Monday 8 May 2017

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नर हो न निराश करो मन को | मैथलीशरण गुप्त | हिंदी कविता | Nar Ho Na Nirash Karo Man Ko | Maithlisharan Gupt

'नर हो न निराश करो मन को' मैथलीशरण गुप्त जी की एक ऐसी अद्भुत और दिव्य रचना है जिसे पढ़कर घोर निराशा में डूबा मनुष्य आशा की और अग्रसर हो जाता है, आलसी उद्यम की ओर और हतोत्साहित उत्साह की ओर | यह अमर काव्य-रचना मनुष्य को निराशा के काले अंधरे ने से निकल कर पुरुषार्थ करने को प्रेरित करती है | निष्क्रियता को तज कर सक्रियता को अपनाने का सन्देश देती है | मुझे ऐसा विश्वास है कि यह कविता पाठकों को सीमारहित प्रेरणा देगी |                                                                                                                           -रणजीत बहादुर  

नर हो, न निराश करो मन को


नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।

प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
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