंदी कहानी | Purush ka Bhagya | Hindi Kahani | Agyey



मानव की मानव के प्रति जागरूकता आज के इस ज़माने में एक मशीन की आड़ में प्रकट होती है - या तो वह मोटर के स्टीयरिंग पर बैठा पहियों को बचाकर चलने में चौकन्ना है, या वह स्वयं राही है और मोटर के स्टीयरिंग पर बैठे हुए अनेक मानवों से बचकर चलने में चौकन्ना है। बचने और बचाने का ही रिश्ता जब मानव-मानव में हो, तब इसकी सम्भावना कम है कि उस अकेली चलती हुई औरत की विचित्र क्रिया पर किसी का भी ध्यान गया हो - फिर चाहे कोल्हू के बैल-से आज के मानव के जीवन में वह क्रिया कितना ही गहरा अभिप्राय रखती हो...

मानिकतल्ले की सड़क पर, कॉलेज-स्क्वेयर से कुछ आगे, काली के मन्दिर के पास ही पटरी पर वह चली जा रही थी। मन्दिर में अर्च्चा में बहाये हुए, या प्रार्थिनी विधवाओं के गीले कपड़ों से बहे हुए, पानी से वह पटरी कुछ दूर पर तक पैरों-जूतों के पिच-पिच उपहारों से क्लान्त और बोझल, फिर क्रमशः सूखी होती चली गयी थी।

इसी स्थल पर चलती हुई वह औरत एकाएक अकचका कर रुकी, हड़बड़ाई सी पैर बचाकर एक ओर को हटी और फिर सिमट कर बचती हुई-सी आगे बढ़ी, दो कदम चलकर रुकी और फिर धीरे-धीरे, काँपती-सी आगे चली गयी...

कोई भी इस क्रिया को देखता तो अनुमान लगाता कि बहुत देर से व्रतादि करनेवाली किसी जीवन-विक्षत, धर्मप्राण हिन्दू स्त्री के अनुष्ठान से लौटते समय पैर के नीचे अचानक किसी जीव-जीव भी सख्त त्वचावाला नहीं, पिलपिला और चेंपदार, जिससे छूकर तलवे का संवेदनशील मध्य भाग तड़प जाये, जैसे मेंढक या केंचुआ-के आ जाने से जो प्रतिक्रिया होती, वही प्रतिक्रिया यहाँ भी देखी है।

लेकिन पटरी पर तो कोई जीव नहीं था, किसी भूतपूर्व जीव की लोथ भी नहीं।

केवल सूखी हुई धूल के ऊपर दो गीले पैरों की छाप वहाँ पर थी - पास-पास, छोटे-छोटे। इन्हीं बाल पद चिह्नों पर पैर पड़ने से वह इतनी आकुलता से बची थी - उसका सारा पिंजर काँप गया था और वह जैसे गिरने लगी थी, फिर सँभलकर आगे बढ़ी थी।

वह ऐसे था, जैसे घोर कारागार में एकाएक कोई फाटक खुल गया हो...

१ 

पाँच क़दम लम्बाई की उस कोठरी के भीतर भ्रान्त गीत से आगे-पीछे घूमती हुई प्रतिमा एकाएक रुक गयी। क्या आगे-पीछे ही जीवन-क्रम है? वह बन्दिनी है, लेकिन इस परिपाटी के खिलाफ़ विद्रोह करना चाहती है। क्यों जीवन में आगे ही बढ़ना या पीछे ही हटना? क्यों पाँच क़दम आगे और पाँच क़दम वापस? वह आगे-पीछे का क्रम छोड़कर कोठरी के चारों ओर चक्कर काटने लगी-बीच में चक्की, खड्डी, पतरा कई विघ्न थे, लेकिन सीधी की बजाय मंडलाकार चाल चलने से उसे कुछ सन्तोष हुआ। यह गोल-गोल घूमना भी कोल्हू के बैल की तरह है, पर सन्तोष शायद इसलिए मिलता है कि वह केवल घिरी हुई नहीं है, कुछ है जो उसकी भी मुट्ठी में है; कुछ जो उसकी देन है, जो उसके अन्तरतम से प्रसूत होकर बाहर की ओर, संसार की ओर उन्मुख है, कुछ जो-

प्रतिमा को लगता है, वह बद्ध रहेगी, जेल ही में रहेगी, पर जैसे किसी अव्यक्त, दिव्य निमित्त से कहीं को एक फाटक उसके लिए खुल गया है...

२ 

आत्म-प्रवंचना! कौन-सा, किधर का, कहाँ को है - वह फाटक जो खुला है?

जेल के इन पिछले चार वर्षों में प्रतिमा के जीवन-मन्दिर में कई फाटक खुले और बन्द हुए हैं। कभी कहीं फाटक न होने से सेंध लगाकर ही कालतस्कर घुस आया है और न जाने किधर को निकल गया है। प्रतिमा का पति किसी षड्यन्त्र के मुक़दमे में फाँसी लटक गया है; वह स्वयं एक ऐसे ही अपराध में, स्कूल में अध्यापन करती हुई, क्लास में से पकड़कर जेल में डाल दी गयी है और वहीं सात वर्ष की कारावास की सज़ा की घोषणा होते-होते तक स्त्री से माता हो गयी है। धरे हुए पुरुष का खोना और जने हुए पुरुष का पाना इतना पास-पास हुआ है कि वह उद्भ्रान्त-सी हो गयी है, लेकिन खुलने और बन्द होनेवाले इन फाटकों की भूलभूलैयाँ में उसने अपना अभिमान नहीं खोया है। लोगों ने उसे विश्वास दिलाया था कि माता होने पर वह छूट जाएगी, उसने तिरस्कारपूर्वक इस विश्वास को निकाल फेंका था। छोड़ी वह नहीं गयी, और विश्वास व्यर्थ गया, लेकिन उसने तिरस्कार किया था तो निराश होने के डर से नहीं, एक सहज दर्प से, जो किसी की दया से छूटना नहीं चाहता था।

और न जाने किस दिव्य या दैव क्रिया से, प्रतिमा को अकेलापन नहीं अखरा था, न जाने कैसे वरे हुए पुरुष के अन्तर्धान होने की खलिश इस जने हुए पुरुष ने धीरे-धीरे दूर कर दी थी। वह पुरुष अभी शिशु था, उसकी चाल अटपटी और वाणी तुतली थी, पर प्रतिमा को ऐसा लगता था कि वह भाग्य के फाटक की ओर समर्थ पैरों से बढ़ रहा है, कि उसके स्पर्श से फाटक खुल जाएगा, कि उसके पीछे खड़ी होकर प्रतिमा भी देखेगी कि वह भाग्य शिशु का नहीं, पुरुष का है...

३ 

कब की बात है? कैसे उसे याद आती है? याद नहीं आनी चाहिए, क्योंकि आज उसका सारा जीवन एक ही अनुभूति केन्द्रित है, और वह अनुभूति शिशु-पुरुष की समीपता की नहीं है, ‘वह दूसरी अनुभूति है’ ओफ़ कितनी दूसरी!

क्योंकि वह शिशु-पुरुष आज उसके साथ नहीं है। एक दिन जेलवालों ने कहा था, बालक अब बड़ा हो गया है अब तुम्हारे साथ नहीं रहा सकता। तुम्हारे सम्बन्धी हैं? तब उसने अभिमान से कह दिया था, मेरा कोई नहीं है। यह मेरे पास रहेगा। और एक बार जगाकर इस अभिमान को छोड़ना कठिन हो गया था - फाटक कई हैं, लेकिन आलोक अभिमान का है। उस दिन वे चले गये थे, पर पीछे प्रतिमा को पता लग गया था कि उसका भाग्य उसके साथ नहीं है, कि जिस शिशु को जेलवालों ने पुरुष मान लिया है, उसका मार्ग अलग होगा ही। और एक दिन वे आकर उसे ले गये थे-कह गये थे कि वे उसे अनाथाश्रम में रखने का प्रबन्ध कर रहे हैं... जेल के फाटक के बाहर - पर अनाथाश्रम का फाटक...

४ 

एक दिन ले गये थे? आज है वह दिन - अभी वे उसे ले गये हैं। अभी, जब मैं यह चक्कर काटने लगी हूँ। अभी! पुरुष को पाना, पुरुष को खो देना-क्या वह आगे-पीछे की गति ही जीवन की गति है? मैं इसे अस्वीकार करती हूँ। मैं कोठरी का चक्कर काटती हूँ; मैं पृथ्वी का एक अंश घेरती हूँ, जीवन का एक अंश है, जो मेरी मुट्ठी में है; जो मुझसे प्रस्तुत होकर संसारोन्मुख है, जो-

इस समय वह जेल के दफ्तर में होगा। कुछ लिखा-पढ़ी हो रही होगी, कुछ काग़जी कार्रवाई, उसके बाद वह वहाँ से भी आगे चलेगा, वह फाटक उसके लिए खुलेगा और वह उतनी सब सीढ़ियाँ उतरकर आगे बढ़ेगा - कि फाटक अब तक खुल ही चुका है?

मैं अपनी कोठरी में आगे-पीछे नहीं, चक्कर काटती हुई चल रही हूँ; यह भी कोल्हू के बैल की तरह है, पर उसकी मार्फत मुझे लगता है, जैसे कहीं को एक फाटक मेरे लिए खुल गया है; मेरे लिए किसी अव्यक्त, दिव्य निमित्त से, पर उसी की मार्फत, उसी पुरुष की मार्फत, जिसका भाग्य मैंने गढ़ा है...

दफ्तर में।

क्या बच्चे को पता है कि वह अब पुरुष है, कि वह माँ से छिन नहीं रहा, पुरुषत्व को प्राप्त कर रहा है, पुरुष के भाग्य की ओर जा रहा है? क्योंकि वह रो नहीं रहा है, एक अपरिचित, अस्पष्ट-सा अभिमान उसके भीतर भर रहा है कि इन अनेक छोटे-बड़े अफ़सरों के बीच वह एक बच्चे की तरह नहीं, उनके परामर्शों का केन्द्र बनकर खड़ा है... तभी तो, जब जेल का सुपरिंटेंडेंट उसे बाहर भेजने की कार्रवाई समाप्त करके चलने को हुआ, ड्योढ़ी से निकलकर फाटक तक आया, कई सांकलों और कुंडों की खड़खड़ झनझन के साथ फाटक खुला, तब सुपरिंटेंडेंट को पहुँचाने आये हुए छोटे अफ़सरों के साथ वह भी आगे बढ़ता आया। उस समय कोई विशेष आह्लाद उसके मन में नहीं था, केवल वह कुछ-कुछ चेतता हुआ अभिमान-बढ़कर साहब के बराबर को हो लिया, किसी ने उसे रोका नहीं (क्या इसलिए नहीं कि वह बच्चा है? नहीं, उससे नये अभिमान ने कहा, नहीं इसलिए कि वह पुरुष है!), वह और आगे बढ़ा-

चौदह सीढ़ियाँ और फिर रास्ता और उसके ऊपर आकाश - आकाश को चीरता हुआ एक आरक्त-कंठ तोता - आह, यहाँ नहीं हैं सींखचे, नहीं हैं फाटक - है एक आकुल निमन्त्रण-

स्वातन्त्र्य-पुरुष का भाग्य...

उसका पैर फिसल गया। जैसे अनन्त का फाटक खुला और बन्द हो गया। दृश्य को घेरनेवाली आँखें फिर अपनी ज्योति में घिर गयी।

५ 

चक्कर काटती हुई प्रतिमा क्षण-भर रुक गयी, न जाने क्यों। फिर वह घेरा छोड़कर पहले की तरह चलने लगी क्या आगे और पीछे ही जीवन-क्रम है वह विद्रोह करना चाहती है। पुरुष को पाना और पुरुष को खोना, आगे और पीछे, पीछे और आगे-काले सींखचों से अन्धी दीवार तक, अँधी दीवार से काले सींखचों तक, जिसके आगे दूसरी दीवार के सींखचे, जिसके आगे - क्या है, क्या है, मेरे पुत्र का भवितव्य, मेरे वरे हुए नहीं, जने हुए पुरुष का भाग्य!

क्रमशः वह जान जाएगी।

काली के मन्दिर के पास की पटरी पर वह औरत लड़खड़ा कर फिर सँभल गयी है और आगे चल पड़ी है। कोई फाटक खुला नहीं है, आगे सींखचे हैं।

(कलकत्ता, जनवरी 1940)
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Tuesday 10 January 2017

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छाया | कहानी | अज्ञेय | Chhaya | Hindi Story | Agyey |



मैंने बहुत फाँसियाँ देखी हैं उन्हें देखने का आदी-सा हो गया हूँ। जब मेरी ड्यूटी फाँसी पर लगती है, तब मुझे घबराहट नहीं होती, मेरा जी नहीं मिचलता। अपना काम पूरा करता हूँ। और खुशी-खुशी चला आता हूँ, दूसरी बार मुझे उसका ख़याल भी नहीं होता। जैसा कहानियों में होता है, चलते-चलते ठिठक जाऊँ, खाना खाते-खाते चौंककर देखने लगूँ कि हाथों में खून तो नहीं लगा है, सोते-सोते स्वप्न में चिल्ला उठूँ, यह सब मुझे न होता है न कभी हुआ है। हाँ, उस एक फाँसी की याद मेरा भी दिल हिला देती है। इसलिए नहीं कि उसमें कोई खास बात थी। नहीं, वह भी और फाँसियों की तरह एकदम मामूली फाँसी थी... पर उसके पहले और बाद की एक-दो घटनाएँ ऐसी थीं, और वह क़ैदी जो उस दिन फाँसी देखने के लिए भेजा गया था, उसके मुँह के भाव शायद और फाँसियों की तरह मैं उस फाँसी को भूल जाता, लेकिन उस कैदी की याद एकदम फाँसी की याद दिला देती है... कैदी की फाँसी की और उन एक-दो घटनाओं की कहानी एक-दूसरे से ऐसी जुड़ी हुई है कि एक का ध्यान आते ही सारी कहानियाँ आँखों के सामने फिर जाती हैं -और उस लड़की के पत्र की, उस बेंत लगने के नज़ारे की, और उस क़ैदी के गाने की याद मेरे आगे नाच उठती हैः

आसन तलेर माटिर परै लूटिए र’ब।

तोमार चरण धूलाय धूलाय धूसर ह’ब!

बाईस साल से जेल में वार्डरी करता हूँ, लेकिन ऐसी बात कभी नहीं देखी थी। और बार्डरों की तरह मैंने भी सब बदमाशियाँ की हैं, कैदियों को सिगरेट, तम्बाकू, सुलफा, गुड़, सब कुछ लाकर देता हूँ, चिट्ठी भी अन्दर-बाहर पहुँचा देता हूँ, मशक्कत में भी गड़बड़कर देता हूँ। नब्ज देखकर कैदियों की हर तरह से मदद करता हूँ, लेकिन पैसा लेकर। बिना पैस गाँठे कभी किसी को एक बीड़ी तक नहीं दी। लेकिन उसकी आँखों में, आवाज़ में कुछ जादू था-मैं उसका सब काम बिना कुछ लिए कर देता था-और काम भी छोटा-मोटा नहीं, दफ़्तर से चिट्ठियाँ तक चुरा लाता था...

मेरी औरत जेल की मेट्रन है, औरत होने की वजह से वह मुझसे ज्यादा गड़बड़ करती रहती है। लेकिन वह जब मेरी करतूतें सुनती तब घर में रार मच जाती... “इतने बड़े काम, और एक पैसा भी नहीं! किसी दिन फँस जाओगे, तो दोनों को सड़कों पर भूखे भटकना पड़ेगा।” कभी-कभी दस-दस दिनों तक एक-दूसरे से बोलने की नौबत न आती... मैं वायदे करता आगे से कभी ऐसा न करूँगा। लेकिन फिर, जब वह मुझसे कुछ काम कहता, मैं भेड़-बकरी की तरह दुबककर चुपचाप कर देता। जब वह खुश होकर कहता, “मँगतू, तुम्हारा कर्जा कैसे चुकाऊँगा?” तो में निहाल हो जाता, मेरी बाछें खिल जातीं...

उस दिन फिर मेरी और मेरी घरवाली की लड़ाई हो रही थी। उसी वक़्त हेड वार्डर ने आकर बुलाया, “मेट्रन!” हम दोनों बाहर चले आये। मैंने पूछा, “क्या है?”

वह बोला, “एक औरत हवालात में आयी, ख़ून के मामले में। उसे बन्द करना है।”

मेट्रन जेल के भीतर चली गयी। मैंने हेड वार्डर से पूछा “कैसी औरत है?”

“मैंने देखी नहीं। कहते हैं, इन्हीं बमबाज़ों में से है। पिस्तौल से तीन आदमी मार दिये, और चार जख्मी किए, फिर पकड़ी गयी।”

“नाम क्या है?”

“सुसमा या सुषमा, ऐसा ही कुछ है। लेकिन पुलिसवाले कहते हैं कि उसका असली नाम कुछ और है।”

मुझे दिलचस्पी बहुत हुई, लेकिन ज़नाने वार्ड में तो जा नहीं सकता। मैंने सोचा, ‘वह’ वापस आएगी तो उससे पूछूँगा।

पर आठ बज गये, ‘वह’ नहीं आयी। मैं अन्दर अपनी ड्यूटी पर चला गया। मेरी ड्यूटी चक्कियों पर थी। सबसे पहली जो कोठरी थी, उसमें वह क़ैदी रहता था। सारे जेल में वही एक ‘पोलिटिकल’ कैदी था। वैसे तो और भी ‘पोलिटिकल’ बहुत थे, लेकिन वे पिकेटिंग में तीन-तीन, छःछः महीने की सज़ा लेकर आये थे, और दूसरी तरफ बैरकों में रहते थे। वही अकेला था जिसे दस साल की सजा हुई थी। मैंने सुना था, उसने कई ख़ून किये हैं मगर सुल्तानी गवाह के पलट जाने से सबूत नहीं मिला, इसलिए सजा दस ही साल रह गयी। कुछ हो, वह बड़ा शान्त आदमी था, और अपनी धुन में मस्त रहता था। एक बार मैंने उससे पूछा, “अरुण बाबू, ये सब चिट्ठियाँ-विट्ठियाँ जो तुम मँगवाते हो, सो किसलिए?” तो वह हँसकर बोला, “मेरे दस से पन्द्रह साल हो जाएँगे लेकिन एक बार सरकार की नाक में दम कर दूँगा।” मैंने बहुत पूछा, समझाकर कहो, पर वह हँसता ही रहा, और कोई जवाब नहीं दिया...

उसी की कोठरी के बाहर मैं बैठ गया,-वहीं मेरी ड्यूटी थी।

जेल की ड्योढ़ी में नौ बजे तो मैंने सोचा, अभी दो घंटे और बैठना पड़ेगा... इसी सोच से बढ़ता न जाने कहाँ-कहाँ के चक्कर लगा आया, यह नौकरी कैसी बुरी है, अठारह रुपये के लिए सोना तक हराम हो गया है! इससे अच्छा होता, कहीं स्टेशन पर कुलीगीरी करता - पर उसमें भी तो रात की गाड़ियाँ देखनी पड़तीं। कहीं ताँगा चलाया करता - दिन-भर की सैर होती और रात को मज़े से घर आकर सोता... इस नौकरी में ऊपर के आठ-दस मिलते हैं, उसमें भी मिल ही जाते, और इतनी चोरी, ऐसी लुक-छिप न करनी पड़ती। और न जाने ऐसी कितनी अनाप-शनाप बातें सोचता रहा...

एकाएक मैं चौंका। दूर पर कोई औरत गा रही थी-गा क्या रही थी एक बड़ी लम्बी तान लगा रही थी... उस आवाज़ में कितनी मिठास, कितनी कसक थी! मैंने ध्यान से सुना-आवाज़ जनाने वार्ड से आ रही थी-पर पहले तो वहाँ कोई गानेवाली नहीं थी... यह वही सुसमा या सुषमा है... पर उस गाने से मानो आकाश भर गया था-मैं कुछ सोच नहीं सका, चुपचाप सुनने लगा...

वेदी तेरी पर मा, हम क्या शीश नवाएँ!

तेरे चरणों पर मा, हम क्या फूल चढ़ाएँ?

लोह मुकुट है सिर पर

पूजा को ठहरें मा, या समर-क्षेत्र में जाएँ?

लय टूट गयी। मुझे ऐसा मालूम हुआ, मानो धरती एक बार बड़े ज़ोर से काँप कर रुक गयी हो। मैं चुप बैठा रहा, शायद इसी आशा में कि वह फिर गायेगी। और मुझे निराश भी नहीं होना पड़ा। गाना फिर शुरू हुआ, पर पहले और इसमें कितना फ़र्क था! पहला था मानो खुशी से भरा हुआ, उछलता हुआ चला जा रहा हो, और यह-दबे हुए दर्द से, जलन से भरा हुआ... मानो एक गरीब की आह लम्बी-हो-होकर एक तान हो गयी हो...

तन में मेरे चरणों की मैं धूमिल धूलि रमाये,

मन में तेरे सुख की आभा की मैं याद बसाये,

तुझे खोजती कहाँ-कहाँ पर भटकी मारी-मारी,

पर निष्ठुर तू पास न आया मैं रो-रोकर हारी!

मेरी जान तड़प गयी... मैं और सुन नहीं सका, कुछ बोलने को जी चाहा। मैंने पुकारकर कहा, “अरुण बाबू, सुनते हो?” लेकिन कोई जवाब न आया। मैंने समझा, अरुण बाबू सो गये होंगे, चुप होकर बैठा रहा... वह तान फिर आयी, पहले से भी अधिक ऊँची - उफ़्!

आज लगा जब मेरा पिंजरा उसी व्यथा से जलने,

तब तू आया उसी राख को पैरों तले कुचलने!

भूला-भूला रहता, मैं भी समझा लेती मन को-

क्यों बिखराया फिर तूने आ गरीबिनी के धन को?

आह ठंडी हो गयी। मैंने कहा, “अरुण बाबू!” कोई जवाब नहीं आया-आयी कहीं से धीरे-धीरे रोने की आवाज़! मैंने कोठरी के पास जाकर देखा, वह क़ैदी दोनों हाथों से सीखचे पकड़े, उन पर सिर रखे, सिसक-सिसक कर रो रहा था। अचम्भे में आकर कहा, “क्या बात है, अरुण बाबू?”

उसने मुँह फेर लिया। मैंने फिर कहा, “छिः, अरुण बाबू, इतने बड़े होकर रोते हो?”

वह चुप हो गया। पाँच-सात मिनट चुप बैठा रहा। फिर बोला, “मँगतू यह कौन गा रहा था?”

मैंने जवाब दिया, एक नयी औरत आयी है, हवालात में। सुना है उसने तीन पुलिसवालों को गोली से उड़ा दिया है। फिर मैंने जो कुछ उसके बारे में सुना था, सब बता दिया। दो-एक मिनट चुप रहकर वह बोला, “उसका नाम क्या है जानते हो?”

“सुसमा या सुषमा, कुछ ऐसा ही है।”

उसने धीरे से कहा “सुषमा!” और चुप हो गया।

मैंने पूछा, “अरुण बाबू, उसे जानते हो क्या?”

उसने तो कुछ देर जवाब नहीं दिया। फिर बोला, “वह मेरी बहिन है।”

मैंने कहा, “जभी तो!”

जभी तो क्या, इसका जवाब मुझे खुद भी नहीं मालूम था। इतना कह चुकने के बाद मेरी और कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी। उसी ने फिर पूछा, “मँगतू, तुम मेट्रन को जानते हो?”

मैंने कुछ हँसकर कहा, “हाँ, क्यों?”

“हँसते क्यों हो?”

“कुछ नहीं, वह मेरी घरवाली ही है।”

“अच्छा! तो मेरा एक काम करोगे?”

“क्या?”

“एक चिट्ठी उसे पहुँचानी होगी।”

मैंने चौंककर कहा, “मेट्रन को?”

“नहीं, उस-सुषमा को।”

इसका जवाब देने के पहले मैं कुछ देर सोचता रहा। उससे जब कहूँगा, चिट्ठी पहुँचा दो, तो वह क्या कहेगी? आगे ही लड़ाई होते-होते बची थी। पर मैं इनकार भी नहीं कर सकता था। मैंने कहा, “काम तो जोख़िम का है।”

“मँगतू, यह काम तुम्हें जरूर करना पड़ेगा। मैं जन्म-भर तुम्हारा उपकार मानूँगा।”

“अच्छा, तुम लिखकर दे दो।”

उसने अँधेरे में ही चक्की के नीचे से एक काग़ज़ का टुकड़ा और एक पेंसिल निकाली और कुछ लिखकर मुझे दे दिया। मैंने चुपके से उससे काग़ज़ लेकर जेब में रखा और अपनी जगह जाकर बैठ गया। सोचता रहा कि कैसे काम करना होगा...

आखिर ग्यारह भी बज गये। दूसरा वार्डर आ गया, मैं उठकर घर पहुँचा। वह चटाई बिछाये बैठी थी, मुझे देखकर बोली, “खाना रखा है, जल्दी से खा लो।” मैंने चुपचाप खाना खाया। फिर जाकर बिस्तर पर बैठ गया और हुक्का पीने लगा। मेरी ओर देखती हुई बोली, “अब सोओगे भी या सारी रात गुड़गुड़ी बजाओगे?”

मैंने कुछ एक ओर सरककर कहा, “यहाँ आओ, तुमसे कुछ बात करनी है।”

वह चारपायी पर मेरे पास आकर बैठ गयी और बोली, “क्या?”

“वह जो नयी हवालातिन आयी है – सुषमा - वह गज़ब का गाती है।”

उसने भवें तानकर कहा, “तुमसे मतलब?”

मैंने देखा, बिस्मिल्ला ही गलत हुआ। बात बदलकर बोला, “यों ही। आज दो रुपये गाँठें हैं।” यह कहकर मैंने धीरे से जेब में रुपये खनका दिये।

देवी कुछ शान्त हुई। बोली, “कैसे?”

“उसी पोलिटिकल ने दिये हैं-एक चिट्ठी पहुँचाने के लिए। पर वह काम तुम्हें करना होगा।”

“क्या?”

“इसी सुषमा को एक चिट्ठी पहुँचानी है।” कहते हुए मैंने चिट्ठी जेब से निकाल ली।

उसने एक बार तीखी नज़र से मेरी ओर देखा, फिर चिट्ठी मेरे हाथ से लेकर पढ़ने लगी।

मैंने कहा, “यह क्या करती हो?” किन्तु टोकते-टोकते मुझे खुद भी पढ़ने की चाह हुई। मैंने झुककर पढ़ा, सिर्फ दो-तीन सतरें लिखी हुई थीं।

“बहिन सुषमा - तुम्हारा गायन सुनकर मुझे कुछ याद हो आया। तुम शारदा को जानती हो - और उस नाव की दुर्घटना को? - अरुण।”

बायीं ओर कोने में लिखा था, “वाहक विश्वस्त है।”

पत्र पढ़कर देवी का कोप कम हो गया। “पहुँचा दूँगी। पर समझ में तो कुछ आया नहीं!”

मैंने कहा, “समझकर क्या करोगी? जिनका काम है वे जानें। पर सवेरे ही पहुँचा देना। शायद जवाब भी-”

सबेरे उठते ही वह भीतर चली गयी, और थोड़ी देर बाद वापस आ गयी। मैंने पूछा, “क्यों?” उसने बिना जवाब दिये वही चिट्ठी लौटा दी। उसके एक कोने में लिखा था - “सुषमा शारदा को जानती है-और उस दुर्घटना को भी। विस्तार फिर।” मैंने काग़ज़ जेब में रख लिया। वह बोली, “दाम के हिसाब से काम तो कुछ भी नहीं था।” मैंने मन-ही-मन हँसकर कहा, “इससे हमें क्या मतलब? हम अपना काम पूरा करते हैं।” कहकर मैं फिर अपनी ड्यूटी पर चला। कोठरियाँ खोलकर कैदियों को बाहर कारखानों में पहुँचाना था।

सब कोठरियाँ खोलकर मैं उसकी कोठरी पर पहुँचा। दरवाज़ा खोलकर मैंने कहा, “अरुण बाबू, चलो कारखाने में।” कहते-कहते मैंने वह चिट्ठी उसके हाथ में दे दी। उसने कहा, “आज तबीयत ठीक नहीं, मैं काम पर नहीं जाऊँगा।”

“तो फिर डॉक्टर को रिपोर्ट करनी होगी।”

“कर दो।”

“वे अभी यहाँ आएँगे।” कहकर मैंने आँख से इशारा किया।

वह बोला, “हाँ-हाँ, आने दो।” और मुस्कराया। मुझे तसल्ली हो गयी कि उसने इशारा समझ लिया है। मैं कोठरी बन्द कर डॉक्टर को बुलाने चला गया।

जब मैं डॉक्टर के साथ वापस आया तब वह कुछ चबा रहा था। हमें देखकर जल्दी से निगल गया। मैंने मन-ही-मन कहा, “ठीक है, चिट्ठी तो गयी।”

डॉक्टर ने कैदी से कहा, “जबान दिखाओ।”

कैदी ने जबान निकाल दी। डॉक्टर उसे देखने को झुका और बहुत धीरे-धीरे बोला, “अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।”

कैदी ने मुस्कराकर उसी तरह धीरे-धीरे उत्तर दिया, “मेरे पास कुछ नहीं है। और होता भी तो...।”

मैं मुँह फेरकर हँसा। डॉक्टर बोला, ‘क़ैदी बीमार नहीं है, बहाना करता है। साहब को रिपोर्ट करो।” कहकर वह चला गया।

मैंने कहा, “अरुण बाबू, तुमने अच्छा नहीं किया।”

उसने हँसकर जवाब दिया, “मुझे अब किसी की परवाह नहीं है।”

आधे घंटे के बाद हेड-वार्डर और डिप्टी के साथ साहब आये। उन्हें देखकर कैदी उठा नहीं, वहीं बैठा रहा। साहब ने पूछा, “काम पर क्यों नहीं जाता?”

उसने शान्त भाव से उत्तर दिया, “तबीयत ठीक नहीं है।”

साहब ने कहा, “ट्वेंटी स्ट्राइप्स!” और चले गये। जाने पर मालूम हुआ कि बीस बेंत का हुक्म दे गये हैं।

हेड-वार्डर उसे उसी वक्त ले गये। मैं सुन्न हुआ अपनी ड्यूटी पर बैठा रहा...

आधे घंटे बाद वह वापस आ गया। शरीर पर सिर्फ एक लंगोट-वह भी लहू से भीग रहा था... हाथ में अपने कपड़े लिये, अकड़ता हुआ आया, और कोठरी में चला गया । हेड-वार्डर ने कहा, “बन्द कर दो।” वह हँसकर बोला, “काम पर तो नहीं गया।” हेड-वार्डर चला गया। मैं अपनी जगह जाकर बैठ गया, आज उससे बात करने की हिम्मत नहीं थी...

ग्यारह बजे ड्यूटी खत्म करके पहुँचा, तो देवी मुँह लटकाए बैठी थीं। मैंने पूछा, “आज उदास क्यों हो?” उसने मानो सुना ही नहीं। बोली, “आज जिसको बेंत लगे हैं, वही हैं अरुण बाबू?”

“हाँ।”

“बड़ा बाँका जवान है।”

मैंने डरते-डरते कहा, “मैं तो सदा से कहता हूँ।”

“लेकिन तुम मर्दों की अक्ल का क्या इतबार?”

मैं चुप रहा। थोड़ी देर बाद मैंने पूछा, ‘तुमने कहाँ देखा?”

“जब बेंत लगाने लाए थे, तब।”

“फिर?”

“साहब आये थे, इसलिए मैं सब औरतों के लिए परेड कराने को अपने वार्ड के बाहर जंगले में खड़ी थी। सामने ही टिकटी खड़ी थी, उसी ओर हम देख रहे थे। इसी वक्त वह लंगोट बाँधे आया और अकड़कर टिकटी पर खड़ा हो गया, वह लड़की सुषमा उसको देखकर काँप गयी, फिर मेरे पास आकर बोली, “यह क्या हो रहा है?”

मैंने कहा, “बेंत लगेंगे।” वह बोली, ‘बेंत!” फिर सींखचों को पकड़कर खड़ी हो गयी। उसका मुँह लाल हो आया, पर वह कुछ बोली नहीं।

“फिर?”

“उसने भी सुषमा को देखा। देखकर चौंका, मुस्कराया, फिर एकटक देखता ही रहा। जितनी देर बेंत लगते रहे, दोनों हिले तक नहीं-वैसे ही एक-दूसरे की ओर देखते रहे। फिर जब वे उसे उतारकर ले गये, तब वह घूमी, और “भइया!”

कहकर धरती पर बैठ गयी...”

“फिर?”

“फिर मैंने उसे हिलाया, तब मानो स्वप्न से जागकर उठी, चुपचाप मेरे साथ अन्दर चली आयी। मैंने ढाढ़स देने को कहा, “बहिन, ऐसा होता ही रहता है।”

उसने सिर झुकाए ही कहा, “इस वक़्त जाओ!” मैं चली आयी।”

मैं चुपचाप बैठ गया।

इसके बाद चार-पाँच दिन कुछ भी नहीं हुआ। मैं रोज रात को अपनी ड्यूटी पर जाता और पूरी करके चला आता... सुषमा का गाना रोज़ वहाँ सुनाई पड़ता था-

भूला-भूला रहता, मैं भी समझा लेती मन को-

क्यों बिखराया, फिर तूने आ गरीबिनी के धन को?

मैं चुपचाप सुनता रहता था औैर वह क़ैदी भी। उसके बाद वह कभी रोया नहीं। न मेरी ही हिम्मत पड़ी कि उससे बात करने जाऊँ...

पर पाँचवें दिन वह आयी और बोली - “दीखता है, दो रुपये में बहुत चिट्ठियाँ पहुँचानी पड़ेंगी; पर उस लड़की में कुछ अज़ब गुण हैं, ना करते नहीं बनता।”

मैंने मन-ही-मन कहा, “मुझ ही पर ऐंठती थी। प्रकट बोला, “क्यों-कोई ओर चिट्ठी है क्या?”

“हाँ, यह लो,” कहकर उसने पाँच-छः लिखे हुए काग़ज़ मेरे हाथ पर रख दिए।

मैंने कहा, “यह चिट्ठी नहीं, यह तो चिट्ठा है।”

वह कुछ नहीं बोली, “मैंने चिट्ठी जेब में रख ली।

कौतूहल बड़ी बुरी चीज़ है। जब से चिट्ठी मेरे हाथ में आयी, मैं यही सोचता रहा, कब वह जाए और मैं इसे पढ़ूँ। उसके सामने पढ़ते डर लगता था - अपनी मर्दानी शान भी तो रखनी थी! उस दिन मैंने उसे अरुण की चिट्ठी पढ़ने से टोका था - बाद में खुद पढ़ ली, सो दूसरी बात है, मना तो कर दिया था न...

आखिर वह अपनी ड्यूटी पर गयी। मैं चिट्ठी लेकर पढ़ने बैठा। पढ़ते वक़्त मुझे यह ख़याल न था कि मैं अरुण बाबू से धोखा कर रहा हूँ। उनका काम तो इतना ही था कि चिट्ठी पहुँचा दूँ, किसी ग़ैर के हाथ में न पड़े। मैं कोई ग़ैर थोड़े ही था? और फिर जब पढ़कर मैं उसे अपने मन में ही रखता था, किसी से कहता नहीं था, पढ़ने में क्या हर्ज़ था?

ख़ैर, मैंने बैठकर चिट्ठी तो पढ़ डाली। कुछ समझ आयी, कुछ नहीं, पर मैंने एक अक्षर भी न छोड़ा...

सोमवार

‘भइया,

‘उस दिन तुम्हारा पत्र पाकर मुझे कितना विस्मय हुआ, सो मैं ही जानती हूँ शायद तुम्हें मेरे गाने की आवाज़ सुनकर भी इतना विस्मय न हुआ हो। मैं नहीं जानती थी कि तुम इसी जेल में हो-पर तुम तो शायद यह भी नहीं जानते थे कि मैं जीवित हूँ या नहीं...

‘तुम्हें बहुत कौतूहल होगा, इसलिए पहले शारदा की ही कहानी कहूँगी। अपनी कहानी के लिए फिर भी बहुत समय मिलेगा। उस दिन, जब तुम और शारदा नाव में बैठकर झील के किनारे की गुफ़ा में सामान इत्यादि छिपाने के लिए घुसे थे, समुद्र में ज्वार आने से झील का पानी चढ़ गया था - गुफ़ा भर गयी थी... उसके बाद नाव उलट गयी और तुम बाहर आये तो देखा शारदा का कोई पता नहीं है... वह सब मैं यहाँ बैठ स्मृति-पटल पर देख सकती हूँ, उसे दुहारने में कोई लाभ नहीं... पर शारदा डूबी नहीं थी। उसी टूटी नाव के एक तख़्ते पर बहती हुई वहाँ से दस-बारह मील दूर किनारे लगी। दो दिन एक मछुए के झोंपड़े में रही, तीसरे दिन वहाँ से चलकर रात को अपने घर पहुँची। अभी घर के बाहर ही थी कि उसने घर से बहुत-से व्यक्तियों के रोने की आवाज़ सुनी। एका-एक किसी भयंकर आशंका से काँप गयी, कहीं अरुण का भी स्वर सुना, और शान्त होकर सोचने लगी - क्या यह रोना मेरे ही लिए तो नहीं है? कैसी विचित्र दशा थी वह! शारदा जीती-जागती बाहर खड़ी, और अन्दर लोग उसकी मृत्यु पर रो रहे थे!

‘तुम जानते ही हो, शारदा कैसी विचित्र लड़की थी। इस दशा में उसने जो निर्णय किया, उसमें शारदा का व्यक्तित्व साफ झलकता है। उसने सोचा, जो काम आज कर रही हूँ, उसमें किसी-न-किसी दिन घर छोड़ना पड़ेगा-शायद जेल जाना पड़े, शायद मृत्यु का भी सामना करना पड़े। इन सबके लिए वह कितना दुखमय दिन होगा! इससे तो कहीं अच्छा है, आज ही मैं गुम हो जाऊँ। ये तो मुझे मृत समझते ही हैं... अब मेरा व्यक्तित्व कुछ नहीं रहेगा। शारदा का भूत ही सब काम करेगा... लोग पकड़ेंगे तो किसे? वारंट निकालेंगे तो किसके नाम?

“वहाँ खड़ी शारदा ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें सोचती रही। एक बार उसकी इच्छा, हुई भीतर जाकर अरुण से मिलूँ, उसे सारी कथा समझा दूँ। पर फिर और लोग भी देख लेते... और शायद अरुण भी उसकी बात न मानता...

‘फिर, जैसा कि उसकी आदत है, उसने एका-एक निर्णय कर लिया। मुख मोड़कर वहीं से लौट गयी। शायद उसकी आँख में आँसू भी थे - मुझे याद नहीं है।

‘अब उसे एक और चिन्ता हुई। वह जिस क्षेत्र में काम करती थी, उसमें तो सब अरुण के परिचित थे! वहाँ काम करना और अरुण से छिपना असम्भव था! क्षण-भर के लिए शारदा असमंजस में पड़ गयी। फिर उसने कहा, ‘काम में हाथ डालकर छोड़ना शारदा का नियम नहीं है। अब जैसे हो, निभाना पड़ेगा।

‘इसी दृढ़ निश्चय से वह कलकत्ते गयी। वहाँ उसने एक छोटी-सी समिति स्थापित की और काम करने लगी... वह जो मोटर में से एक स्त्री और दो युवकों ने गोली चलाकर तीन-चार पुलिसवालों को घायल किया था, उसकी नेत्री शारदा ही थी। उसके बाद जो कलकत्ते के पास ही एक बम-दुर्घटना हुई थी, उसमें भी शारदा बाल-बाल बच निकली थी। फिर पटने में जो रात में बम गिरा था, वह भी उसी का काम था। पर उसके बाद न जाने कैसे, पुलिस को उसका पता लग गया, उसके वारण्ट निकल गये-दो-तीन विभिन्न नामों से। तब उसको मालूम हुआ कि उससे निर्णय करने के समय एक छोटी-सी भूल हो गयी थी। नाम का भूत होने पर भी उसका शरीर स्थूल था, और उसके काम भूत के नहीं, मानवों के थे। उसके बाद वह एकदम लापता हो गयी। किसी ने उसका नाम नहीं सुना, न उसका काम ही। बस यहीं तक है शारदा की कहानी।

‘अब अपनी कहानी कहूँ। तुम्हारे क्षेत्र में मैं बहुत देर तक काम करती रही। तुम्हारे पकड़े जाने से काम अस्त-व्यस्त हो गया था, इसलिए हमारा काम प्रायः संगठन का ही था। गाँव में छोटी-छोटी समितियाँ बनाकर उनके मुखियाओं को दीक्षा देना, स्कूलों में छोटे-छोटे क्लब और यूनियन बनाकर उन्हें किताबें पढ़ाना, बाहर सैन करने ले जाकर संगठन इत्यादि के सिद्धान्त समझाने, शहर के मुहल्लों में वालंटियर-दल स्थापित करके उन्हें चुपचाप फौजी शिक्षा देना, मोटर और टैक्सी ड्राइवरों की यूनियनें बनाकर उन्हें उनका महत्त्व समझाना, यही हमारा विशेष काम था। मैं स्वयं तो खुल्लम-खुल्ला कर नहीं सकती थी, लेकिन देवदत्त, जयन्त, विश्वनाथ, और उनके साथी बड़े उत्साह से मेरी सहायता करते रहे। (मैंने जो नाम लिखे हैं उनसे किनका आशय है, तुम समझ ही जाओगे।) जो मैं उन्हें बताती, वे उससे भी बढ़कर ही काम करते थे...

‘जब हमारा संगठन पर्याप्त हो गया, तब हमने कुछ और अस्त्र मँगाने का विचार किया। इसके लिए धन की आवश्यकता थी, और वही प्राप्त करने के लिए मैं यहाँ आयी थी। पर यहाँ दुर्भाग्य से तुम्हारे ‘चचा’ (किनसे अभिप्राय है समझ लेना) ने मुझे देखा, और न जाने उन्हें क्या सन्देह हो गया... मैं बहुत भागी, पर जाती कहाँ? स्टेशन के पास ही पुलिस से सामना हो गया। मेरे पास दो रिवाल्वर थे और 36 गोलियाँ। मैंने सोचा, आज पुराने अरमान निकाल लूँ। दो-दो बार मैंने रिवाल्वर खाली किए, तीसरी बार भरने का समय ही नहीं मिला... पर मुझे दुख नहीं है, मेरे वार खाली नहीं गये!

“मेरा क्या निर्णय होगा, यह मैं जानती हूँ। झूठी आशाओं से मैं अपने को बेवकूफ़ बनाना नहीं चाहती। तुम भी मेरे विषय में कोई आशा मत बनाए रखना - इससे कोई लाभ नहीं होता। उलके निराश होने पर व्यथा अधिक होती है।

‘बुधवार।’

‘यहाँ तक पत्र लिखकर मैं बहुत देर सोचती रही। कैसे-कैसे विचित्र विचार मन में आते हैं।

‘भइया, क्या यही अच्छा होता अगर मैं किसी और स्थान में पकड़ी जाती और वहीं मेरा निर्णय हो जाता! कोई जान भी न पाता कौन थी, कहाँ से आयी थी... और शारदा-वह भी वहीं झील में डूबी रहती उसे निकलकर फिर लुप्त होना पड़ता। हम दोनों ही इस वर्तमान अतीत में छिपी रहतीं। इस प्रकार दुबारा जीकर तुम्हारे आगे न मरना पड़ता! कैसी सुखद, कैसी शान्तिप्रद मृत्यु होती वह!

‘यहाँ आकर भी सम्भव था कि मैं चुपचाप अपना दण्ड भुगत लेती। किन्तु इस प्रकार, इसी जेल में तुम्हारे होते हुए बिना परिचय दिए मैं मर जाऊँ, इतनी शक्ति मुझमें नहीं है। परिचय के बाद दण्ड पाने पर तुम्हें कितना दुख होगा, इसका कुछ अनुमान कर सकती हूँ। और शायद हम अब फिर मिल भी नहीं सकेंगे। उस दिन भी एक विचित्र संयोग से ही, जिस अवस्था में मैंने तुम्हें देखा था, उसे सौभाग्य कहना सौभाग्य का उपहास करना है। मैं तुम्हें देख पायी थी। अब सुषमा अन्धकार में लुप्त जो जाएगी, और अरुण देख भी न पाएगा।

‘यह सब होते हुए भी मेरा मन कहता है कि तुम्हें मेरे परिचय देने के बाद मरने में जो दुख होगा, वह इनकी अपेक्षा कहीं शान्तिकर होगा कि मेरी मृत्यु के बाद तुम यह जान पाओ कि मैं इसी जेल में रहकर, दण्ड पाकर, मरकर भी अपने को तुमसे छिपाती रही...

‘भइया, मेरे सामने ही तुमने ममता और भावुकता को पीस डाला था और उनकी राख पर खड़े होकर एक महान व्रत धारण किया था... अब तुममें दृढ़ता है, धैर्य है, शान्ति है। तुम इस कहानी को सुनकर दुखित होओगे, पर विचलित नहीं, इसी विश्वास में मैंने पत्र लिखा है। अगर मुझे यह विश्वास न होता तो शायद मैं तुम्हारे पत्र का पहला उत्तर भी न देती...

‘पर माता-पिता में यह धैर्य कहाँ, यह दृढ़ता कहाँ? हमारे दुखों को देखकर उनकी ममता तो बढ़ती ही रहती है। उनके लिए शारदा को डूबी ही रहने देना, उसे जिलाकर फिर उनकी आँखों के आगे बुझाना मत! और सुषमा-सुषमा तो छाया थी, उसके लिए माता-पिता कहाँ, उसके लिए महत्त्व का भाव किसके हृदय में होगा? वह छाया थी-छाया की तरह किसी दिन छिप जाएगी... उसे के लिए कौन रोयेगा, अरुण?”

बस, सितार की टूटी हुई तार की तरह चिट्ठी यहाँ एकदम खत्म हो गयी। चिट्ठी पढ़ने से पहले मुझे जितना कौतूहल था, पढ़कर उससे कहीं बढ़ गया... यह शारदा कौन है, और सुषमा कौन? सुषमा छाया है - इसका क्या मतलब? मैं बैठा-बैठा इसी उलझन को सुलझाने में लगा था इसी बीच में मुझे ख्याल आया, इस चिट्ठी में तो बड़ी-बड़ी बातें लिखी है... बड़े पते की! अगर...

मेरे मन में जो ख्याल आया, उससे मेरे तन में बिजली ही दौड़ गयी। अगर मैं यह चिट्ठी पुलिस को दे दूँ... कितना इनाम...

फिर एका-एक उस क़ैदी का मुँह मेरे सामने आ गया - और उस लड़की का गाना मेरे कानों में गूँजने लगा-

आज लगा जब मेरा अन्तर उसी व्यथा से जलने

जब तू आया उसी राख को पैरों-तले कुचलने!

मैं बैठा हुआ था, खड़ा हो गया। खड़े होकर मैंने ज़ोर से कहा, “कमीने! पर जो शर्म का समुद्र एका-एक उमड़ आया था, वह उतरा नहीं। मैंने फिर कहा, “कमीने! दगाबाज़!” तब मन को कुछ शान्ति हुई।

मैं ड्यूटी पर तो चला गया, पर उस क़ैदी के सामने नहीं हुआ। मुझे अभी तक शर्म आ रही थी कि मैंने कमीनी बात सोची थी... वह चिट्ठी मेरी जेब में ही पड़ी रही। पर जब रात को ड्यूटी पर गया, तब मैंने देखा, वह रोज़ की तरह दरवाज़े पर सीखचे पकड़े बैठा है। मैंने धीरे से कहा, “अरुण बाबू, यह लो!” उसने चुपचाप चिट्ठी लेकर दूर की बिजली की धीमी रोशनी में धीरे-धीरे पढ़ी। फिर बिस्तर में रख ली।

थोड़ी देर में चुपचाप खड़ा रहा। फिर न जाने कैसे एका-एक पूछ बैठा, “बाबू, शारदा कौन है?”

पूछकर मैं सहम-सा गया। उसने मेरी ओर देखा और फिर धीरे से कहा मानो अपने-आपसे बातें कर रहा हो, “तुमने मेरी चिट्ठी पढ़ ली?”

मैंने कुछ नहीं कहा, कहता क्या?

उसने आप ही फिर कहा, “ख़ैर, अब छिपाने में क्या रखा है? शारदा मेरी बहिन है!”

मैंने डरते-डरते पूछा, “तो यह-सुषमा?”

उसने बड़ी अजीब निगाह से मेरी ओर देखा। मुझे मालूम हुआ मानो मेरा अन्दर बाहर सब एक ही नज़र में देख गया। फिर उसने बहुत ही धीरे से कहा, “शारदा और सुषमा-एक ही के दो नाम हैं...”

पहले मैं इस बात का पूरा मतलब ही नहीं समझा। फिर धीरे-धीरे जब समझ में आने लगा तब मैंने कहा, “अंय!” और उठकर बाहर चला गया। आते-आते जो आवाज़ आयी उससे मैंने जान लिया कि वह चिट्ठी फाड़-फाड़कर खा रहा है...

बाहर वह गा रही थी-

तुझे खोज़ती कहाँ-कहाँ पर भटकी मारी-मारी-

पर निष्ठुर, तू पास न आया, मैं रो-रोकर हारी!

मेरी ड्यूटी वहाँ से बदलकर एक महीने के लिए ड्योढ़ी में लग गयी। यहाँ से ज़नाना वार्ड बिलकुल पास था। सुषमा का गाना कितना साफ़ सुन पड़ता था! कभी-कभी जेल के क्लर्क भी शाम को आकर बैठ जाते, और वह गाना सुनकर चुपके से चले जाते थे।...

एक दिन मैंने उसको देखा भी... और अब भूलूँगा नहीं-ऐसा सूरत थी वह!

शाम हो रही थी। मैं बैठा सोच रहा था, कब शाम हो और मुझे छुट्टी मिले... इसी वक्त किसी ने कहा, “फाटक खोलो!” मैंने खोल दिया। आठ-दस पुलिस के सिपाही एक लड़की को लेकर अन्दर चले आये... मुझे किसी ने कहा नहीं, पर मैं देखते ही जान गया कि यही सुषमा है...

उसके दोनों हाथों में हथकड़ी लगी थी, पर कितनी शान से चलती थी वह! बाल खुले हुए थे, तन पर चौड़ी लाल किनारी वाली सफ़ेद धोती थी। बड़ी-बड़ी आँखें थीं-एक बार उसने मेरी ओर देखा - ऐसे देखा मानो मैं उसके आगे होऊँ ही न, सिर्फ खाली हवा ही हो! फिर भी मुझे मालूम हुआ कैसे उसने मेरी सब करतूतों - नयी-पुराना, अच्छी-बुरी, सभी-को खुली किताब की तरह पढ़ लिया हो। मुँह पर उसके हल्की-सी हँसी थी, ऐसी मानो कई सालों से वहाँ उसी तरह जमी हुई हो...

वे उसे अन्दर डिप्टी के दफ्तर में ले गये। मैं भी दबकर पीछे खड़ा हो गया। डिप्टी ने वारंट देखकर कहा, “हैं?” फिर कुछ रुककर पूछा, “अपील करोगी?”

उसने हँसकर कहा, “नहीं।”

डिप्टी ने दया से उसकी ओर देखा, फिर कहा, “ले जाओ!”

सिपाही चले गये। थोड़ी दूर बाद मेट्रन के आने पर मैंने मुँह फेर लिया।

मेट्रन ने उससे पूछा, “क्यों सुषमा, क्या हुआ?’

“कुछ नहीं, फाँसी की सजा दी गयी है।”

“हैं!”

मैंने चुपचाप अन्दर का दरवाज़ा खोल दिया... वे दोनों अन्दर चली गयीं... मैंने देखा, मेट्रन की आँखों में भी आँसू हैं...

उस दिन सुषमा का गाना नहीं सुन पड़ा। उसके दूसरे दिन भी नहीं। तो तीसरे दिन... तीसरे दिन उसने नया गाना गाया... गाना क्या था, एक चिनगारी थी...

एक जलता हुआ सन्देश था। न जाने किसको...

दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहाँ बुझाओगे?

तारें वीणा की टूटेंगी-लय को कहाँ दबाओगे?

फूल कुचल दोगे तो भी सौरभ को कहाँ छिपाओगे?

मैं तो चली चली अब, तुम पर क्यों कर मुझे भुलाओगे?

तारागण के कम्पन में तुम मेरे आँसू देखोगे,

सलिला की कलकल-ध्वनि में तुम मेरा रोना लेखोगे।

पुष्पों में, परिमल समीर में, व्याप्त मुझी को पाओगे-

मैं तो चली चली पर प्रियवर! क्यों कर मुझे भुलाओगे?

इसके बाद वह रोज़ यही गाना गाने लगी... अपील की मियाद के सात दिन पूरे हो गये, उसने अपील नहीं की... फिर एक दिन सुना, मजिस्ट्रेट आकर तारीख दे गये हैं - चौदह दिन बाद फाँसी हो जाएगी...

मेरी ड्यूटी ड्योढ़ी पर थी - मैं अन्दर नहीं जा पाता था। मेट्रन जाती थी, पर सुषमा ‘कोठीबन्द’ थी, वहाँ वह भी नहीं जा पाती थी ...कई बार जी में होता था, जा कर अरुण को या उसे देख आऊँ, पर ड्योढ़ी की ड्यूटी का एक हफ़्ता-भर बाकी था। मैं जलता, छटपटाता, मन मसोसकर रह जाता...

आखिर मेरी बदली हो ही गयी। मैं धीरे-धीरे टहलने लगा। उसने मुझे देख लिया और पुकारा “मंगतू!”

मैं चुपचाप उसके पास चला आया। उसने पूछा, “कहो, कैसा हाल है?”

उसने फिर पूछा - “उदास क्यों हो?”

मैंने जवाब नहीं दिया।

“उस सुषमा की भी कोई खबर है?”

मैंने फिर कुछ नहीं कहा। “नहीं” कहता तो कैसे और बताता तो क्या? सिर्फ एक बार उसकी ओर देख दिया।

वह मेरे मन की बात समझ गया। बोला, “उसे जो सज़ा हो गयी है, सो मुझे पता है। मैं उसके गाने से समझ गया था। कोई और खबर है?”

मैंने धीरे-धीरे कहा, “हाँ। उसने अपील नहीं की, तारीख लग गयी है।”

“कब?”

“अगले मंगल को।”

“बस छः दिन?”

“हाँ।”

इसके बाद वह बहुत देर चुपचाप रहा। कुछ सोचता रहा। फिर एक लम्बी साँस लेकर बोला, “साहब कब आयेगा?”

सवाल पर मुझे कुछ अचरज-सा हुआ। मैंने कहा, “सोमवार को। क्यों?”

“यों ही। हाँ, एक चिट्ठी पहुँचाओगे?”

“वह कोठीबन्द है, काम मुश्किल है। पर देखो, शायद दाँव लग जाए।”

उसने एक छोटी-सी चिट्ठी दे दी। मैंने उसे जेब में डालते-डालते मन में कहा, “इसको नहीं पढ़ूँगा।”

मैं यह सोचता-सोचता घर पहुँचा कि कैसे कोठरी तक पहुँच पाऊँगा। वहाँ जाकर देखा, चूल्हा नहीं जला है-देवी गुस्से में भरी बैठी हैं। मैंने वर्दी उतारकर टाँगते हुए पूछा,”क्या बात है?”

मैंने डरते-डरते कहा, “अभी उस दिन तो दो रुपये दिये थे, वे क्या हुए?”

ऐसी जगह सीधी बात का सीधा जवाब नहीं मिलता। वह और भी तेज होकर बोली, ‘तुम तो चाहते हो, मैं डायन बनकर रहूँ, हाथ में एक-एक चूड़ी भी न हो! उस दिन आठ आने की चूड़ियाँ ले लीं, - उसका भी हिसाब देना होगा कि क्या हुई! वैसे ही क्यों नहीं कहते डूब मरूँ?”

जी में आया, कह दूँ, जा डूब मर, पर जी की बात जी में रख लेना मर्दों का काम ही है। मैं कुछ नहीं बोला। पर इससे वह शान्त नहीं हुई। बोली, “टुकुर-टुकुर देखते क्या हो? कुछ खाने की सलाह है कि नहीं?”

मैंने कहा, “मेरी जेब में शायद डेढ़ पैसा है - चाहो तो ले लो।”

वह आँखें छोटी करके मेरी ओर देखने लगी। फिर बोली, “अरुण बाबू ने जो दो रुपये दिये थे, वे क्या हुए?”

अब मैं समझा, मामला क्या है। पर एका-एक कोई बहाना न सूझा। फिर मैंने हिचकिचाकर कहा, “हेड वार्डर ने उधार माँगे थे, मैं इनकार नहीं कर सका।

उसने कुछ जवाब नहीं दिया, पर साफ़ मालूम होता था कि उसे विश्वास नहीं हुआ।

ख़ैर, मैं पानी का लोटा लेकर बाहर मुँह-हाथ धोने लगा। वापस आकर देखा, मेरे कोट की तलाशी हो चुकी है, और वह हाथ में एक काग़ज़ का टुकड़ा लिये खड़ी है।

मैं उस पर कम ही ग़ुस्सा करता हूँ, पर इतनी बेइतबारी मैं नहीं सह सका। मैंने पूछा, “यह क्या कर रही हो तुम?”

औरत की जात अजीब होती है, गलती अपनी और गुस्सा दूसरों पर! बोली, “क्यों जी, यह क्या है?”

मैंने काग़ज़ उसके हाथ से छीनकर पढ़ा - वह चिट्ठी थी।

‘सुषमा!

‘दो दिन के मौन के बाद जब मैंने तुम्हें गाते सुना, तभी मैंने जान लिया था कि निर्णय हो गया है... आज पक्का पता मिल गया...

‘जिस अवस्था में तुम हो, उसमें मैं तुम्हें क्या लिखूँ? क्या सान्त्वना दूँ? हाँ, एक बार, तुम्हें देखने का प्रयत्न करूँगा - शायद सफल होऊँ।

‘याद आता है, बहुत दिन हुए, एक बार तुमसे होड़ की थी कि किसका काम पहले समाप्त होगा। उस समय मुझे पूरी आशा थी कि मेरी जीत होगी। आज मैं सोच रहा हूँ, कौन जीतेगा?

-अरुण।’

पढ़ तो मैं गया, फिर मुझे शर्म आयी और उस पर गुस्सा। पर मैं चिट्ठी लेकर बाहर चला गया - वह न जाने क्या बड़बड़ाती रही।

शाम को मैं भूखा ही ड्यूटी से कुछ पहले अन्दर चला गया। अभी लैम्प नहीं जले थे, पर सूरज डूब गया था। मैंने कोठियों के दो चक्कर लगाये, फिर जल्दी से उसकी कोठरी पर जाकर काग़ज़ दे दिया। उसने लेटे ही कहा, “जवाब ले जाना।” मैंने कहा, “लिखो।” और हट गया। कोठियों के फिर तीन-चार चक्कर लगाये और आ गया। उसने एक काग़ज़ मेरे हाथ में दिया और बोली, “जबानी भी कह देना, होड़ के दो दिन बाकी हैं।” मैंने कहा, “अच्छा, नमस्कार!” उसने कुछ अचरज से, पर हँसकर, जवाब दिया, “नमस्कार!” मैं लपककर अपनी ड्यूटी पर चला।

पर काम नहीं बना। कोठियों के वार्डर ने पूछा, “कौन है?” मैं घबरा गया। वह चिट्ठी मेरे हाथ में थी - मैंने जल्दी से मुँह में डाल ली। उसने फिर पूछा, “कौन है?” मैंने कहा, “मैं हूँ मंगतराम बार्डर। यों हीं ज़रा घूमने आ गया था - अब ड्यूटी पर जा रहा हूँ।”

“अच्छा! मैं समझा, कोई क़ैदी है।”

मैंने ड्यूटी पर पहुँचकर ही साँस लिया। मैं वहीं बैठा रहा। जब खूब रात हो गयी, तब अरुण बाबू ने बुलाया, “मंगतू!” मैं अन्दर चला गया। उसने पूछा, “कहो, क्या हुआ?” मैंने कहा, “पहुँचा तो आया।” उसने खुश होकर कहा, “अच्छा।”

मैं वहीं खड़ा रहा, गया नहीं। उसने पूछा, “कुछ और बात है क्या?”

“मैंने कहा, “हाँ।”

“क्या?”

“जो जवाब लाया था-”

“जवाब भी ले आये क्या?”

“सुनो तो। जो जवाब लाया था, वह-”

“उसका क्या हुआ?”

“जब मैं आने लगा तब वार्डन ने देखकर शोर मचा दिया।”

“फिर?”

“फिर मैं वहा काग़ज़ खा गया।”

वह एक फीकी-सी हँसी हँसा। फिर बोली, “मैं तुम्हें कितनी बार खतरे में डाल चुका हूँ। मंगतू!”

मैंने कहा, “वह कोई बात नहीं है, अरुण बाबू। हाँ, एक ज़बानी सन्देशा है।”

“क्या?”

“कहने को कहा था कि अभी होड़ के दो दिन बाकी हैं।”

“अच्छा, जाओ।”

सोमवार को साहब आये, तो उनकी और अरुण बाबू की बहुत देर तक अंग्रेजी में बातें हुई। मैं समझा तो कुछ नहीं, हाँ मालूम होता था कि अरुण बाबू कुछ समझा रहा है और साहब पहले तो आनाकानी करता रहा, फिर अचम्भे में आया, फिर बोला, “आलराइट!” और डिप्टी को अंग्रेजी में कुछ समझाकर चला गया।

जब वे चले गये तो मैंने पूछा, “क्या बात हुई?”

वह बोला, “फाँसी देखने की इज़ाजत मिल गयी।”

रात को कुछ बादल घिर आये। बरसाती नहीं, वैसे ही छोटे-छोटे सफेद टुकड़े... मैं घर में गया और चुपचाप चारपायी पर लेट गया। देवी का कोप अभी खत्म नहीं हुआ था। मुझे इस तरह मुख लेटा देख शायद वह कुछ पिघली। पर रुखाई से बोली, “क्या है?” मैंने जवाब दिया, “कल सुषमा को-” आगे नहीं बोल सका। वह चौंककर बोली, “हैं?” फिर मेरे पास आकर बैठ गयी। बहुत देर तक हम चुप बैठ रहे। मैंने देखा, वह चुपचाप रो रही थी! शायद मेरे भी आँसू आ गये थे।...

मुझे रात-भर नींद नहीं आयी। सुबह पाँच बजे, तो मैं वर्दी पहनकर अन्दर चला गया। थोड़ी देर में साहब, मजिस्ट्रेट, डिप्टी, चीफ़ वार्डर वग़ैरह आ गये और चुपचाप कोठियों की ओर चले। मैं भी पीछे-पीछे चला। उसकी कोठी पर पहुँचे तो वह उठकर बैठी हुई धीरे-धीरे कुछ गा रही थी। साहब ने पूछा, “कुछ वसीयतनामा लिखाओगी?” वह जोर से हँसी और बोली, “मेरे पास दो रिवाल्वर ही थे, वे सरकार ने ज़ब्त कर लिए। अब वसीयत के लिए कुछ नहीं है।”

कोठी खुली, वह बाहर चली आयी। चीफ़ वार्डन ने उसके हाथ पीठ के पीछे बाँध दिये। वह बराबर हँसती जा रही थी!

डिप्टी ने इशारे से मुझे बुलाया। बोला, “उस पोलिटिकल को ले आओ - हथकड़ी लगा करके लाना। समझे?”

मैंने सलाम किया ओर चाबी और हथकड़ी लेकर उधर चल पड़ा।

दूर से मुझे फिर उसके गाने की आवाज़ आयी-

‘दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहाँ बुझाओगे?’

मैंने अपनी जगह पहुँचकर कहा - “अरुण बाबू! जल्दी चलो!”

वह दरवाज़े के आगे खड़ा आकाश की ओर देख रहा था। मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर आ गया। मैंने कहा, “बाबू, हथकड़ी लगाने का हुक्म हुआ है।” उसने चुपचाप दोनों हाथ बढ़ा दिये।

हम जल्दी-जल्दी फाँसी-घर की ओर चले। वहाँ पहुँचकर देखा, सब लोग एक कोने में खड़े हैं और सुषमा तख्ते पर खड़ी है। हम भी एक कोने में खड़े हो गये। सुषमा ने अरुण को देखा, उसके मुँह पर से ज़रा-सी देर के लिए मुस्कराहट चली गयी-बिजली की तरह दोनों की आँखों ने कुछ कहा, “फिर सुषमा पहले की तरह मुस्कराहट धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी-

‘दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहाँ बुझाओगे?”

अरुण का शरीर तन गया, उसने मुट्ठियाँ बड़ी जोर से बन्द कर लीं। फिर न बोला, न हिला-पत्थर की तरह खड़ा रहा...

जल्लाद सुषमा के मुँह पर टोपा पहनाने लगा। वह बोली, “यह क्या है? मैं मुँह छिपाकर मरने नहीं आयी हूँ।”

जल्लाद साहब की ओर देखने लगा। साहब ने इशारे से कहा, “मत लगाओ।”

जल्लाद ने रस्सी उठाकर गले में लगा दी और अलग हट कर खड़ा हो गया। सुषमा ने अरुण की ओर देखकर मुँह खोला, मानो कुछ कहने को हो, फिर रुक गयी और मुस्करा दी।

जल्लाद ने साहब की ओर देखा। साहब ने धीरे से एक उँगली उठाकर फिर नीचे झुका दी...

तख्ता हट गया, रस्सी तन गयी...

साहब वग़ैरह जल्दी से वहाँ से हट गये, मानो शर्म से भाग गये हों...

अरुण घुटने टेक कर बैठ गया... आँखें बन्द कर ली... मैं चुपचाप हथकड़ी पकड़े खड़ा रहा।...

आठ-दस मिनट बाद वह उठा, और सीढ़ियाँ उतर कर गड्ढे के अन्दर चला गया...

जल्लाद ने सुषमा का शरीर उतार कर नीचे लिटा दिया था, हाथ खोल दिए थे। उनके अंग नीले होने लगे थे, पर अभी अकड़े नहीं थे...

अरुण झुककर बहुत देर तक उसके मुँह की ओर देखता रहा। फिर बहुत धीमी, काँपती आवाज में बोला, “शारदा, तुम्हारी जीत हुई...”

इसी वक़्त डॉक्टर आया। अरुण को देखकर कुछ झेंप-सा गया, फिर चुपके से सुषमा की नब्ज़ देखने लगा। सिर हिलाकर बोला, “हूँ। इनको दफ़्तर में ले जाओ - पब्लिक लेने आयी है।” यह कहकर चला गया।

अरुण भी मानो सपने में ही खड़ा हो गया। बोला - “शारदा, तुम तो डूब गयी थीं, अब तुम्हारी छाया ही को लेने आयी है पब्लिक!”

उसने हाथ उठाकर एक अंगड़ाई-सी ली, फिर मानो सपने से जाग पड़ा... उसका चेहरा देखते-देखते बदल गया... आँखें बुझ-सी गयीं...

भर्राई हुई आवाज़ में वह बोला, “पब्लिक!”

फिर एक बड़ी डरावनी हँसी हँसा... और बोला, “चलो!”

मैंने ले जाकर उसे कोठरी में बन्द कर दिया...

इसके बाद मुझे उससे बोलने में कुछ डरा-सा लगने लगा। मैं अपनी जगह बैठकर ड्यूटी देता और चला जाता...

एक हफ़्ते बाद एक दिन सवेरे ही चीफ़ वार्डर आया और उससे बोला, “डिप्टी साहब का हुक्म है कि आपको कारखाने में काम पर जाना होगा।”

“काम पर जाए डिप्टी, और भाड़ में जाओ तुम! मैं कोई काम-वाम नहीं करूँगा।”

चीफ़ वार्डर चला गया। थोड़ी देर में डिप्टी आया और दरवाज़ा खुलवा कर अन्दर गया। बोला, “काम पर क्यों नहीं जाते?”

“मेरी मर्ज़ी! मैं कुली नहीं हूँ।”

“तुम क़ैदी हो क़ैदी! कोई बड़े लार्ड नहीं हो! उस दिन के बेंत भूल गये?”

“नहीं, अच्छी तरह याद हैं। आपको भी बहुत दिन नहीं भूलेंगे!”

“मैं तुम्हारी सारी अकड़ निकाल दूँगा!”

“क्या कर लेंगे? बेंत लगवायेंगे? वह मैं खा चुका हूँ... बेड़ियाँ लगवाएँगे, वे भी छः महीने पहनी हैं... फाँसी दे लीजिएगा? वह मैं देख आयाँ हूँ - उसमें बड़ा मज़ा है। ...बड़ा!”

डिप्टी ने उसका टिकट उठाया और उस पर कुछ लिख चला गया...

मैंने ताला बन्द करते हुए, “अरुण बाबू, यह क्या है?”

उसने हँसकर कहा, “कुछ नहीं, माफी बन्द और जब तक काम न करूँ कोठीबन्द!”

उस दिन से वह कोठरी से बाहर नहीं निकला। कभी-कभी जब मैं उसे समझाता तो वह हँसकर कहता, “मंगतू, अब तो यहीं कटेगी। काम करने की तो मैंने क़सम खा ली!”

अब मैं उससे कुछ-कुछ डरने लगा हूँ। जिस अरुण को मैं पहले जानता था - उसमें और इसमें कितना फ़र्क है... मैं उसकी कोठरी से कुछ दूर ही बैठता हूँ और ड्यूटी पूरी करके चला जाता हूँ... कभी-कभी उसे देख-भर लेता हूँ...

कभी-कभी गाता है। जब मैं उसे उस कोठरी के अन्धेरे में बैठे धीरे-धीरे गाते सुनता हूँ...

भूला-भूला रहता, मैं भी समझा लेती मन को-

क्यों बिखराया फिर तूने आ गरीबिनी के धन को?

तब मेरे दिल में एक धक्का लगता है, मैं सोचने लग जाता हूँ, कितनी कमीनी यह नौकरी है जिसमें मैं फँसा हूँ... और कैसे अज़ीब आदमी हैं ये पोलिटिकल क़ैदी...

पर सबसे तरसानेवाली उसकी शक्ल होती है जब बड़े सवेरे पौ फटने के वक्त वह आकर अपनी कोठरी के दरवाज़े के सीखचे पकड़ कर बैठ जाता है और भूरे आकाश में फटे हुए दूध की तरह छोटे-छोटे सफ़ेद बादल के टुकड़ों की ओर देखता हुआ गाने लगता है-

आसन तलेर माटिर पड़ि लूटिए रोबो,

तोमार चरण धूलस्य धूल धूसर होबो!

उस वक्त उसकी आवाज़ में ऐसी दबी हुई-सी आग होती है कि मेरा कलेजा दहक उठता है? मैं वहाँ से उठकर दूर जा बैठता हूँ कि वह आवाज़ मेरे कानों तक न पहुँचे...

पर उसके शब्दों से, उन गानों से, उस डरावनी हँसी से, उस टिकटी से; उस फाँसी के नज़ारे से, और उस अजीब औरत की हँसती आँखों से हटकर जाने को जगह नहीं है... शारदा की छाया को तो पब्लिक ने फूँक दिया, पर यह सुषमा की छाया जो हर वक़्त मेरे पास रहती है, इससे छुटकारा कहाँ है?...

(दिल्ली जेल, अक्टूबर 1931)
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