Wednesday 26 October 2016

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इन्सान के दुशमन वैज्ञानिक | हिंदी लेख | राजेन्द्र त्यागी | Insaan Ke Dushman | Hindi Essay| Ranjendra Tyagi

   'इन्सान के दुश्मन वैज्ञानिक' राजेंद्र त्यागी जी द्वारा रचित एक व्यंगात्मक लेख है जिसमे लेखक ने वैज्ञानिकों के जीवों के लुप्त होने की चिंता को अधिक महत्व न देकर मनुष्य में लुप्त हो रही मनुष्यता का ज़िक्र किया | लेखक ने अपनी चिंता इस बात पर भी व्यक्त की है की यदि दो इन्सान और जानवर के जींस मिलाकर ने जीव की उत्पत्ति की गई तो इसके क्या संभवित परिणाम क्या होंगे |



       जीव वैज्ञानिक अब मानव व जानवरों के जींस मिलाकर नया जीव उत्पन्न करने की  तैयारी में हैं | इससे पूर्व चूहे को सुपर चूहा बनाया जा चूका है | सुना हैं, गिद्धों की पैदावार बढ़ाने में भी जीव विज्ञानी काफ़ी सफलता प्राप्त कर चुके हैं | लगता है कि जीव विज्ञानी इंसान विरोधी हो गए हैं | कारण स्पष्ट  है, बन्दर-कुत्ते, चूहे-बिल्ली, भेड़-बकरी पता नहीं किस-किस जानवर के भविष्य को लेकर जीव विज्ञानी चिंतित हैं, किन्तु इंसान से गायब इंसानियत उनकी चिंता का विषय नहीं है | इंसान को सुपर इंसान बनाने की बात उनके भेजे में नहीं आ रही है | इंसानों की संख्या निरंतर घट रही है, यह उनके लिए चिंता का विषय नहीं है | इसके विपरीत जनसंख्या-नियंत्रण पर अवश्य जोर दे रहे हैं | वे नहीं जानते हैं की जिनकी बढती पैदावार तुम्हारी चिंता का विषय है, उनमें इंसान हैं, कितने | उन्हें तो इंसान की शक्ल-ओ-सूरत के सभी जीव इंसान नजर आते हैं | चूहे-बिल्ली अथवा गिद्ध हमारे लिए ज्यादा चिंता का विषय नहीं है | हमारी चिंता का विषय तो व नया जीव है, जिसे मानव व जानवर के संयुक्त जीन्स  से बनाने की तयारी चल रही है | इस विषय को लेकर हमारी चिंता द्विआयामी है | वैज्ञानिकों का इरादा यदि जानवर के जींस में मानव जींस आरोपित कर उत्तम किस्म का जानवर बनाना है, तो कल्पना करो कि नये किस्म के उस जीव का चरित्र कैसा होगा ? अभी इस विषय में कल्पना ही की जा सकती है, क्योंकि अभी इस बारे में विज्ञानी भी कसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे हैं |
     हमारा मानना है कि वह नया जानवर इस सृष्टि का सर्वाधिक खतरनाक जानवर होगा | कारण स्पष्ट है, जानवर भले ही किसी भी रूप में हो, इंसान उन्हें खतरनाक ही मानकर चलता है |एक-दो दुधारुवों को छोड़कर, मगर डरता उनसे भी है | पुन: कल्पना कीजिए, जब जानवर के चरित्र में मानवीय सद्गुण व्याप्त हो जाएँगे, तो स्थिति क्या होगी ? जानवर भी बलात्कारी हो जाएँगे | भ्रष्टाचारी हो जाएँगे, असत्य भाषी हो जाएँगे, लैग-पुलर हो जायेंगे | अभी तक कहा जाता है, 'आदमी जानवर से ज्यादा खतरनाक है!' तब क्या स्थिति इसके विपरीत नहीं हो जाएगी | जानवर आदमी से ज़्यादा खतरनाक नहीं हो जाएगा?
     अब जरा दूसरी संभावना पर गौर कीजिये | इस नए शोध से यदि आदमी में जानवर के गुण आ गए, तो वह सुपर मैन होगा या नरपिशाच? नरपिशाच की कल्पना मात्र से ही क्या पसीने नहीं आने लगते हैं? स्पष्ट है कि वैज्ञानिक यदि नरपिशाच निर्मित करने पर विचार कर रहे हैं, तो जो थोड़े बहुत इंसान शेष हैं भी, तब भी वे स्वर्ग की ओर पलायन कर जाएँगे | और इंसान ढूंढे नहीं मिलेगा | जानवर तो जानवर है ही, इंसान के भेष में भी जानवरों  की तादाद बढ़ जाएगी | अब आप ही बताइए, क्या हमारी चिंता जायज़ नहीं है |
     जीव विज्ञानी गिद्धों की घटती पैदावार को लेकर चिंतित हैं | ऊर्जा गिद्धों की पैदावार बढाने में लगा रहे हैं | सुना है, सरकार भी इस विषय को लाकर काफी चिंतित है | सरकार की चिंता को लेकर हमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि सजातीय के प्रति चिंतित होना जीवों का स्वभाव है | सरकार नामक गठबंधन में सामिल तत्वों कुछ हों या न हों, किन्तु उनके जीव होने से इंकार नहीं किया जा सकता |
     वैसे, भी सरकारों का सरोकार मुख्य रूप में चिंता और चिंतन से ही है, अत: गिद्धों के प्रति उनका मोह आश्चर्य का विषय नहीं है | आश्चर्य हमें वैज्ञानिकों की सोच को लेकर है, क्योंकि हम उन्हें बुद्धूजीवी नहीं बुद्धिजीवी मानते हैं और गिद्धों का विजातीय मानते हैं | हमारा मानना है कि कम से कम वैज्ञानिकों का मुख्य उद्देश्य तो मानव सेवा ही है | फिर न जाने क्यों, उन्हें अचानक गिद्ध मोह हो गया? क्यों उनकी पैदावार बढ़ाने में अभियान चला रहे हैं? पता नहीं क्यों अपनी ऊर्जा उनका उत्पादन बढ़ाने में ज़ाया करने पर वे उतारू हैं? इसे सोहबत का असर भी कहा जा सकता है और परिस्थतिजन्य अन्य कारण भी |
     अभियान केवल गिद्धों की पैदावार को लेकर ही चलाया जाता तो भी हमारी चिंता का वजन ज्यादा न होता , हमारे लिए चिंता सरकारी स्तर की होती | चिंता का वज़न वजनी होने का कारण इंसानों की अपेक्षा गिद्दों को कहीं अधिक महत्व देना है |
     गिद्धों की पैदावार घट रही है, यह सुनकर भी आश्चर्य होता है और इंसानियत विरोधी ऐसे लोगों  की बुद्धि पर तरस भी आता है | वास्तविकता तो यह है कि पैदावार गिद्धों की नहीं, इंसानों की घट रही है | गिद्ध एक ढूंढो, हज़ार मिलते हैं और इंसानों हज़ार के बीच एक भी मुश्किल से!
     हम इतना अवश्य स्वीकारते हैं कि मरे जानवरों को आहार बनाने वाले गिद्धनुमा विशाल परिंदे आसमान में परिक्रमा करते अब नहीं दिखाई पड़ते, लेकिन उनकी न तो उनकी संख्या में ही कमी आई और न ही उनका पैदवार घटी है, केवल स्वरुप बदला है |
     परिवर्तित स्वरुप को पहचानो और अपनी दृष्टि बदलो, चारों ओर गिद्ध ही गिद्ध नज़र आएँगे | उनके स्वरुप में ही नहीं, स्वभाव में भी परिवर्तन आया है | परिंदे गिद्ध मृत देह का भक्षण करते थे, परिवर्तित गिद्ध जीवित को ही अपना आहार बना रहे हैं |
     परिंदे पर्यावरण के लिए लाभदायक होते होंगे, हम इनकार नहीं करते, मगर विचारणीय प्रश्न यह भी है कि परिवर्तित गिद्ध समाज के पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं |
     खैर जो भी है, खोज गिद्धों की नहीं, जटायु की होंनी चाहिए और उन्हीं  की घटती पैदावार चिंता का विषय होना चाहिए | लुप्त होते गिद्धों के लिए, सरकार व वैज्ञानिकों को लुप्त होती इंसानियत की चिंता होनी चाहिए | इंसानियत वाले सुपर इन्सान बनाने के प्रयास करने चाहिए |

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Monday 3 October 2016

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राष्ट्रीयता | हिंदी लेख |गणेशशंकर विद्यार्थी | Rashtreeyta | Hindi Essay | Ganesh Shankar Vidyarthi |

राष्ट्रीयता 

भारत में हम राष्ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं | हमें भारत के उच्च और उज्वल भविष्य का विश्वास है | हमें विश्वास है कि हमारी बाढ़ किसी के रोके नहीं रुक सकती |

देश में कहीं-कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी और भद्दी भूल की जा रही है | आये दिन हम इस भूल के अनेकों प्रमाण पाते हैं | यदि इस भाव के अर्थ भली-भाँती समझ लिए गए होते तो इस विषय में बहुत-सी अनर्गल और अस्पष्ट बातें सुनने में न आतीं | राष्ट्रीयता जातीयता नहीं है | राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं है | राष्ट्रीयता सामजिक बन्धनों का घेरा नहीं है | राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से होता है | इसकी सीमाएँ देश की सीमाएँ हैं | प्राकृतिक विशेषता और भिन्नता देश को संसार से अलग और स्पष्ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्य के बंधन-से बंधती है | राष्ट्र पराधीनता के पालने में नहीं पलता | स्वाधीन देश ही राष्ट्रों की भूमि है, क्योंकि पुच्छ-विहीन पशु हों तो हों, परन्तु अपना शासन अपने हाथों में न रखने वाले राष्ट्र नहीं होते | राष्ट्रीयता का भाव मानव-उन्नति की एक सीढ़ी है | उसका उदय नितांत स्वाभाविक रीति से हुआ | यूरोप के देशों में यह सबसे पहले जन्मा |
     मनुष्य उसी समय तक मनुष्य है, जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऐसा ऊँचा आदर्श है, जिसके लिए वह अपने प्राण तक दे सके | समय की गति के साथ आदर्शों में परिवर्तन हुए | धर्म के आदर्श के लिए लोगों ने जान दी और तन कटाया | परन्तु संसार के भिन्न-भिन्न धर्मों के संघर्षण, एक-एक देश में अनेक धर्मों के होने तथा धार्मिक भावों की प्रधानता से देश के व्यापार, कला-कौशल और सभ्यता की उन्नति में रूकावट पड़ने से, अंत में धीरे-धीरे धर्म का पक्षपात कम हो चला और लोगों के सामने  देश-प्रेम का स्वाभाविक आदर्श सामने आ गया | जो प्राचीन काल में धर्म के नाम पर कटते-मरते थे, आज उनकी संतति देश के नाम पर मरती है | पुराने अच्छे थे या ये नये, इस पर बहस करना फिजूल ही है, पर उनमें भी जीवन था और इनमें भी जीवन है | वे भी त्याग करना जानते थे और ये भी और उन अभागों से लाख दर्जे अच्छे और सौभाग्यवान हैं जिनके सामने कोई आदर्श नहीं और जो हर बात में मौत से डरते हैं | ये पिछले आदमी अपने देश के बोझ और अपनी माता की कोख के कलंक हैं | देश-प्रेम का भाव इंग्लैंड में उस समय उदय हो चूका था, जब स्पेन के कैथोलिक राजा फिलिप ने इंग्लैंड पर अजेय जहाजी बेड़े आरमेड़ा द्वारा चढ़ाई की थी, क्योंकि इंग्लैंड के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट, दोनों प्रकार के ईसाइयों ने देश के शत्रु का एक-सा स्वागत किया | फ़्रांस की राज्यक्रांति ने राष्ट्रीयता को पूरे वैभव से खिला दिया | इस प्रकाशमान रूप को देखकर गिरे हुए देशों को आशा का मधुर सन्देश मिला | १९वीं  शताब्दी थी | वर्तमान जर्मनी का उदय इसी शताब्दी में हुआ | पराधीन इटली ने स्वेच्छाचारी आस्ट्रिया के बन्धनों से मुक्ति पाई | यूनान को स्वाधीनता मिली और बालकन के यूनान को स्वाधीनता मिली और बालकन के अन्य राष्ट्र भी कब्रों से सर निकाल कर उठ पड़े | गिरे हुए पूर्व ने भी अपने विभूति दिखाई | बाहर वाले उसे दोनों हाथों से लूट रहे थे | उसे चैतन्यता प्राप्त हुई | उसने अँगड़ाई ली और चोरों के कान खड़े हो गये | उसने संसार की गति की ओर दृष्टि फेरी | देखा, संसार को एक नया प्रकाश मिल गया है और जाना कि स्वार्थपरायणता के इस अंधकर को बिना उस प्रकाश के पार करना असम्भव है |
     उसके मन में हिलोरें उठीं और अब हम उन हिलोरों के रत्न देख रहे हैं | जापान एक रत्न है-ऐसा चमकता हुआ कि  राष्ट्रीयता उसे कहीं भी पेश कर सकती है | लहर रुकी नहीं | बढ़ी और खूब बढ़ी | अफीमची चीन को उसने जगाया और पराधीन भारत को उसने चेताया | फारस में उसने जागृति फैलाई और एशिया के जंगलों और खोहों तक में राष्ट्रीयता की प्रतिध्वनि इस समय किसी न किसी रूप में उसने पहुँचाई | यह संसार की लहर है | इसे रोका नहीं जा सकता | वे स्वेच्छाचारी अपनी हाथ तोड़ लेंगे-जो उसे रोकेंगे और उन मुर्दों की खाक का भी पता नहीं लगेगा - जो इसके सन्देश को नहीं सुनेगे | भारत में हम राष्ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं | हमें भारत के उच्च और उज्वल भविष्य का विश्वास है | हमें विश्वास है कि हमारी बाढ़ किसी के रोके नहीं रुक सकती | रास्ते में रोकने वाली चट्टानें आ सकती हैं | बिना चट्टानें पानी की किसी बाढ़ को  नहीं टोक सकतीं, परन्तु एक बात है, हमें जान-बूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए | ऊटपटांग रास्ते नहीं नापने चाहिए |
     कुछ लोग 'हिन्दू राष्ट्र' -'हिन्दू राष्ट्र' चिल्लाते हैं | हमें क्षमा किया जाय, यदि हम कहें-नहीं, हम इस बात पर जोर दें- कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक 'राष्ट्र शब्द के अर्थ ही नहीं समझे | हम भविष्यवक्ता नहीं, पर अवस्था हमसे कहती है कि अब संसार में 'हिन्दू राष्ट्र' नहीं हो सकता, क्योंकि राष्ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन देशवालों के हाथ में हो और यदि मान लिया जाय कि आज भारत स्वाधीन हो जाये, या इंग्लैंड उसे औपनिवेशिक स्वराज्य दे दे, तो भी हिन्दू ही भारतीय राष्ट्र के सब कुछ न होंगे और जो ऐसा समझते हैं- हृदय से या केवल लोगों को प्रसन्न करने के लिए-वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुँचा रहे हैं | वे लोग भी इसी प्रकार की भूलकर रहे हैं जो टर्की या काबुल, मक्का या जेद्दा का स्वप्न देखते हैं, क्योंकि वे उनकी जन्मभूमि नहीं और इसमें कुछ भी कटुता न समझे जानी चाहिए, यदि हम यह कहें कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मरिसेये- यदि वे इस योग्य होंगे तो - इसी देश में गाये जायेंगे, परन्तु हमारा प्रतिपक्षी, नहीं, राष्ट्रीयता का विपक्षी मुँह बिचका कर कह सकता है कि राष्ट्रीयता स्वार्थों की खान है | देख लो इस महायुद्ध को और इंकार करने का साहस करो की संसार के राष्ट्र पक्के स्वार्थी नहीं है ? लोहे से डॉक्टर का घाव चीरने वाला चाकू और रेल की पटरियाँ बनती हैं और इसी लोहे से हत्यारे का छूरा और लड़ाई की तोपें भी बनती हैं | सूर्य की प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है पर वह बेचारा मुर्दा लाश का क्या करें, जो उसके लगते ही सड़कर बदबू देने लगती है | हम राष्ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सब कुछ नहीं, वक केवल हमारे देश की उन्नति का उपाय-भर है |
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